पारिवारिक मूल्यों की जीवन में आवश्यकता

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जब शिशु जन्म लेता है तो पहले दिन से ही, बल्कि पहले क्षण से ही वह एक परिवार का सदस्य हो जाता है। जिनसे उसका जन्म हुआ, वे उसके माता-पिता कहलाते हैं। माता-पिता के भाई-बहन कमश उसके मामा-मामी, चाचा-चाची हो जाते हैं और इस प्रकार अन्य-अन्य सम्बन्धियों और रिश्तेदारों की एक शृंखला-सी बन जाती है। इन सब निकट सम्बन्धियों को मिलाकर उसका ‘कुटुम्ब’ अथवा ‘परिवार’ बनता है।

अन्य किसी सभा या संस्था का सदस्य बनने के लिये तो मनुष्य को पाय कोई फार्म भरना पड़ता है, कोई फीस जमा करनी पड़ती है, चन्दा देना पड़ता है या कहीं अँगूठा लगाना अथवा हस्ताक्षर करने पड़ते हैं परन्तु एक परिवार का सदस्य तो नवजात शिशु पहला श्वाँस लेते ही हो जाता है। इस परिवार की अपनी कोई रीति-नीति, मर्यादा-संस्कृति और बीती-पीति होती है और इसके अपने रसम-रिवाज़ भी होते हैं।

परिवार की सदस्यता ज़रूरी

यह परिवार और इसकी सदस्यता ज़रूरी है क्योंकि पहले दिन से ही बच्चे का लालन-पालन, उसका भरण-पोषण, उसकी रक्षा और बाद में शिक्षा, प्रचलित मर्यादा के अनुसार उस परिवार ही की ज़िम्मेवारी हो जाती है। परिवार के सदस्यों से उसे प्यार मिलता है और उनसे उसका लेन-देन भी शुरू हो जाता है। नये कर्मों का एक बहीखाता पारम्भ हो जाता है और लेन-देन, उधार-सुधार सब चलता रहता है। ये प्यार-दुलार उस शिशु को सुख देने वाले भासित होते हैं।

परिवार समाज की इकाई

इस पकार से बड़ा होते-होते वह स्वत ही कई परिवारों का सदस्य बना होता है क्योंकि उसके परिवार के हरेक सदस्य का अन्य भी किसी-न-किसी परिवार से रिश्ता-नाता होता है। उदाहरण के रूप में उसकी माता के अपने भी माता-पिता होते हैं जिनके अपने भी भाई-बहन, चाचा, मामा इत्यादि होते हैं।

ऐसे ही उसके अपने पिता के अपने भी माता-पिता और उनके सम्बन्धी होते हैं। इस पकार थोड़ा ही बड़ा होने पर वह समझता है कि वह एक परिवार का ही नहीं बल्कि गाँव, नगर, जाति, समाज इत्यादि का भी सदस्य है। इस पकार परिवार तो वास्तव में समाज की इकाई है।

जैसा परिवार वैसा समाज

इससे स्पष्ट है कि किसी देश अथवा समाज में जैसी परिवारों की हालत होगी वैसी ही उस देश अथवा समाज की भी हालत होगी क्योंकि समाज का ताना-बाना तो परिवार ही है। अगर वहाँ के परिवारों के सदस्य सुसभ्य, सुसंस्कृत, शिक्षित अथवा स्व-अनुशासित होंगे तो वह देश भी एक अच्छी सभ्यता वाला देश कहलायेगा। ऊँची सभ्यता, संस्कृति एवं शिक्षा वाले देश के लोग एकजुट होकर एक बड़े परिवार के सदस्य की तरह रहते होंगे।

उन सभ्यता वाले देशों के लोगों में वैर-वैमनस्य और हर थोड़े समय के बाद दंगे, फसाद, लड़ाई-झगड़े, मार-काट और परस्पर शत्रुता की बातें नहीं होंगी। इसकी बजाए अगर किसी परिवार के सदस्यों में हर दिन कलह-क्लेश, डाँट-डपट, अन-बन और परस्पर फूट होगी तो वे जहाँ जायेंगे कलह-क्लेश और लड़ाई-झगड़ा पैदा करेंगे।

अगर घर-परिवार में मानसिक तनाव होगा तो उसके सदस्य भी हर जगह तनाव अपने साथ लेकर जायेंगे और दूसरी जगह के वातावरण में भी मन, वचन या कर्म से तनाव फैलायेंगे। अगर उनके घर में झगड़ों को निपटाने के लिये या बीच-बचाव करने के लिये पक्षपात-रहित किसी व्यक्ति की ज़रूरत पड़ती रहेगी तो वे बाहर वालों से भी मुकद्दमाबाजी लिया करेंगे और न्यायालय के न्यायाधीश महोदय से पारस्परिक झगड़ों में निर्णय कराया करेंगे।

वह घर, ‘घर’ होकर चिड़ियाखाने से भी गयागुज़रा हो जायेगा क्योंकि चिड़ियाघर में भी परस्पर वैर-वैमनस्य वाले जीव-पाणी अपने-अपने अहाते अथवा पिंजरे में तो अपनी-अपनी मर्यादा से रहेंगे। परन्तु ऐसे घर में तो वे हाय-हल्ला, चीख-बछाड़ करते होंगे। जेल में भी कैदी अपने-अपने कमरे में तो रहते हैं परन्तु यह घर तो सीखचों के बिना भी जेल से बदतर होगा क्योंकि यहाँ व्यक्ति एक-दूसरे को दुःख देते रहेंगे, अपने व्यवहार से पीड़ा पहुँचाते रहेंगे और जीवन भर के लिए सख्त सज़ा वाले कैदियों से भी अधिक असह्य वर्ष के बाद वर्ष बिताते रहेंगे।

परिवार जोकि वास्तव में सुख और सुरक्षा का साधन होना चाहिए, वह मानो दुर्वासा द्वारा श्रापित दुःखालय बना होगा। जिस परिवार के सम्बन्धों से मनुष्य को आत्मीयता और पेम का अनुभव होना चाहिए, उनके वे सम्बन्ध कड़े बन्धनों जैसे महसूस होने लगेंगे। आज बहुत-से परिवारों की तो ऐसी ही हालत है। परन्तु, हाँ, अन्य कई परिवार इससे कुछ अच्छे और कुछ उनसे भी अच्छे हैं। परन्तु यह पीड़ाजनक पकिया शुरू तो हो ही गई है।

वर्तमान समय के परिवार के लक्षण

आज परिवारों में पहले जैसी आत्मीयता और हार्दिक स्नेह तो किन्हीं-किन्हीं ही परिवारों में देखने को मिलता है। आज बड़े परिवार तो बहुत कम ही रह गये हैं। पाय एक-दो पीढ़ी के बाद ही बच्चे माँ-बाप से अलग हो जाते हैं और एक-दूसरे के दुःख-सुख में सहृदयता से भागीदार नहीं बनते, ही वे घनिष्ठता से मिलते हैं। ऊपरी-ऊपरी प्यार है जो दिखावे जैसा रह गया है। स्वार्थ बढ़ता जा रहा है।

अलगाववाद पनप रहा है। परिवार ढहते और टूटते जा रहे हैं। कई बच्चे घर को छोड़ कर भाग जाते हैं। अन्य बहुत-से बच्चे घरों में रहते हुए भी माता-पिता के अधिकारों की अथवा उनकी छत्रछाया की अवहेलना करते हैं और मनचाहे, उल्टे-पुल्टे कर्मों में लगे रहते हैं।

स्वयं माता-पिता भी बच्चों को अपने प्यार से अच्छी तरह से नहीं सींचते इसलिये बच्चे घर से बाहर प्यार ढूँढ़ते हैं और झूठे नाते जोड़ लेते हैं। वे द्रव्यपान, मद्यपान जैसी आदतों में पड़ जाते हैं। इस पकार घर-परिवार और चित्र-चरित्र ही बदल गये हैं।

घर के सदस्यों में अब परस्पर बात करने का समय ही कहाँ है? घर का दरवाज़ा खुले बिना टी.वी. के दृश्य घरवालों के सामने उपस्थित होते हैं। माँ-बेटी, बेटी-बहू, पोता-पोती, नौकर-अतिथि सब इकट्ठे बैठकर हिंसा तथा पाश्विक कर्म-व्यवहार वाले ‘चलचित्र और चरित्र’ देखते हैं। सबने अपने मन के दरव़ाज़े और नेत्रों की खिड़कियाँ ऐसे दृश्यों के लिये खोल दिये हैं।

जिनके बारे में 50 वर्ष पहले किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि घर सिनेमाघरों से भी अधिक ख़राब स्थान बन जायेंगे। ‘‘बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो’’ वाली शिक्षा को एक मोटी सन्दूक में बन्द करके उसे ताला लगाकर जमीन से कई फुट नीचे गाड़ दिया है।

जिन बातों को अपनी सास के सामने करने में बहू पहले लज्जा किया करती थी, आज वे इकट्ठी बैठकर उनसे भी कई गुणा अधिक गन्दी बातों को देखती और सुनती हैं और हँसी तथा कहकहे लगाते हुए खुश होती हैं। फिर भी लोग इसको ‘मनोरंजन’ कहते हैं। अगर सन्त कबीर जिन्दा होते तो अपने दोहे में इस पकार फेर-बदल करते कि ‘‘भंजन को रंजन कहें, देख कबीरा रोया’’।

‘घर’ अब सराय जैसे ही बन गये हैं।

आज घर वास्तव में घर नहीं रहे बल्कि एक सराय के समान बन गये हैं। जहाँ हरेक सदस्य अपने-अपने अलग समय पर आता है और अलग-अलग खा-पीकर सो जाता है। इसलिए कहा गया है कि आज घर में इतना बदलाव गया है कि अपनापन महसूस नहीं होता। अंग्रेज़ी भाषा में ‘घर’ के लिये एक शब्द है ‘होम’ और दूसरा है ‘हाऊस’।

पहले और दूसरे शब्द में अन्तर यह है कि पहले में ऐसा महसूस होता है कि हम ऐसी जगह गये हैं जहाँ स्वजन (अपने ही मित्र) हैं और दूसरे में ऐसा लगता है कि रहने की जगह तो मिलेगी, भोजन भी मिलेगा परन्तु अपनेपन वाला एक हार्दिक प्यार नहीं मिलेगा। आज देश की सरकार के एक मंत्रालय को ‘गृहमंत्रालय’ कहा जाता है।

जिसका कार्य देश की आन्तरिक सुरक्षा इत्यादि है। परन्तु व्यक्ति अपने रहने के लिये जो घर बनाता है, उससे सम्बन्धित जो कर लिया जाता है, उसे नगर-निगम वाले (गृह कर) कहते हैं। इस पकार सरकार ने ही आज ‘होम’ और ‘हाऊस’ के अन्तर को मिटा दिया है क्योंकि अब होम रहकर हाऊस ही रह गये हैं।

विचित्र बात तो यह है कि स्कूल और कालेज के छात्र-छात्राओं के रहने की जहाँ व्यवस्था हो उसे तो (छात्रावास) कहा जाता है और जहाँ पर रोगी के ठहरने के पबन्ध हों और उसका औषधि-उपचार हो उसे नर्सिंग होम कहा जाता है। परन्तु देखा जाये तो सभी अतिथि-निवास की तरह ही बन गये हैं और धीरे-धीरे जीवन ऐसा ही रूप लेता जा रहा है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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