धन के दीवाने से
ज़्यादा, घिसा-पिटा, गन्दा, ऊबा हुआ
और विश्रामहीन दूसरा
आदमी इस संसार में
नहीं। उसे तो अभी
बहुत-सी चीज़ों का संग्रह
करना बाकी है। यदि
अभी से वह विश्राम
करने लगा तो रुपयों
के संग्रह से चूक
जायेगा। उसका जीवन सदा
उधार, उच्छिष्ठ और गन्दगी
से भरा रहता है।
कभी भी उसका चेहरा
खिले ताजे गुलाब की
तरह खुशबू से भरपूर
नहीं होता। उसके जीवन
में न कोई गीत
है,
न संगीत। धन का दिवाना, मनुष्य
मात्र से नफरत करता
है। ऐसा मनुष्य अपनी
पत्नी और बच्चे से
भी मुस्कुरा कर प्रेम
से बात नहीं करता।
क्योंकि यदि वह ऐसा
करें तो यह हो
सकता है कि कहीं
पत्नी प्रेम वश उससे
कोई नई साड़ी की
फरमाइश नहीं कर बैठे
या बच्चे चॉकलेट की
जिद्द न कर बैठें
मनुष्य से प्यार करने
में उसे यह भय
सदा बना ही रहता
है कि कहीं वह
उसकी जेब या तिजोरी
तक न पहुँच जाये।
वस्तुनिष्ठ यह अभी भी
पसंद नहीं करेगा कि
मनुष्य से प्रेम करके
कोई उसकी सम्पत्ति का
हिस्सेदार बन जाये।
आश्चर्य है! बाहर से
दिखने वाला ये विशाल
जनसमूह जो मन्दिरो, मस्ज़िदों और
गिरज़ाघरों में अपने धार्मिक
कृत्य में संलग्न बड़े
ही धार्मिक और आस्तिक
दिखते हैं, लगता है
इनका धर्म से, मंदिर से
और परमात्मा से कितना
अधिक प्यार है, परन्तु वस्तु-स्थिति
इससे बिल्कुल भिन्न है।
ये बाहर से दिखने
वाली भीड़ वास्तव में
लोभी, कृपण और महा नास्तिक
लोगों की भीड़ है।
इक्के-दुक्के अपवाद हो सकते
हैं,
परन्तु बाकि लोग तो
मात्र लोभवश परमात्मा से
कुछ पाने के लिए, कुछ
मांगने के लिए ही
मंदिरों में जाते हैं।
किसी को धन चाहिये, तो
किसी को अपनी बीमारी
से मुक्ति का उपाय।
इन्हें परमात्मा से कोई प्यार नहीं
है। इन्हें परमात्मा या
उसका प्यार नहीं चाहिए।
परमात्मा के प्रति इनकी
गहरी उपेक्षा इस बात
को दर्शाती है कि
ये लोग नास्तिक हैं।
वास्तव में जो परमात्मा
से माँगता है, वह परमात्मा
को उपलब्ध ही नहीं
हो सकता है। कहते
है,
``बिन माँगे मोती मिले, माँगे
मिले न भीख''। तो
भिखमंगों से बादशाहों के
बादशाह का सम्बन्ध कैसे
हो सकता है? फिर भी
यदि कुछ माँगना ही
है तो भिखारियों के
बदले परमात्मा से माँगना
ज़्यादा श्रेयष्कर है। कहते
हैं –– ज्ञान, भक्ति से आगे
की सीढ़ी है। भक्त
परिपक्व होकर ज्ञानी हो
जाता है। भक्ति अर्थात्
प्रार्थना जहाँ माँग छिपी
रहती है। ज्ञान अर्थात्
यह समझ कि बिना
माँगे ही जब सबकुछ
मिल सकता है, फिर भिखारीचित
की दशा का त्याग
क्यों न कर दिया
जाये। इसलिए कभी भी
हमें वस्तु अर्थात् तुच्छ
से प्रेम नहीं करना
चाहिए। प्रेम के लिए
यह गलत दिशा में
बढ़ाया गया कदम है।
जितना हो सके उतना
जल्दी इस नश्वर की
दिशा के शाश्वत प्रेम
की दिशा में स्वयम्
को मोड़ देना चाहिए।
मनुष्य से प्रेम-यह
पहले से महान्
है
मनुष्य का मनुष्य से
प्यार, भाईचारे के रिश्ते-नाते
का मधुर प्यार है।
इस प्रेम में कम-से-कम
चेतना तो है। जीवंतता
तो है। माना की
प्लास्टिक का फूल कभी
मुरझाता नहीं, उसके रंग
समाप्त नहीं होते। जब
चाहो थोड़ा धो और
पोंछ दो, वापस पहले
जैसा हो जायेगा। उस
फूल में सब तरह
की सुरक्षा है। भले
ही वह मुरझाता न हो।
फिर भी असली गुलाब
की जगह आप उसे
लेकर गौरवान्वित तो
नहीं हो सकते। नकली
फूल पर तो भँवरे
और तितलियाँ भी नहीं
भँडराती है। उसकी पसंद
भी जब असली ही
है,
फिर मनुष्य क्या उससे
भी गया बिता है।
माना की सुबह का
खिला गुलाब संध्या को
बिखर जायेगा। फिर भी
असली गुलाब असली है।
इसलिए जैसे ही हम
किसी को प्यार करते
हैं,
उसे उपहार देना शुरू
कर देते हैं, वह इस
बात को दिखाता है
कि इंसान, इंसान से
प्यार करता है। वस्तुओं
पर उसे उसकी अपनी
पकड़ खोने लगती है
अर्थात् सम्पति का प्रति
उपेक्षा का भाव गहराने
लगता है। इसलिए असली
के आगे नकली विदाई
लेने लगता है। आदमी
का आदमी से जगा
प्रेमरस वस्तु प्रेम के
रस को फीका और
सारहीन कर देता है।
फिर मानवीय प्रेम भी
सर्वश्रेष्ठ नहीं है क्योंकि
वहाँ भी परस्पर क्लेश
होता रहता है। उसका
एक कारण है –– देह-अभिमान अर्थात्
अहंकार का अन्धकार। प्रेम
में समर्पण का होना
अनिवार्य है। समर्पण अर्थात्
देहभान का मिट जाना।
व्यक्तियों के प्रेम में
देहभान हटे तो प्रेम
फलीभूत हो जाये, परन्तु अहंकार
की या `मैं' के मिटने
की बड़ी बाधा वहाँ
उपस्थित है। प्रेमी-पेयसी, पति-पत्नी, पिता-पुत्र, मित्र-मित्र सभी
जगह यही समस्या है।
सभी सम्बन्धों में यह
आपसी संघर्ष जारी रहता
है कि पहले झुके
कौन?
एक कहता है, पहले तू
झुक जा तू, मेरी बात
मान ले, पहले तूने
गलती की या फिर
तेरी गलती है, इसलिए तुम
ही पहले माफी माँगो
इत्यादि। अन्तहीन रूप से
अहंकार अपना रूप धारण
करता रहता है। हाँ
यह बात अलग है
कि अहंकार प्रगट करने
के ढग अपने आप
में अलग-अलग हो
सकते हैं।
जैसे छोटा बच्चा रो-चिल्लाकर
अपना अहंकार प्रगट करता
है तो बाप उससे
पीट या भला-बुरा बोलकर।
इसलिए लोभी के जीवन
में फिर भी थोड़ी
अलग तरह की शान्ति
रहती है। वहाँ व्यक्ति
से कोई सम्बन्ध ही
नहीं फिर संघर्ष कहाँ।
क्योंकि यदि वहाँ संघर्ष
हो तो उसके धन
की हानि हो जायेगी
और लोभी धन का
नुकसान नहीं सहन कर
सकता। परन्तु व्यक्ति के
प्रेम में आपस में
संघर्ष चलते ही रहते
हैं। भले ही पत्नी
अपने पति को परमेश्वर
कह दे, स्वामी कह
दे,
अपने को उसकी दासी
कह दे, परन्तु आज
यह सब दिखावा और
औपचारिकता मात्र है। अन्दर
वह ऐसा कुछ भी
नहीं मानती।
यदि पत्नी झुक जाये, अपने
को पति के आगे
समर्पित कर दें, तो भी
अहंकार के कारण प्रेम
की सम्भावना कम ही
बनती है। पति उसे
व्यक्ति की तरह कम
और वस्तु की तरह
अधिक समझने लगता है।
पहले लोग इसलिए पत्नी
को धन-सम्पत्ति अर्थात्
वस्तु की तरह व्यवहार
किया करते थे। पति
का पत्नी से प्रेम
समाप्त हो जाता था
क्योंकि वह पत्नी कम
और वस्तु अधिक लगती
थी।
इसलिए आज कोई भी
औरत पुरुष को प्रेम
के नाम पर हुए
आपसी गलत व्यवहार को
चुनौती देती है। क्योंकि
आज वह इस तथ्य
को समझने लगी है
कि वह वस्तु नहीं
आत्मा है। दूसरी ओर
पुरुष भी अपने को
समर्पण कर दे तो
लोग उसे जोरू का
गुलाम कहने लगते हैं।
फिर गुलाम से कोई
प्यार करता है क्या? इसलिए
सम्बन्धों में बड़ी दुविधापूर्ण
स्थिति बन जाती है।
एक-दूसरे
पर विजय पाने की
कोशिश चलती रहती है।
अगर एक ने दूसरे
को समर्पित नहीं किया
तो फसाद झंझट खड़ा
हो जाता है और
अगर समर्पित कर दिया
तो आकर्षण कम हो
जाता है। फिर भी
इतना तो तय है
कि मनुष्य का प्रेम
वस्तुओं के प्रेम या
आकर्षण को नष्ट कर
देता है। इतने संघर्ष
के बाद भी प्रेम
का सुख तो अद्भुत
है ही, इसलिए मनुष्य
के प्रेम में सदा
ही विकल्प रहते हैं।
यदि अहंकार की लड़ाई
में कोई हार भी
जाता है तो वह
वापस धन को ही
चुनता है। यदि किसी
व्यक्ति ने मानवीय प्रेम
का सुख थोड़ा भी
अनुभव किया तो वह
यही सोचेगा कि प्रभु
पेम में उसे कितना
विराट सुख मिलने की
सम्भावना हो सकती है।
इन स्थितियों में वह
अपने इस अनुभव के
आधार पर मनुष्य से
उठकर ईश्वर के प्रेम
में,
समस्त जड़ चेतन-जगत के
प्रेम में डूबने का
प्रयास प्रारम्भ कर देगा।
व्यक्ति से मिले थोड़े
सुख के कारण ही
वह सद्गुरू और परमात्मा
के प्रेम की दिशा
में यात्रा प्रारम्भ कर
देता है।
वास्तव में मानवीय प्रेम
में जो कटुता या
दुःख का अनुभव है
वह किसी व्यक्ति के
प्रेम के कारण नहीं
अपितु समर्पण का अभाव
और अहंकार के कारण
है। यदि हम स्वार्थ
का त्याग कर दें
तो समर्पण आसान है।
सम्बन्धों का त्याग करने
से कोई भी लाभ
नहीं, क्योंकि वह भी
आपके ही जैसा है।
वहाँ तो क्षमा और
सहानुभूति की ज़रूरत है।
उसे छोड़कर भाग जाने
या उससे घृणा करने
की ज़रूरत नहीं है।
इसके लिए प्रेम के
मार्ग में मनुष्य के
सामने अहंकार सबसे बड़ी
बाधा है। अंहकार अर्थात् मैं के सत्य
परिचय और अनुभव का
अभाव ही उसे कैसे
मिटाया जाये इस विधि
के खोज की ज़रूरत
है और उन विधियों
में सर्वाधिक प्रभावोत्पादक है
ईश्वरीय ज्ञान और सहज
राजयोग।