भारत व विश्व के अन्य राष्ट्र जब स्वतत्र हुए तो वहाँ की तत्कालीन सरकारों ने सामाजिक समरसता को बनाये रखने के लिए जातीय, मतीय, पद्धतियों को, काले-गोरे के भेद को व गरीब साहूकार के अन्तर को मिटाने के कई कानून बनाये। भारत सरकार ने भी धर्म निरपेक्ष राज्य की घोषणा की।
धर्म निरपेक्ष का अर्थ था कि स्वतत्र भारत में सामाजिक समरसता को बनाये रख सामाजिक विकास कर सके। सामाजिक विपरीत व सामाजिक विघटन वा सामाजिक विरसता न पनपने पाये और समाज दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करे। आज भारत को स्वतत्र हुए 75 वर्ष के बाद भी सामाजिक परिस्थितियाँ कोई सकारात्मक नहीं हैं या कहें कि हालत और ही बद से बदतर होते दिखाई दे रहे हैं।
आज जातिवाद की जड़े इतनी गहराती जा रही हैं जिन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना एक दिवा-स्वप्न-सा दिखाई दे रहा है। जातिवाद ने शिक्षा, निवेश, राजनीति और सामाजिक व्यवस्था में अपनी जकड़ इतनी मज़बूत कर रखी है कि साधारण मनुष्य तो क्या सरकार को भी घुटने टेकने पड़ते हैं। दूसरी बात कि गरीबी हटाने के लिए भी कई पयास किये गये।
शिक्षा के क्षेत्र में, गरीबों को घर देने, किसानों को उनके उधारी के क्षेत्र में, सिंचाई के क्षेत्र में कई कारगर उपाय किये गये परन्तु उन सबका निचोड़ यह रखा गया कि गरीबी नहीं बल्कि गरीब को हटाओ। आज दुनिया के दस में से सात धनाड्य भारत में हैं और कई विश्व धनाड्य भारतीय बाहर के देशों में हैं।
सच्चाई तो यह है कि भारत में कोई गरीब नहीं है बल्कि मानव मन में पनप रही बुराइयाँ, मानव जीवन में घर कर गये विकार, समाज को खोखला करने वाली कुरीतियाँ और दिखावा आज हमारे समाज के दुश्मन हैं। वर्तमान समाज की जो दुर्दशा हुई है वह हमने ही अपने पैरों पर आपे ही कुल्हाड़ा मार कर की है, अन्य कोई दोषी नहीं बल्कि हम ही दोषी हैं।
प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय गत 85 वर्षों से समाज के निचले तबके से लेकर उच्चतम लोगों तक यह सन्देश देता रहा है कि यदि भारतीय समाज में समरसता लानी है तो उसका एकमात्र उपाय है आध्यात्मिक ज्ञान और भारत का पाचीन राजयोग।
देखा गया कि कल तक जो कोई भी इस ज्ञान और योग को बेकार कहा करते थे उन्हें आज थोड़ा-सा अहसास हो रहा है व महसूसता हो रही है कि इन ब्रह्माकुमारी बहनों की आध्यात्मिक बातें काम की हैं। इनमें सच्चाई है।
हमारा मन्तव्य है कि सरकारी, गैर-सरकारी व अन्य कोई संघ संस्थान भी यदि सामाजिक समरसता लाना चाहते हैं तो अध्यात्म को पहले अपने जीवन में ढालें। कारण कि आज तक अध्यात्म का नाम लेकर हज़ारों, लाखों ने धर्मग्लानि की है अर्थात् कई ग्रन्थ-महाग्रन्थ रच डाले, भाषण कर डाले।
कानून (कागज़ी) बना डाले। परन्तु दैनिक जीवन-पद्धति में आध्यात्मिकता न लाने के कारण लकीर के फकीर ही रहे। हाँ समस्या यह भी रही कि अध्यात्म को पत्यक्ष जीवन में उतारने के लिए जो ताकत-शक्ति चाहिए वह कहाँ से आये? अब हम डंके की चोट पर कहना चाहेंगे कि वह ताकत व शक्ति हम अपने परमपिता सर्वशक्तिवान परमात्मा से ले सकेंगे।
अध्यात्म, जिसका जाति से, साहूकारी से, गरीबी से, पढ़े-अनपढ़े से कोई लेना-देना नहीं है। यह सिखाया है कि आप अपने को इस हाड़-माँस के शरीर से अलग एक चैतन्य अजर-अमर-आत्मा समझो। यह साहूकारी, गरीबी व जातपात का भेदभाव आदि विकार सब इस शरीर से जुड़े हुए हैं।
यदि हम अपने को देह के अहं से ऊपर उठा लें और अपने बुद्धियोग को परमात्मा पिता से जोड़ लें तो निश्चित ही मन सुमन हो जायेगा। चित्त शान्त होगा और फिर यह शरीर धर्म कार्य अर्थात् श्रेष्ठ कार्य में जुट जायेगा और निश्चित समझिये कि सामाजिक समरसता पत्यक्ष रूप में हम देख पायेंगे।
कल तक मान्यता यह रही कि अध्यात्म पहुँचे हुए योगी, सन्त-महन्तों की धरोहर है। साधारण गृहस्थी के हक में नहीं है। यही कारण था कि गृहस्थी आज तक भी पढ़ाई लिखाई, धन्धाधोरी, शादी ब्याह, बाल बच्चों के दलदल में फंसा हुआ यही दाद देता है कि उनका यही कर्मभोग है। वह कभी इस सतह से ऊपर उठने की सोचना ही नहीं चाहता।
जबकि कर्मयोग का तात्पर्य है कि आपको आत्मिक-चिन्तन में रहते कार्य करना है। जैसे कहावत भी है कम कार डे दिल यार दे अर्थात् हाथ से काम करो और दिल से, मन से प्रभु को याद करो। कार्य को ही योग न समझ योग में रह इन्द्रियों के द्वारा कार्य करना है ताकि मान-अपमान, दुःख-सुख, गर्मी-सर्दी में हम समान रह सकें। निन्दा-स्तुति को समान रूप से स्वीकार करें जिससे सामाजिक समरसता बनी रहे।
ब्रह्माकुमारी बहनें जो अध्यात्म ज्ञान देती हैं उनका मानना है कि इस अध्यात्म व आत्मिक-ज्ञान से आत्मा और इन्द्रियों के बीच तालमेल स्थापित होगा हमने आज तक इन्द्रियों को इन्द्रियों के लिए ही उपयोग में लाया है जबकि इस अध्यात्म शक्ति से हम इन इन्द्रियों को आत्मा अर्थात् अपने लिये उपयोग में लायेंगे। मन को सकारात्मक चिन्तन में लगाना, वाणी को आत्मिक भाव प्रदान करने में संलग्न करना।
दृष्टि को आत्मिक व पवित्र दृष्टि बनाना। कानों द्वारा सकारात्मक बातें ही सुनना, यही तो अध्यात्म है। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था का जो मूल है गृहस्थी को उसके जीवन का उद्देश्य मिल जाता है। गृहस्थी वा साधारण मानव की यह जागृति ही समाज में समरसता, खुशहाली लायेगी और यह भारत पुन एक बार सोने की चिड़िया कहलायेगा।
अन्त में –
1. अध्यात्म माना संन्यास नहीं बल्कि घर-गृहस्थ में रहकर बुराइयों पर जीतक पाने की शक्ति हासिल करना है, 2. अध्यात्म माना नर करे करनी ऐसी जो श्रीनारायण बने, नारी करे ऐसी करनी जो श्रीलक्ष्मी बने, 3. अध्यात्म माना दैवीगुणों से, शक्तियों से हम सजें, घर सजे और सजे यह समाज, 4. अध्यात्म माना हम आत्मा हैं हम सब का एक ही परमपिता परमात्मा बाप है, 5. अध्यात्मिक बनना माना जीवन को एक उद्देश्य के साथ चलाना।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।