मेरे
कार्यालय के बाहर एक नन्हा पौधा रोपा गया। मैं रोज आते-जाते उस पर नज़र डालता, उसकी वृद्धि को देख प्रसन्न होता। देखते ही देखते पौधा बड़े पेड़ में रूपांतरित हो गया और मेरी ऊँचाई को भी पार कर गया। पत्तों से भरी उसकी शाखायें छत्ते की तरह फैल गई और आते-जाते राहगीरों को आकर्षित करने लगी।
पास में सड़क पर काम करने वाले मजदूर भाईयों ने उसके नीचे साइकिलें खड़ी करनी शुरू कर दी। उनके बच्चों ने वहाँ खेलना और कभी-कभार बैठकर खाना-पीना भी प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार चार वर्ष का होते-होते पेड़ ने परोपकार करना प्रारंभ कर दिया। दिन बीतने के साथ-साथ यह परोपकार बढ़ता गया। जब उस पर फूल खिले तो लोग उन्हें देख-देखकर आनंदित होने लगे और कोई-कोई विशेष अवसरों पर उसकी झुकी डालियों के फूल तोड़ने लगे जिसका पेड़ ने कभी एतराज नहीं किया।
यह
सब देख मन में एक प्रश्न उठा कि मात्र चार वर्ष का यह पेड़ कितनी सेवा करता है, कितनों की दुआयें अर्जित करता है, कितना सुख देता है। क्या इस आयु का मानव भी इतनी सेवा कर सकता है? उत्तर मिला, इस आयु का अबोध बालक दूसरे की सेवा तो क्या करेगा, अपनी सेवा के लिए भी दूसरों पर आश्रित रहता है।
कितने ही वर्षों तक, समाज के कितने ही मनुष्यों का समय, धन और शक्ति लगवाकर वह कुछ देने लायक बनता है लेकिन आजकल तो यह भी निश्चित नहीं है कि इतना कुछ लेकर वह देने लायक बन भी जायेगा। कई बार तो वह समाज की सारी अपेक्षाओं को धूल-धूसरित भी कर देता है। और फिर एक प्रश्न यह भी है कि कौन, किसके बिना अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ है?
इस पौधे को तो किसी मानव ने रोपा लेकिन मानव न भी रोपे तो भी पेड़ जन्म ले लेगा, वृद्धि को प्राप्त हो जायेगा, फूलेगा भी और फलेगा भी पर सोचिये, यदि एक भी पेड़ ना हो तो क्या मानव जीवन संभव है? कौन बड़ा? मानव या पेड़? पेड़, मानव के बिना जिंदा रह सकता है लेकिन मानव, पेड़ के बिना नहीं।
मनुष्य
को तो रहने के लिए बड़ा-बड़ा मकान, चलने के लिए सड़कें, गाड़ियाँ, और भी पता नहीं क्या-क्या चाहिए लेकिन यह पेड़ तो हर प्रकार की चाहिए-चाहिए से परे है। यह केवल पाँच-छह इंच वाले घेरे में अपने पाँव रोपकर खड़ा है। पाँवों से पीता है, बाकी तो हर अंग से लुटाता ही है।
एक
दिन एक भटकती हुई चिड़िया शरण की खोज में आई। पेड़ ने उस नन्ही चिड़िया को अपने आगोश में लेकर इतना सुकून दिया कि वह वहीं बस गई। अब तो उसके नन्हे-नन्हे बच्चे भी बड़े होकर उड़ने लगे हैं और इसे देखकर अन्य बहुत सारे पक्षी भी पेड़ की बाँहों में झूलने लगे हैं।
कितना विशाल दिल है इस पेड़ का! क्या हमने आज तक किसी को शरण दी है? क्या किसी भटकते को सहारा देकर उड़ना सिखाया है? क्या थोड़ा-सा लेकर ज्यादा से ज्यादा देने में संतोष अनुभव किया है?
पेड़
हर दिन देने का कोई न कोई नया तरीका निकाल ही लेता है। एक दिन भँवरों और तितलियों का एक बड़ा-सा झुंड आया। सबने पेड़ से कुछ खुसर-पुसर की और चिपक गए उसके फूलों से। पेड़ उन्हें अपने फूलों का मकरंद पिलाता भी रहा, झुलाता भी रहा और मन ही मन मुसकराता भी रहा।
मनुष्य के पास भी रूहानी मकरंद है, रूहानियत की खुशबू है, सोचने की बात है कि वह उसने कितनों को बाँटी? पेड़ की तरह कितनों को अतीन्द्रिय आनन्द में झुलाया? कितनों की आध्यात्मिक भूख-प्यास को तृप्त किया? कितनों को ठंडक दी? कितनों की आत्मा को शीतलता प्रदान की?
एक
दिन एक विचित्र घटना घट गई। पेड़ की ठंडी और खुशबूदार हवा में कुछ मिलावट की बू आई। मन में जिज्ञासा हुई कि क्या पेड़ भी कलियुगी मनुष्य की तरह मिलावटी हो गया है?
लेकिन
बाहर निकल कर देखा तो पाया कि पेड़-पौधों और प्रकृति की 50 वर्षों की सेवा के ऋण से दबा एक व्यक्ति अपने पर और ऋण चढ़ाये जा रहा था। वह नाक और मुख से जहरीला धुआँ निकालकर पेड़ की बदनामी के निमित्त बन रहा था। पेड़ जिस पर्यावरण को बुहारने में लगा था, वह मानव उसी को प्रदूषित कर रहा था।
कितना
आश्चर्य है, मानव स्वयं तो खुशबू नहीं दे पाता लेकिन खुशबू देने वाले के कार्य में ही बाधा डालता है इसलिए तो आज मनुष्य अकेला पड़ता जा रहा है। मनुष्यों से भरे संसार में उसे साथ निभाने के लिए मनुष्य नहीं मिल रहा है, क्यों? क्योंकि उसके संग में पेड़ जैसा सुकून मिलने के बजाय विकारों और व्यसनों का ज़हर मिलने का डर पैदा हो गया है।
फूलों
के बाद पेड़ पर पीले-पीले, छोटे-छोटे फल लगे। पंछियों का एक दल आया, चोंच में फल भरे और उड़ गया। पेड़ मुसकराता रहा। आसपास के बच्चे आए, पत्थर-डंडे मार-मारकर फलों के साथ पेड़ को भी चोटें पहुँचाई पर पेड़ सब कुछ सहन कर गया। पेड़ ने अपना एक भी फल नहीं खाया। जो भी लेने आया, वह देता गया।
एक
दिन आसमान में जोर से बिजली कड़की, आँधी आई और पेड़ की बड़ी-सी टहनी उससे अलग हो गई। परिवार के एक सदस्य के इस बिछोह को देखकर पेड़ की शेष डालियाँ ना तो मुरझाई, ना ही उन्होंने अपना कार्य छोड़ा। पुन प्रश्न उठा, क्या मनुष्य में इतनी सामना करने की शक्ति है कि वह किसी भी अनहोनी को इतनी सहजता से सह जाए और अपने कर्त्तव्य पर भी अडिग रहे?
ठंड
से ठिठुरते एक परिवार ने कुछ समय बाद उस सूखी हुई डाली को उठाया, काटा और जलाकर अपनी ठंड दूर की। पेड़ यह देख भी मुसकराता रहा कि उसका टूटा अंग भी किसी के काम आ रहा है।
कई
लोग कहते हैं कि आज के जमाने में कोई आदर्श तो हमारे सामने है नहीं। दान, दया, करुणा, परोपकार, सहनशीलता आदि गुण तो देखकर ही सीखे जाते हैं, हम किसको देखें और किससे सीखें? अरे, हमारे चारों ओर फैली यह प्रकृति हर घड़ी निस्वार्थ भाव से देने का पाठ पढ़ा तो रही है, अपने हर कर्म से गुणों का प्रदर्शन कर तो रही है, हम ध्यान से देखें तो सही, प्रशंसा तो करें, अनुकरण तो करें।
भारत की संस्कृति ने यदि पेड़ों को देवताओं की संज्ञा दी है तो इनके इसी परोपकारी गुण के कारण। भारत के ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक अनुसंधान किए हैं पेड़ों की छाया में बैठकर और कई चिंतकों ने इन्हें अपना गुरु भी बनाया है इन्हीं परोपकारी गुणों के कारण।
कहा जाता है, जिसकी रचना इतनी सुन्दर, वह स्वयं प्रकृतिपति भगवान कितना परोपकारी होगा! जैसे वृक्ष का बीज सब कुछ करते भी गुप्त रहता है, इसी प्रकार करन-करावनहार परमपिता परमात्मा भी सृष्टि रूपी वृक्ष के बीजरूप हैं। अपनी रचना में, अपने गुण भरकर वे उसे प्रत्यक्ष कर देते हैं और स्वयं अदृश्य ही रहते हैं।
उन्हें देखने के लिए ज्ञान-नेत्र चाहिएँ। वे सदा दाता, सदा परोपकारी और सदा सर्व के कल्याणकारी हैं, गुणों और शक्तियों के अखुट भण्डार हैं। प्रकृति के गुणों को देखते-देखते प्रकृतिपति परमपिता परमात्मा के गुणों की अनुभूति स्वत होने लगती है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।