(भाग 2 का बाकि) ________
दूसरे के साथ आपका इस तरह का व्यवहार धोखा ही साबित होता है, जो अंतत वह अपने साथ किया गया दुर्व्यवहार ही सिद्ध होता है। यह एक-एक पाई का स्वचलित हिसाब है। जिस प्रकार आप एक पत्थर उठाकर झील में फेंक देते हैं तो उससे उत्पन्न तरंगे दूसरे किनारे की यात्रा पर चल पड़ती हैं। ठीक उसी प्रकार आपके गलत बोल और कर्म से उत्पन्न तरंग सारे संसार में फैलनी शुरू हो जाती है जो एक छोर से दूसरे छोर तक फैलती चली जाती है। इन गलत तरंगों द्वारा जितने लोगों का अहित होता है उन सभी के लिए इस जगत में आप खुद ही ज़िम्मेदार हो जायेंगे। सम्भव है कि शक्तिशाली लोगों पर इसका प्रभाव नहीं पड़े,
परन्तु कमज़ोर मानसिकता के लोग अवश्य ही इसका शिकार हो जायेंगे। आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि एक गलत तरंग कितना नुकसान कर जाती है और आप निश्चित जानिए वे करने वाले के पास लौटेंगी अवश्य। इस जगत में कोई भी कृत्य निष्परिणामी नहीं हो सकता है। यदि आप सुखद और दुःखद तरंग के वैज्ञानिक प्रभाव का अध्ययन करना चाहते हैं तो ध्यान में बैठे उन लोगों के समूह के पास से गुजरें और फिर एक जुआ घर, शराब घर या कत्लगाह से गुजरे। आपको दोनों जगहों की तरंगों के अंतर का पता चल जायेगा।
फिर ऐसा क्या करें कि इन कृत्यों से बचें?
बस सभी लोगों के लिए, प्राणी जगत के साथ-साथ प्रकृति के लिए भी प्रतिपल शुभ भावना और मंगल कामना से भरे रहें। इसके दो फायदे होंगे। पहला तो आपको दुर्भावना के लिए समय नहीं बचेगा और आपकी शक्ति सकारात्मक दिशा में सलग्न हो जायेगी। दूसरा, आपके मंगल भाव दूसरे के अन्दर भी उन्हीं भावों की प्रति-ध्वनि पैदा करनी शुरू कर देगा और नुकसान के विपरीत आपके शुभ और पुण्य का खाता बढ़ना शुरू हो जायेगा।
कर्म के प्रति आसक्ति का राज़ क्या है?
मनुष्य जीवन में जो भी बाधा या दुःख है उसका एक कारण,
कर्मों के प्रति आसक्ति भी है। इस जगत में कर्म के प्रति जो सारा आकर्षण है, वह कर्म के कारण नहीं है वह फल के कारण हैं। मनुष्य कर्म करता ही है किसी न किसी फल की इच्छा से। यदि उसे किसी भाँति कर्म से पहले ही फल मिल जाये तो वह कर्म करे ही नहीं। फल में आसक्ति ही कर्म में आसक्ति बन जाती है। वह फल-धन, पद, प्रतिष्ठा या और कुछ भी हो सकता है। इसलिए धन के लिए परिश्रम गहरे में किसी कामना की तृप्ति का ही आकर्षण है। रुपया आपके लिए वह सब व्यवस्था जुटाने में समर्थ है जिससे आपके इद्रियों की तृप्ति होती हो। सीधे-सीधे तो आप न सोना खा सकते हैं ना डालर। उसका अपना कोई महत्त्व नहीं है। उसका गहरा मूल्य आपके लिए तृप्ति का भरोसा है। यही भरोसा आपके लिए लगाव का कारण बनता है इसलिए कुछ पाने के उन समस्त प्रयत्नों के मूल में इद्रियों का ही आकर्षण है। यदि आज यह घ्षोणा हो जाये कि रुपयों का या बहुमूल्य धातुओं का कोई मूल्य नहीं है तक्षण मनुष्य की कर्म से आसक्ति खत्म जायेगी। इसलिए कर्म के प्रति जो आकर्षण है वे सभी मानसिक कामनायें तथा इद्रियों की तृप्ति ही तय करती है। या यूँ कहें अपरोक्ष रूप में धन का वास्तविक मूल्य इद्रियों की तृप्ति ही निर्धारित करती है।
महान् आत्माओं के धन के त्याग के पीछे वास्तविक कारण यही था कि उनका इद्रियों के रस के प्रति आकर्षण ही समाप्त हो गया था। आज पैसे के प्रति इतना श्रम इतनी आपाधापी अनैतिक ढंग से भी इसे पाने का दिन-रात प्रयत्न, सभी कुछ नहीं इद्रियों की संतुष्टि के लिए प्रयास है। क्योंकि पैसे से आज सब-कुछ खरीदा जा सकता है –– सिर्फ सुख-शान्ति और आनन्द नहीं। भरोसा तो यही दिलाता है कि मैं सुख भी खरीद सकता हूँ, परन्तु भ्रान्ति पैदा करता है। लाता तो दुःख ही है। प्रश्न उठता है कि क्या इद्रियों के आकर्षण या उसकी गुलामी से मनुष्य मुक्त हो सकता है?
आज मनुष्य जैसा है उसे इस बात का पता ही नहीं कि वह कौन है?
`स्व' के वास्तविक सत्ता का बोध ही शान्ति का वास्तविक आधार है। समस्त इद्रियों और शरीर से उसका इतना गहरा एकात्म है कि इद्रियों के इस जोड़ (शरीर) को ही अपना होना समझता है। थोड़ी देर के लिए आप आँख बन्द करके एक परिकल्पना कीजिए। आज विज्ञान द्वारा भी यह सम्भव है। आपकी समस्त इद्रियों की सम्वेदना को बन्द कर दिया जाये फिर आप रहेंगे। मान लीजिए थोड़ी देर के लिये आप सूँघ नहीं सकते, देख नहीं सकते,
सुन नहीं सकते आपका स्पर्श बोध चला जाये,
फिर बाद में सिवाय शून्य के आपके पास कौन सा अनुभव बचेगा। हमारे अपने होने का अनुभव मात्र इद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और क्या है और अगर हम इद्रियों का जोड़ मात्र हैं, फिर इसकी आसक्ति से कौन मुक्त होना चाहेगा। इसके आकर्षण से वही मुक्त हो सकता है जिसे इस बात का अनुभव हो जाये, कि वह शरीर से पार अलग चैतन्य सत्ता आत्मा है।
इसके लिए जब भी आपको प्यास लगे, भूख लगे,
बीमारी में पीड़ा का बोध हो, उसी समय इस बात को अपने अन्दर तीव्रता से स्मरण करें कि भूख कि संवदेना का केद्र कहाँ है पीड़ा की, प्यास की इत्यादि की संवेदना कहाँ से उठ रही है? भूख पेट को लगी है, मुझे नहीं। पीड़ा शरीर को हो रही है मुझे नहीं। प्यास कंठ को लग रही है, मुझे नहीं। आपका यह आन्तरिक बोध आपको इस बात का अनुभव कराएगा कि आप शरीर से पार एक अलग सत्ता है। शरीर के प्रति आपके एकात्म भाव का यह सम्मोहन अपने आप टूटने लगेगा और आपको अपने `स्व'
का अपने वास्तविक सत्ता का बोध होना प्रारम्भ हो जायेगा। `स्व'
के इस बोध से इद्रियों का और फिर कर्म का लगाव नष्ट होने लगेगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि अब आपको भूख प्यास नहीं लगेगी। सहीं अर्थों में अब ही आपको वास्तविक भूख और प्यास का अनुभव होगा। आप, सम्यक, आहार, सम्यक निद्रा, सम्यक कर्म करते हुए महान् जीवन के आनन्द का सच्चे अर्थों में अनुभव करेंगे। शरीर में समस्त अराजकता का मूल कारण इद्रियों की आसक्ति ही है। आवश्यकता की तो सीमा है, परन्तु वासना असीम है। भोजन तो थोड़ा भी हो तो काम चल जायेगा, परन्तु स्वाद तो बेअन्त है और जिस दिन भी कोई इद्रियों के इस दुश्चक्र से मुक्त हो जाता है उसी दिन वह प्रकृति के प्रभाव से भी सहीं अर्थों में मुक्त हो पाता है। इस अवस्था में मनुष्य के सभी अशुभ कर्म उससे विदाई लेने लगते हैं और जो शेष बच जाता है वही शुभ है।