जीवन का परम
सौन्दर्य –– प्रेम
जिस प्रकार आत्मा शाश्वत
है परमात्मा शाश्वत है, प्रकृति
शाश्वत है उसी प्रकार
परम अमृतमय यह प्रेम
भी शाश्वत है। इस
ब्रह्माण्ड में अगर कोई
भी तत्व सर्वव्यापक है
तो वह प्रेम तत्व
ही है। यह उद्दात
और महान् प्रेम, देश-काल, जीवन-मृत्यु सभी
सीमाओं से पार है।
जो भी इस अमृत-तुल्य
प्रेम का रसास्वादन कर
लेता है वह समस्त
भय से मुक्त हो
जाता है। उसे न तो
इस लोक का भय
रहता है और न ही
परलोक का। इसकी महानता
और विशालता की व्याख्या
करते हुए स्वामी विवेकानन्द
ने कहा –– `वह कौन-सी
वस्तु है, जो अणुओं
को लाकर अणुओं से
मिलाती है, परमाणुओं को
परमाणुओं से मिलाती है।
बडे-से-बड़े
ग्रहों को एक-दूसरे से
आकृष्ट करती है। मनुष्य
को मनुष्य और पशु
को पशु की ओर, मानो
समस्त अपने केन्द्र की
ओर खींचती है, यह वही
वस्तु है जिसे प्रेम
कहते हैं'।
प्रतिदान न होने पर
भी प्रेम तो स्वयं
ही पर्याप्त मधुर है।
––
अरविन्द
प्रेम तो सदा ही
मधुर होता है, चाहे दिया
जाये, चाहे लिया जाये। प्रेम
तो प्रकाश के समान
सर्वनिष्ट है।
––
अंग्रेज़ कवि शैली
प्रेम अपनी प्रसन्नता को
कोई लक्ष्य नहीं बनाता
है और न ही
कोई चिंता करता है, अपितु
दूसरे को सुख देता
है और नरक के
नैराश्य में भी स्वर्ग
की रचना कर डालता
है।
––
विलियम ब्लैक
–– जीवन
के सभी नियमों में
प्रेम सर्वोच्च है।
–– प्रेम-प्रेम के
लिए होता है इसका
पुरस्कार भी यही है।
–– इसका सुख
और आनन्द अनिवार्य है।
–– समस्त आध्यात्मिक
उपलब्धियों में पेम और
सहानुभूति सर्वोत्तम है।
–– जहाँ प्रेम
विशालता का द्योतक है
वहीं स्वार्थ संकीर्णता का।
–– प्रेम के
बिना जीवन नीरस है।
–– यह जीवन
में शक्तिवर्धक औषधि
है।
यह सर्वभूतेषु हितेरता
की मंगलमय भावना का
प्रकाश है। प्रेम अहंकार
से मुक्त समर्पण की
वह भाव दशा है, जहाँ
एक-दो
में निस्वार्थ भाव से
समाया हुआ समस्त विश्व
को अपनी करुणा के
आलोक में समाहित कर
शान्ति और आनन्द प्रदान
करता है।
आत्म-क्रान्ति का, अध्यात्मिक-क्रान्ति का
प्रथम सूत्र है –– निस्वार्थ आत्मिक-प्रेम।
प्रेम इस संसार में
सबसे बड़ी शक्ति है।
निश्छल प्रेम वास्तव में
अद्भुत घटना है। प्रेम
अमृत का वह निर्मल
निर्झर है जिसकी एक
बूँद का भी ठीक
से उपयोग कर लिया
जाए तो जन्मों से
संचित हलाहल घातक विषमय
संस्कार क्षणभर में लुप्त
हो जाएँ। मनुष्य के
अंदर घृणा, द्वेष, क्रोध, काम इत्यादि
अनेक विषाक्त टकराती हुई
समस्याओं का समाधान अंतत
शुद्ध आत्मिक-प्रेम में
ही है। प्रेम मानव
के कुम्हलाए हृदय-पुष्प को
खिला देता है और
उसके खिलते ही परस्पर
निश्छल सद्भाव, स्नेह की
दैवी सुगंध फूट पड़ती
है। जीवन में प्रेम
की अति महत्त्वपूर्ण भूमिका
का कोई जवाब नहीं।
जैसे श्वास, आत्मा और
शरीर के बीच सेतु
है,
उसी तरह प्रेम, आत्मा और
परमात्मा के बीच सेतु
है। प्रेम आत्मा का
भोजन है। आत्मा में
छिपी वह ऊर्जा है, वह
सफलता का सोपान है
जिसके द्वारा हम परमात्मा
से मंगल मिलन मना
सकते हैं। योग + प्रेम = अतीद्रिय सुख।
दुनिया में सभी प्रेम
असफल हो जाते हैं
चाहे वह अंशत ही
क्यों न हों। मात्र
आत्मा और परमात्मा का
प्रेम ही पूर्णत सफल
हो पाता है।
संसार में प्रेम से
वंचित तो कोई भी
नहीं है। स्नेह तो
जीवन का स्वभाव है
उसके मिश्रित रूप तो
सभी जगह विद्यमान है।
प्रेम के कई रंग
रूप है। महत्त्वपूर्ण है
यह देखना कि इसकी
दिशा सही है या
गलत,
चलिए इसके विभिन्न पहलुओं
को विस्तार से देखते
हैं। मुख्यत प्रेम के
तीन रूप हैं ––
1. भौतिक प्रेम
अर्थात् मनुष्य का पदार्थ
गत प्रेम जिसमें धन-सम्पत्ति, रुपया, पैसा, महल, गाड़ी
इत्यादि आ जाता है।
2. मानवीय प्रेम
जो मनुष्य का मनुष्य
के प्रति होता है।
3. आध्यात्मिक प्रेम
जो आत्मा का परमात्मा
से होता है।
भौतिक प्रेम
आज के युग को
हम पदार्थ का युग
कहते हैं, जहाँ वस्तुओं
के चकाचौंध से सारा
बाजार भरा पड़ा है।
उपभोक्ता वादी संस्कृति ने
आज मनुष्य को 95 प्रतिशत इन्हीं
वस्तुओं के प्रेम में
फंसा रखा है और
धोखे में भ्रमित आज
का इंसान इसे ही
प्रेम का रूप समझ
जीवन जीने में संलग्न
है। हद से अधिक
बढ़ती हुई वस्तुनिष्ठ जीवन-दृष्टि
क्या प्रेम की गलत
दिशा नहीं है? क्यों हम
वस्तु प्रेम में अटके
हैं,
यह जानते हुए भी
कि वास्तविक प्रेम, जिसे आत्मिक-प्रेम
या निर्मल प्रेम कहें, ही
जीवन में वास्तविक सुख
का आधार है।
प्रेम के लिए समर्पण
अनिवार्य शर्त है। यदि
आपके हाथ में हज़ार
रूपये का एक नोट
है तो आपके और
नोट के बीच कोई फांसला नहीं
है। रुपया आपको पूरा
का पूरा समर्पित है।
परम आज्ञाकारी बन आपके
सभी आदेशों का पालन
करता है। आप उसके
प्रति समर्पण के झंझट
से भी बच जाते
हैं। क्योंकि वह आपके
प्रति कोई विद्रोह भी
नहीं करता। आपके और
नोट के बीच अब
कोई फासला भी नहीं
रह गया है। दोनों
मिलकर एक हो गये
हैं आप और नोट
दोनों एक-दूसरे के
प्रेम में अब समर्पित
हैं। आपको लगता है
कि नोट के प्रति
प्रेम समर्पण से घट
रहा है। जबकि यह
एक भ्रम पूर्ण स्थिति
है।
रूपये में अपनी कोई
चेतना नहीं होती है।
उसकी अपनी कोई मनोस्थिति
तो नहीं, क्योंकि वह
जड़ है। उसका अपना
कोई आर्थिक मूल्य थोड़े
ही है। मूल्य का
निर्धारण तो समाज करता
है। वह साधु के
आगे भी उतना ही
समर्पित है जितना एक
चोर के आगे। उसे
किसी भी हालत में
रखो वह पूर्ण रूपेण
राजी है। चाहे बाजार
में जाकर उससे कोई
वस्तु खरीद लें या
फिर उसे तिजोरी में
रख दें। परम आज्ञाकारी
की तरह कोई झगड़ा
झंझट भी पैदा नहीं
करता है क्योंकि उसमें
अपनी कोई आत्मा है
ही नहीं, वह तो
मुर्दा है।