(भाग 1 का बाकि) ________
नीम के बीज से आम तो नहीं उगेंगे
कई बार हम जो कर्म करते हैं वह भूल जाते हैं। उसका फल आने में काफी वक्त लग जाता है। जिसके कारण हम यह भूल जाते हैं कि हमने कौन-से कर्मों के बीज बोये थे। लेकिन जब फल दुःखद और कड़वे आते हैं तो हम अपना सिर धुनते हैं कि हाय ऐसा दुःखद फल कैसे आ गया? फल बीज की कसौटी है। जब नीम के पेड़ पर आम के फल नहीं आ सकते, फिर आपके कर्म रूपी दुःखद बीज से सुखद आम-फल कैसे आयेंगे। चाहे आप कितना भी पछताएँ, परन्तु याद रहे एक बीज के अनेक गुणा फल लगते हैं। रास्ते से मंज़िल तय नहीं होती है। मंज़िल तय होती है यात्रा से। आपको उपलब्ध वही होता है जिसके लिए आपने प्रयास किया था। आप उसी मंज़िल पर पहुँचते हैं जहाँ के लिए आपने यात्रा की थी। आप उसी मंज़िल पर पहुँचते हैं जहाँ के लिए आपने यात्रा की थी। यदि आप कोलकाता जाना चाहते थे और पहुँच गये मुम्बई तो निश्चय ही आप कोलकाता वाली कालकामेल में नहीं बैठे होंगे। हम चाहते कुछ और हैं,
करते कुछ और। चाहिए प्रेम और करते हैं घृणा। अब आप ही बतायें फल के समय जब प्रेम के बदले घृणा आती है तो हम दुःखी क्यों होते हैं। अपेक्षा तो हमेशा लोग प्रेम की ही करते हैं।
कर्मों के हिसाब-किताब का सिद्धान्त : दुःख हमारे अतीत के दुःखद कर्मों का परिणाम है। कर्मों के हिसाब-किताब की व्यवस्था अद्भुत है। दुःख एक प्रकार का कर्ज है, जिसे नहीं चाहते भी चुकाना ही पड़ता है। फिर दुःख के इन क्षणों को खुशी से स्वीकार क्यों न कर लें। साथ ही इससे यह पाठ भी लिया जा सकता है कि कर्मों में सुधार की व्यवस्था कहाँ तक सम्भव हो सकती है। क्योंकि कष्टमय परिस्थिति मनुष्य को जीवन जीने और कर्म की कला में अनुभवी और पारंगत बना देती है। बहुत-से ऐसे परिणाम हैं, जो प्रभु द्वारा हमें इशारा दिलवाता है कि भविष्य में ऐसे गलत कर्म हमें नहीं करना है। इस तरह स्वीकार भाव, पाठ और इशारे इन क्षणों में भी सुखद अनुभव दिलाने के निमित्त बन जाते हैं। कर्म के प्रभाव को समाप्त करने का सबसे शक्तिशाली साधन है –– राजयोग। जिसके माध्यम से चित्त के गन्दे पात्र को स्वच्छ किया जा सकता है। यह सबसे त्वरित विधि है। इस प्रकार दुःखद और हानिकारक अवस्था को सुखद और लाभदायक अवस्था में बदलकर कोई भी सुख सम्पत्ति में समृद्धि और सफलता पा सकता है।
कर्म जीवन जीने की कला है। यदि जीवन आनंदपूर्ण बिताना हो तो कर्म की कला में निपुण होना ज़रूरी है। कर्म का एक अनादि सत्य सिद्धान्त है –– हम जो कर्म करते हैं उसका ही फल हमें मिलता है। प्रत्येक कर्म इस जगत में प्रति-ध्वनित हो जाते हैं। कर्मेंद्रियों के तल पर कर्म के इस जगत में कर्म के बिना कोई भी व्यक्ति रह ही नहीं सकता है। जीवन में कर्म का इतना विस्तार है कि यह निर्णय करना भी जन-साधारण के लिए अत्यधिक दुष्कर कार्य हो गया है कि कौन-से कर्म हम करें और कौन-से नहीं?
खासकर वे लोग जो निर्धारित लक्ष्य के मार्ग पर अग्रसर है। जिन्हें परमात्मा, अस्तित्व और सूक्ष्म जगत के कार्य कारण के सिद्धान्त में आस्था है,
जो सोच-समझ की प्रज्ञा से सम्पन्न है और जिन्हें दिव्य जीवन और आनन्द की खोज है, उनके लिए अपने थोड़े से अनुभव के आधार पर हम कर्मयोग से कर्मातीत स्थिति तक की यात्रा में कर्म के विभिन्न पहलुओं पर थोड़ी सी चर्चा करेंगे। कर्मयोगी जीवन में कर्म के सम्बन्ध में वैसे तो बहुत सी बातें हैं लेकिन हम थोड़े से बिंदुओं पर विचार करते हैं।
आदमी असम्भव की अपेक्षा में जीता है
जिसस ने कहा –– ``जो तुम अपने लिए चाहते हो वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करो'' लेकिन हम ठीक इसके उल्टा व्यवहार करते हैं। सुबह से शाम तक यदि आप अपनी दिनचर्या में देखें कि आप दूसरे को क्या देते हैं या कौन-से कर्म करते हैं, तो आप पायेंगे कि उसमें से
80 से 90 प्रतिशत से अधिक लोगों की सोच, भाव, बोल और कर्म नकारात्मक ही होते हैं। फिर उसके प्रतिफल सकारात्मक कैसे होंगे?
घृणा करते हैं और प्रेम की अपेक्षा रखते हैं। कटुवचन बोलते हैं और मधुर वाणी की अपेक्षा रखते हैं। ग्लानि-निन्दा करते हैं और महिमा की कामना करते हैं। गाली देते हैं और आशीर्वाद चाहते हैं। इसे ही कहते हैं खुद का शत्रु। जो मनुष्य खुद के प्रति शत्रुता पूर्ण व्यवहार करता है वह दूसरे का मित्र कैसे हो सकता है?
सभी मुझमें विश्वास रखें लेकिन मैं सबके साथ चालाकी का व्यवहार करूँ। असम्भव की चाहत में मनुष्य अपने कर्म के दुश्चक्र में फंसता चला जाता है। आज अधिक से अधिक लोग यह अनुभव करते हैं कि उसकी पीड़ा, उसका दुःख, उसकी चिन्ता, उसकी उदासी प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। खुशी की तलाश में मनुष्य पागल की तरह अल्पकालीन सुख के लिए दौड़ता है और वास्तविक सुख इद्रधनुष बन क्षितिज पर और दूर-दूर होता चला जाता है। इसे ही मृग तृष्णा कहते हैं।