प्रतिभा मनुष्य में जीवन-शक्ति एवं संकल्प-बल के रूप में विद्यमान ऊर्जा है, जिसकी पहचान व्यक्ति में शारीरिक, वैचारिक और भावना शक्ति के रूप में की जाती है। शारीरिक पुष्टता को विकसित करने वाले को पहलवान, वैचारिक शक्ति सम्पन्न को दार्शनिक अथवा मनीषि कहा जाता है जबकि भाव-शक्ति वाला, कवि-कलाकार की श्रेणी में आता है।
सच कहा जाये तो हर मनुष्य में प्रतिभा के ये बीज किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रहते ही हैं। किसी के अन्दर चन्द्रशेखर आजाद जैसी बलिष्ठता तो किसी में स्वामी विवेकानन्द-सी दार्शनिकता और कहीं कालीदास जैसा कवि छुपा हुआ है। समाज में आदर्श व्यक्तित्व स्थापित करने के लिए जरूरत है अपने अन्दर सुषुप्त विशेषताओं को पहचान कर उनका सदुपयोग करने की।
वास्तव में संकल्प शक्ति, चिन्तनशीलता और जुझारूपन का ही दूसरा नाम है प्रतिभा। इसलिए कहा गया है कि प्रतिभा के बल पर ‘मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिं’। संकल्प शक्ति और जुझारूपन से गूंगा व्यक्ति बातें करने लग जाता है और लंगड़ा पहाड़ों को लांघने। इसी पकार दृढ़ता और विश्वास से असम्भव को सम्भव बनाया जा सकता है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि श्रद्धा का अर्थ अन्ध विश्वास नहीं बल्कि किसी के आचरण और अन्य चारित्रिक चलन का आकलन करने पर ही उसे समाज का श्रद्धेय अथवा आदर्श कहा जा सकता है। यों भी किसी समाज सेवक के व्यक्तित्व और सिद्धान्त सामाजिक परिवर्तन में अहम् भूमिका निर्वहन करते हैं।
आदर्श समाज सेवी की श्रेणी के लोगों की सकारात्मक और आशावादी सोच होने से ही समाज का सर्वांगीण विकास होगा। सर्वांगीण में आध्यात्मिक, नैतिक, चारित्रिक और मानवीय आदि सभी मूल्य आ जाते हैं। जिन्हें अंगीकृत करने से मनुष्य के अन्दर की उन सुषुप्त पतिभाओं को जागृत किया जा सकता है, जिनकी समाज को जरूरत है।
जहाँ परस्पर स्नेह, सहानुभूति, सौहार्द और समरसता हो, निष्पक्ष और सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय की भावना हृदयंगम की गई हो वहाँ जाति, धर्म, भाषा और रंगों का भेद स्वत ही समाप्त हो जाता है और शेष रह जाता है आदर्शवाद, आदर्श समाज और आदर्श व्यक्तित्व।
जिस समाज की सेवा का संकल्प लिया गया हो उससे स्वयं की अलिप्तता अथवा उच्च पकाष्ठा की महसूसता ही समाज का आदर्श बनने की पहली सीढ़ी कही जाती है और इसी अवस्था में सामाजिक समस्याओं के निराकरण की सोच को गतिमान किया जाना सम्भव होगा। यह अलग बात है कि सामाजिक समस्याओं का आकलन करने वाले व्यक्ति का मानसिक धरातल क्या है?
हम यहाँ बात कर रहे हैं आदर्श समाज सेवक की और हमारा ध्येय भी यही है कि आदर्श समाज सेवा के माध्यम से श्रेष्ठ समाज निर्मित हो। हाँलाकि यह तो होना ही है और निश्चित ही होकर रहेगा। उसके लिए आशावान ही नहीं वरन् हमें पूर्ण विश्वास भी है।
एक आदर्श समाज सेवक को सदैव यह याद रखने की जरूरत है कि मनुष्य ने जब-जब प्रकृति द्वारा प्रदत्त नियमों का उल्लंघन किया है तब-तब ही वह एक असफल और दिशाहीन पथिक साबित हुआ है और अपने ही द्वारा बुनी गई बुराइयों के ताने-बाने की दल-दल में वह फंसता चला जाता है। यह तो सर्वविदित है कि दलदल वह तकलीफ देय है, जिससे जितना निकलने की कोशिश की जाती है उसमें उतना ही अन्दर धंसता चला जाता है जिससे तनाव और निराशाजन्य परिस्थतियां निर्मित होती हैं।
महापुरुष किसी का इंतजार नहीं करते बल्कि वे स्वयं का मार्ग स्वयं तय करते हुए समाज के लिए दीपशिखा बनते हैं। इसी प्रकार आदर्श समाज सेवक का भी यह कर्तव्य बन जाता है कि जीवन रूपी यात्रा की ऊँची-नीची, कंटीली-पत्थरीली, उबड़-खाबड़ पगडण्डियों पर निरन्तर चलते हुए वे ऐसे पद-चिह्न छोड़ें जो उन पर चलने वालों के लिए कुशल दिशा निर्देशन का काम कर सकें।
इसीलिए कवि ने कहा है कि –
साधना शिल्पी स्वयं को गढ़ रहे हैं, पाँव धीमे हैं मगर आगे बढ़ रहे हैं, थरथराती पिण्डलियां हरगिज दुर्बल हैं लेकिन हम रपटती सीढ़ियों पर चढ़ रहे हैं।’’
हम समाज को श्रेष्ठ और सुखदाई बनाने के लिए कुछ कारगर कर रहे हैं और यही मानकर चल रहे हैं कि यह सही है कि हम अपने ध्येय में परिपूर्ण नहीं हुए हैं लेकिन उस उचित मार्ग पर चल रहे हैं जहाँ हमारी अन्तिम मंजिल है।
प्रचीन चिन्तकों ने भी यही कहा था कि समाज का आदर्श वही व्यक्ति बन सकता है जिसके जीवन में आंतरिक सुख हो, मानसिक शान्ति हो और साथ ही उसमें कुछ नया कर गुजरने की इच्छा शक्ति हो और परिवर्तन के लिए दृढ़ता भी।
उद्दण्डता का उत्तर केवल उपद्रवी नहीं हैं क्योंकि अपशब्द बोलना और दुश्कर्म करना उसी के वश की बात है जिसका मानसिक धरातल किन्हीं संकुचित विचारों की कैद में हो। इसलिए पुरातन दूरदर्शी मनीषियों ने समाज में सुखद वातावरण निर्मित करने के उद्देश्य से समाज को –
‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’
का चिन्तन दिया था। जिससे समाज कल्याण की वृहत् मानसिकता को बल मिलता है।
कहा जाता है कि कीचड़ वही व्यक्ति दूसरों पर उछाल सकता है जो स्वयं कीचड़ में रहने का अभ्यस्त हो वरना स्वच्छ मानसिकता तो सदैव समाज को उच्च आदर्शों से युक्त निर्मल स्वरूप में देखना चाहेगी। गंगाजल का महत्व क्यों है क्योंकि वह स्वयं में स्वच्छ है, निर्मल है, पानी तो वही है किन्तु किसी तालाब के ठहरे हुए पानी को महत्व क्यों नहीं दिया जाता है क्योंकि वह कीचड़ में सना हुआ है, बदबूदार है। इसलिए उसे गन्दा पानी कहा जाता है।
यह अलग बात है कि तालाब के गन्दे पानी को भी स्वच्छ किया जा सकता है, मल रहित किया जा सकता है। इसी प्रकार समाज, जो मूल रूप में स्वच्छ, निर्मल था किन्तु किन्हीं कारणों से वह मलिन हो चुका है। अब आदर्श समाज सेवक के सशक्त कन्धों पर उसे पुन उसका मूल स्वरूप पदान कराने का उत्तरदायित्व आ गया है।
हाँ, तो आईये! अब हम इस भगीरथ कार्य के लिए दृढ़ संकल्प करें। मनीषियों ने भी कहा है है जो भी शुभ कार्य करना हो उसको कल पर मत छोड़ो, कौन जाने कल कब आये और यदि आ भी जाये तो न जाने उस समय परिस्थितियाँ क्या और कैसी होंगी। इसलिए समय की मांग को देखते हुए आदर्श समाज की स्थापना के ईश्वरीय कार्य में जुट जाने का आह्वान किया जाता है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।