वर्तमान परिवेश में नारी की भूमिका

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हम नवरात्रों में दुर्गा सप्तशती की कहानी में सुनते हैं परमात्मा को भी सृष्टि से असुरों का सफाया करने के लिए 108 शक्ति देवियों की आवश्यकता हुई, और वो 108 शिव-शक्तियों ने, विश्व से आसुरी वृतियों का सफाया किया। वो कौन हैं? जिनका गायन है, पूजन है वो हम सब नारी शक्ति हैं। हम विश्व-परिवर्तन चाहते हैं परन्तु परिवर्तन किस दिशा में चाहते हैं?

सुखद समाज हो, देश हमारा समृद्ध हो, उन्नति के शिखर पर हम पहुँचें इसमें राजनीति, शिक्षा, न्याय, विज्ञान सभी क्षेत्रों में उन्नति होनी बहुत आवश्यक है और समाज के इन विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति का आधार मानव है और मानव इकाई ही है मानव में नैतिकता, आध्यात्मिकता का जब समावेश होता है और दैवी सम्पदा का जब उसमे विकास होता है, तब मानव सचरित्र कहलाता है और ऐसे चरित्रवान मानव का निर्माण कौन करती है?

निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका नारी निभाती है। नारी पर यह दायित्व जाता है। माँ, बहन, पत्नी, पुत्री, दोस्त, सेविका के अनेक रूपों में नारी अपने ज़िम्मेदारी का निर्वहन करती है और आज जो समाज की विषम परिस्थितियाँ हैं ऐसे समय में नारी अन्धकार में एक प्रकाश की किरण बन सकती है। डूबती नैया का पतवार बनकर किनारा दे सकती है।

इस अपनी ज़िम्मेवारी को निभाने वाली नारी, उसमें भी कुछ गुणों का, कुछ मूल्यों का समावेश होना बहुत आवश्यक है। जितनी ऊँची ज़िम्मेदारी, उतना ही त्याग, समर्पण, सेवा और मूल्य होने ज़रूरी हैं। तो जब हम कहते हैं चरित्रवान नागरिक हो, हमारा समाज स्वस्थ हो उसके लिए चरित्र क्या है जिसमें सकारात्मक, सामाजिक, नैतिक मूल्यों का विकास होता है तो वर्तमान शिक्षा जो हम प्राप्त कर रहे है, यह शिक्षा पुरुष और नारी दोनों को सामान रूप से उपलब्ध है और यह शिक्षा बुद्धिजीवी बना रही है। विभिन्न क्षेत्रों में नारियां आगे बढ़ रही हैं, विवेक प्रधान बनती जा रही है।

लेकिन उसका दूसरा पहलू भी है भावना। क्या भावविहीन हो जाना, नारी सुलभ विशेषतायें जैसेकि मधुरता, विनम्रता, मृदुलता, करुणा, स्नेह को खो देना समाज के लिए ठीक है? विकास के इस अंधीदौड़ में पुरुष के साथ कन्धे से कंधा मिला करके चलना समय की मांग है और समय के अनुसार उन्हें बुद्धि-चातुर्य से अपनी बुद्धि का योगदान भी देना है।

बुद्धि-बल से देश को ऊँचाइयें तक ले जाना है। लेकिन जो उनके प्रकृति-प्रदत गुण हैं, प्रकृति-प्रदत्त जो उनकी विशेषतायें हैं उन विशेषताओं को छोड़ दें तो संघर्ष उत्पन्न हो जाएगा और प्रकृति-प्रदत्त योग्यता माँ के रूप में बच्चों को संस्कारित करना, परिवार में एकता बनाये रखना और परिवार में सुख शांति का वातावरण बनाना यह पहली ज़िम्मेंदारी है।

चाहे हम कितनी भी ऊँचाईयों पर जायें, किसी भी क्षेत्र में परचम लहरा दें लेकिन पहले हम कौन हैं? पहले हम माँ हैं, नारी हैं, मित्र हैं, पुत्री हैं, आदर्श पत्नी हैं। अपनी इस भूमिका को कभी हम नहीं भूलें। विश्व-परिवर्तन की भूमिका निभाने में महिलाओं का मेंटली स्ट्रोंग होना भी उतना ही आवश्यक है।

जहाँ इंटेलेक्चुअल डेवलपमेंट है, वहां इमोशनली, मेंटली मैचुरिटी होनी भी बहुत ज़रूरी है और अगर विचार, भावनायें, व्यवहार उत्तम है तो कहेंगे वो आतंरिक रूप से शक्तिशाली है, मज़बूत है क्येंकि महिला वहीं पराजित हुई जब उसने अपनी आतंरिक शत्रुओं पर विजय नहीं पाई। बाहरी शत्रु तो हैं ही लेकिन इन शत्रुओं से लड़ते हुए उसे आतंरिक शत्रुआंs पर विजय पानी होगी और समाज में अपना स्थान बनाना होगा।

लालसा, असीम कामनायें, इन्द्रिय संयम का आभाव, मर्यादाविहीन होना यह नारी के आतंरिक शत्रु हैं। जबकि संयम, मर्यादा उसका शृंगार है उसकी शोभा है। वर्तमान में नारी को विकट परिस्थितियों की चुनौती को स्वीकार करके आगे ब़ढ़ने की, अपने ऊपर पूर्ण विश्वास रखने की और अपनी सम्पूर्ण योग्यताओं और शक्तियों का उपयोग करने की आवश्यकता है। एक छोटे-से उदहारण से इस बात को हम समझ सकते हैं

ग्रामीण क्षेत्र की एक छोटी-सी कहानी है जिसमें एक परिवार में पांच भाई थे। उनकी माँ नहीं थी। माँ होने के कारण वो जहाँ खेती करने जाते थे, उन्हें खेती के बदले में जो मजदूरी मिलती, वो मजदूरी लेकर चना और गुड़ लेना पसंद करते थे। यह सोच कर कि कौन भोजन पकाएगा? कौन भोजन की सामग्री जुटाएगा? वे गुड़ और चना लेकर आते और रात को खाते और सो जाते। जब बड़े भाई का विवाह हुआ और उसकी पत्नी आई उसने घर देखा, झोपड़ा, जो रहने लायक नहीं था।

पांचो भाइयों के अलग-अलग पांच चूल्हे थे। उसका कलेजा मुंह को गया और सोचा कि मैं कहाँ गई और दिल में आया कि मैं जाऊं यहाँ से भाई-भाभी के पास उसके भी माता-पिता नहीं थे, परन्तु फिर सोचा भाई-भाभी के पास सारी ज़िन्दगी कैसे गुजारूगी?

तो उसकी आत्मिक-शक्ति जाग्रत हुई, हिम्मत रखी और उससे मिलने वहां जो औरतें आई थीं, उसमें से एक ब़ूढ़ी औरत ने कहा कोई ज़रूरत हो तो मेरे पास जाना, मदद दे दूंगी, जो चाहिए वह ले लेना। उसने चार चूल्हे तो ख़त्म कर दिये, एक चुल्हा रखा और उस बूढ़ी औरत के पास जा करके कहा मुझे कुछ साग बनाने के लिए बथुआ, पालक आदि दे दो, मैं लौटा दूंगी।

उस बूढ़ी औरत ने उसे साग के लिए सामान दिया और चटनी दी और वो लेकर आई। जब पाँचों भाई घर आये तो उन्होंने देखा इसने चूल्हे ख़त्म कर दिये। उन्हें बहुत बुरा लगा, पर उसने उस सामग्री से सब्जी बनाई, साग बनाया और उनको कहा इसके बदले सेठ से अन्न ले आओ वे अन्न लाये फिर रोटी पकाई गई और सबने अच्छे-से भर पेट भोजन किया।

बाद में उसने सबको कहा कि वहां जाना मज़दूरी लाना या अन्न लाना। उनको भी सुकून मिला, भर पेट भोजन मिला, धीरे-धीरे हालात बदलने लगे बात छोटी है, लेकिन यह उसके आत्म-बल को, उसके साहस का, उसकी हिम्मत को दर्शाती है। पलायन नहीं किया परिस्थिति से। परन्तु आज जो हम देख रहे है, बदलते परिवेश में छोटी-छोटी बातों पर तलाक हो रहे है, सहनशक्ति की कमी है, बर्दाश नहीं हो पाता है, परिवार को बनाना वो भावना नहीं रही है।

जैसा मिला प्राप्त परिस्थितियों को स्वीकार करके और अपनी सम्पूर्ण शक्ति उसमे लगाकर यदि वो परिवार बनाती है, प्रेम का वातावरण बनाती है तो जब परिवार में प्रेम से रहना सीख जाते है, तो समाज में भी प्रेम से और विश्व में भी प्रेम से रह सकते है और यह लड़ाई-झगड़े का माहौल समाप्त हो जाएगा तो नारी होना एक गर्व की अनुभूति है ईश्वर की एक सुंदर रचना है।

अपने इस पुरुष के साथ समानता में नारियोचित गुणों को नही त्यागा जाये तो अच्छा है। स्वीट, सोबर और केयरिंग नेचर यह नारी की विशेषता है। अपने बच्चों को संस्कारवान बनाना, एक अच्छी प़ीढ़ी समाज को देना यह उसका पहला दायित्व है।

लेकिन भौतिक दृष्टि से हम ऊँचाइयों पर पहुँच जाते हैं परन्तु उन ऊँचाइयों पर कायम रहे, उसके लिए आवश्यक है, अनुशासन और संयम, नहीं तो शिखर पर पँहुचने के बाद भी जब आत्म-अनुशासन नहीं और संयम नहीं होता तो अच्छे-अच्छों का मन डावांडोल हो जाता है और आत्मिक-ज्ञान और संयम की सीढ़ी से ही हम आगे बढ़ सकते हैं और अगर एक से भी हटें तो पैर फिसला और सीधा पतन पर आते धरातल में जायेंगे तो नफरत नहीं प्रेम की सीढ़ी चढ़ने की, ईमानदारी की कमाई की रोटी खाने की आवश्यकता है और उसमें ही बरकत है। बेइमानी की रोटी में परेशानियां ही परेशानियां है और तीसरी बात हम अपरिग्रह अपनाये। आवश्यकता से ज्यादा लालसा रख करके चीज़ों और वस्तुओं का संग्रह करना।

फिर उसके कारण जीवन-साथी पर दवाब डालना कि वो भी कहीं से अनावश्यक अनीति से धन लाये उसका परिणाम बहुत भयंकर है। तो अपरिग्रह का गुण यह हमें दल-दल में जाने से बचायेगा और कहा जाता है कि ज़रूरत से ज्यादा जो संग्रह करते  या जमा करते वो भी एक प्रकार की चोरी है।

आज लड़कियों को अच्छे संस्कार दियें जाते है क्योंकि उन्हें पराये घर जाना है लेकिन लड़कों को भी यह शिक्षा दें कि हर नारी का मान करें, हर नारी को माँ और बहन समझें। प्रकृति में भेद है, प्रकृति के भेद को शरीर के अनुसार, रोल के अनुसार स्वीकार करते है। लेकिन शरीर को चलाने वाली आत्मा है और आत्मा के मूल्यों पर, गुणों पर भी ध्यान केन्द्रित करके उनको विकसित करने आवश्यकता है।

जैसे कि एक बार विश्वामित्र ने वर्षों की तपस्या की और वर्षो की तपस्या में जब उनके सामने अप्सरा मेनका आई तो उनका तप भंग हो गया। क्यों, इतने वर्षों की साधना और एक सुंदरी को देखने से उनका तप खंडित हुआ क्येंकि उन्होंने नारी रूप देखा, सौंदर्य को देखा, आभूषण देखा लेकिन उसमें जो आत्मा स्थित है, जो ऊर्जा पुँज है,  जो तन को चला रही है, जो शक्ति पुंज है।

उसको नहीं देखा यदि हम सबको इस तन वस्त्र में आत्मा देखेंगे और मस्तक में भृकुटी से नीचे हमारी दृष्टि नहीं जाये तो मन विचलित नहीं होगा और समाज में जो नारियों के साथ अनेक तरह के दुष्कर्म हो रहे है, बहुत ख़त्म हो जायेंगे सोच बदलें, विचार बदलें, आत्मभाव, भाई-भाई की दृष्टि जब जाती है, तो एक सुंदर स्वस्थ समाज बनता है, परिवर्तन आता है और समाज के परिवर्तन से विश्व में परिवर्तन आता है और इन सबका आधार अध्यात्म में राजयोग की शिक्षायें है

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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