(भाग 3 का बाकी)…
इसके लिए आवश्यक है बेहद का वैराग्य और अभ्यास
``आभासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते''। परमात्मा के द्वारा कहे गये इस सार सूत्र में वैराग की गरिमा का परम मंगल आदर्श प्रतिष्ठित है। घिसी-पिटी, पुरानी, तोता रटत परम्परागत भाषा कि संसार असार है,
सब माया जाल है, यहाँ कोई किसी का नहीं, सब ओर पाप ही पाप है,
झूठ ही झूठ है, परिवार-समाज से संबंध तोड़ो, सबकुछ छोड़ो, वैराग ग्रहण करो।
मनुष्य के लिए वैराग की यह कोई मूल्यवान व्याख्या नहीं है। वैराग-वृत्ति मानवता की सेवा और कर्मयोग की महिमा-मण्डित तेजस्विता को खोकर निराश, उदास, आलस्य और पलायन करना नहीं है, अपितु कर्मयोगी जीवन में निरन्तर निर्मल निर्झर कर्म-शक्ति की धारा बन छोटी-मोटी सफलता-असफलता के प्रभाव से मुक्त सतत् यात्रा के मार्ग का निर्बाध रूप से पार करते हुए अपनी सम्पूर्णता की मंज़िल की ओर प्रवाहित होते रहना है।
वैराग का बोध आन्तरिक निर्मलता की ओर गति तथा बाहर सम्पूर्ण मानवता के शुभ के लिए प्रयत्नशील होना है। हम इसलिए वैरागी नहीं हैं कि संसार असार है, झूठा है,
स्वार्थी है,
बल्कि इसलिए कि आत्मा पर आच्छादित अनेक सूक्ष्म और सघ्ना परतों को हटाकर परम-आनन्द और प्रेम का पावन प्रकाश उपलब्ध और अव्यक्त कर सकें। वैराग हमें इसलिए भी धारण करना है कि जीवन में अनेक तरफ व्यर्थ नष्ट हो रही आन्तरिक शक्तियों के प्रवाह को रोका जाये और अभ्यास की प्रयोगशाला में बैठ जीवन की सूक्ष्मता को समझ चेतना पर पड़े अनेक प्रकार के दूषित आवरणों, विकल्पों को मिटाया जा सके।
समाज की क्षुद्र पूर्व प्रतिबद्धताओं को लांघ, अन्तर की सुप्त ऊर्जा का महाविस्फोट कर अपने शाश्वत अखंड स्वरूप को प्राप्त किया जा सके। बेहद का वैराग तो घृणा और रिक्तता को विसर्जित कर परम-सत्य के निर्मल आलोक का द्वार खोलता है। यही है वैराग की उपयोगिता उसका मूल्य और सही अर्थों में उसकी उपलब्धि।
वैराग का अर्थ : वैराग का सीधा सा अर्थ है जहाँ कहीं भी देह या कर्मेंद्रियों के तल पर सुख-शान्ति का ख्याल आता है, वास्तव में वहाँ सुख शान्ति नहीं है, यह अनुभव वैराग को जन्म देती है। वैराग का यह अनुभव विवेकपूर्ण जीवन जीने से आता है। आप सभी ने बहुत प्रयोग करके देखा होगा और आपके जीवन में ऐसे मीठे अनुभव भी अवश्य ही हुए होंगे कि सुख का प्रत्येक प्रतिबिम्ब मृग-मारीचिका बन गई। रंग-बिरंगे इद्रधनुषी सुख की ओर हाथ बढ़ाये, परन्तु नज़दीक जाने पर सिवाय धोखे के कुछ भी अनुभव नहीं मिला। जीवन में इन सभी अनुभवों का निचोड़ है वैराग।
हज़ारों वासनाओं और इच्छाओं के मार्ग पर चलकर निरपवाद रूप से जब एक ही अनुभव हाथ लगता है कि सुख के हीरे-मोती के बदले अन्तत दुःख के कंकड़-पत्थर ही हाथ लगे, तब ही वैराग का जन्म होता है। वैराग, वासना की लगातार असफलता का अनुभव और उसका सार निचोड़ है।
वैराग्य का दूसरा अर्थ : अपने सत्य स्वरूप आत्मा और परमात्मा की अनुभूति के प्रति विशेष अनुराग। यदि इन शाश्वत सत्य के प्रति तीव्र अनुराग पैदा हो जाये,
तो विष के समान उन विषय भोगो के प्रति सहज ही वैराग्य पैदा हो जाये। जब कोई आत्मा परमात्मा के प्रेम पूर्ण मिलन में तल्लीन हो जाती है, तो विषयों के प्रति वैराग्य स्वत ही फलित हो जाता है, वैसे ही जैसे चावल के साथ भुसी। हमें वैराग्य को कभी भी अपने जीवन का मूल उद्देश्य नहीं बनाना चाहिए। क्योंकि ऐसे वैरागी-उदासी भी देखें गये हैं, जो इसी वैराग्य की मूल अवधारणा के कारण जीवन,
समाज और मानव से विमुख हो गये हैं। इसलिए वैराग्य की उपलब्धि अनुसांगिक हो,
जीवन का मूल उद्देश्य नहीं। सहीं अर्थों में वैराग्य से मनुष्य के अन्दर आत्म-शक्ति का तेज जागृत होता है तथा परमात्मा का प्रसाद भी सहज ही उपलब्ध होता है। जिस कारण से मनुष्य को फल पाने के लिए किसी के आगे याचना करने के लिए हाथ नहीं फैलाना पड़ता है। क्योंकि आत्मा और परमात्मा का स्वभाव तथा स्वरूप इतना दिव्य है कि उसकी दिव्य सत्ता के आगे सभी भौतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियाँ सहज ही इष्ट हैं।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कई बार वैराग्य की झलक उत्पन्न होती है, लेकिन वह अनुभव तिरोहित हो जाता है। वह ऐसा शस्त्र नहीं बना पाता, जिससे इन व्यर्थ की इच्छाओं को काटा जा सके। अनुभव की वह बूंद आदत के रेगिस्तान में खो जाती है। यदि यही बूंद संग्रहित हो जाये, तो जीवन में एक दिन वैराग्य की सरिता प्रवाहित हो जाये। इसके लिए आवश्यक है वैराग्य का अभ्यास। वैराग्य एक आन्तरिक वृत्ति है, एक भाव है। अभ्यास एक पुरुषार्थ है, प्रयत्न है। हम लोगों को बार-बार इसकी झलक जीवन में मिलती भी है लेकिन अभ्यास के अभाव में वह विलीन हो जाता है।
उदाहरण : एक गरीब व्यक्ति था। वह हमेशा सुख के सपने संजोता था कि काश यदि उसे 10,000 रुपये मिल जायें तो बड़े आनन्द से उसका जीवन गुजरे। थोड़ा कम,
थोड़ा ज़्यादा धन के प्रति प्राय आम आदमी की भी यही धारणायें रहती है। उस व्यक्ति को
10,000 रुपये मिले भी लेकिन मन फिर विषाद से भर गया। जिस सुख की आशा धन मिलने से पहले जगी थी, जो सपने देखे थे वो सब धूल में मिल गये। जैसा कि अक्सर लोगों के साथ होता है। उसके सामने और कई समस्याएँ, नई इच्छाओं के रूप में आ खड़ी हुई। धन तो आ गया, परन्तु सुख नहीं आया। उसे वैराग्य की झलक तो मिली लेकिन उसने उसे अभ्यास नहीं बनाया और जल्दी ही उस महत्त्वपूर्ण वैराग्य का वह सुन्दर बोध खो गया। और भी नई इच्छाएँ जागी और उसे लगा इतने कम से कहीं आनन्द के सपने संजोये जा सकते हैं?
इसके लिए तो लाख चाहिए, दो लाख चाहिए.... 10 लाख...। आज वह लाखों का मालिक है उसे बार-बार वैराग्य के अनुभव हुए, लेकिन बार-बार वह मृग मारीचिका ही सिद्ध हुई। क्योंकि उसका इतना जीवन मुफ्त ही बीत गया। धन तो कोई मुफ्त नहीं मिलता है। वह तो जीवन के मूल्य पर खरीदना पड़ता है। मैंने देखा कई बार विषाद की गहरी रेखायें उसके चेहरे पर उभरी और फिर मिट गईं।
नई इच्छाओं से उत्पन्न विषाद उसे वैराग की झलक तो दे जाता था, लेकिन उस अनुभव को वह सतत् स्मरण नहीं बना सका। पाँच दिन किया चार दिन छोड़ दिया,
तीन दिन किया छ: दिन छोड़ दिया। इसे सत्य नहीं कहेंगे –– प्रमाद रहित होकर सत्यभाव से करने पर आप निश्चय ही सफल होंगे।
यह कोई एक व्यक्ति की जीवन-कहानी नहीं है लेकिन, यह घटना जीवन के नाना रूपों में अनेक व्यक्तियों के जीवन की है। प्रत्येक अति-भोजन के बाद हमें उपवास की सार्थकता का बोध होता है। क्रोध के बाद पश्चाताप का विषाद किसे नहीं पकड़ता, क्षणभर के लिए ही क्यों न सही लेकिन यह वैराग्य अभ्यास नहीं बन पाता। बड़ी सजगता के साथ यदि कोई अपने जीवन की पूरी घटनाओं का अध्ययन करें, तो वह पायेगा कि, जो वैराग्य की झलकियाँ उसे जीवन में मिली हैं उसका जब तक वह अभ्यास नहीं कर लेता, तब तक वह वैराग्य स्थाई रूप से उसके जीवन का हिस्सा नहीं बन सकता है।
शेष भाग........5
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के सेवाकेन्द्र पर
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