शान्ति और अहिसा यह दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किसी समाज में शान्ति का होना यह सिद्ध करता है कि वहाँ उस समाज में अहिंसा प्रवृत्ति विद्यमान है। शान्ति हो और अहिंसा न हो यह हो नहीं सकता। इसका यह अर्थ हुआ कि शान्त व श्रेष्ठ समाज की पुनर्स्थापना के लिए अहिंसा का होना अनिवार्य है। अहिंसा अर्थात् युद्ध का न होना।
परन्तु कहावत यह है कि युद्ध का न होना शान्ति सिद्ध नहीं करता (The absence of war is not peace) इसलिए अहिंसा का सूक्ष्म अर्थ यह होगा कि स्थूल में हम अपने मन,वचन और कर्म से प्राणीमात्र को हिंसा न दें अर्थात् न बुरा सोचें, न बुरा बोलें और न ही बुरा करें। जब सोच की बात आती है तो कहा जाता है कि मानव मन में ही युद्ध उपजते हैं (wars are born in minds of men) इसका तात्पर्य यह हुआ कि मन को ही शान्ति का क्षेत्र बनाना चाहिए।
मानव मन में अशान्ति तब ही उपजती है जब उसकी इच्छाओं पर कुराघात होता है वा उसकी इच्छाओं पर पानी फेर दिया जाता है। यह इच्छा उत्पन्न होती ही है देह के संसर्ग से। गीता में भी कहा हुआ है कि देह के अहम् से ही यह काम, यह क्रोध जन्म लेते हैं, फलते-फूलते हैं। ऐतिहासिक और प्राग ऐतिहासिक घटनाओं का अवलोकन करने से यही ज्ञात होता है कि सभी राजनैतिक और सामाजिक अनहोनियों का मूल यह देह का अहम् ही है।
पौराणिक गाथाओं में भी आप देखेंगे कि यह काम और क्रोध ही सारी उथल-पुथल के जन्म दाता रहे हैं। इसलिए अब यह समझ लेना आवश्यक है कि अशान्ति का मूल, काम क्रोधादि विकार और इनका मूल देह अभिमान और इसका मूल स्वयं का अज्ञान। अज्ञात बात यह थी कि हम यह भूल गये थे कि हम इस विनाशी देह के अन्दर एक अविनाशी, अवध्य आत्मा है इसलिए अब हमें आत्मा के अध्ययन की ओर अर्थात् अध्यात्म की ओर मुड़ना होगा।
यह समझना होगा कि हम आत्मा जो आज इन विकारों से ओत-प्रोत हैं और जो यह विकार हम आत्माओं की निज मन की शान्ति को नष्ट करने वाले हैं, उन्हें नष्ट करना है। इसके लिए अपने मन को, श्रेष्ठ और पवित्र विचारों में तल्लीन वा लवलीन करना होगा इसे ही मनमनाभव कहा जाता है। शान्ति और अहिंसा प्रधान समाज के निर्माण के लिए, अपने तन को और धन को लगाना होगा।
आज तक जिस तन और धन को हम देह के अहम् से उत्पन्न विकारों की सप्राप्ति के लिए ही लगाते आये हैं, अब उसी तन और धन को निर्विकारी जीवन बनाने के कार्य में लगाना है। स्वयं आत्मा को शान्त व शुद्ध बनाने के लिए और अपने आपको आत्मा के निज संस्कारों में सन्निहित करने के लिए अपने तन और धन का विनियोग करना है। इसे ही मध्याजीभव कहा जाता है।
हमारे ही तन, मन और धन के सहयोग से अब पुनः इस धरा पर शान्ति और अहिंसा सम्पन्न समाज की पुनः स्थापना होगी, जो कि मानव मन की युगों की चिर अभिलाषा है। और वह अब साकार होगी कारण कि अब इस धरा पर प्रजापिता ब्रह्मा के मानुषी तन का आश्रय ले स्वयं गीता के भगवान सत धर्म अर्थात् अहिंसा और शान्ति सम्पन्न समाज की स्थापना के लिए कार्यरत हैं।
आइए, इस सत्य को जान हम भी अपने जीवन को धन्य बना लें। इस नव समाज के पुननिर्माण के महत् कार्य में आपका हम सादर स्वागत करते हैं।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।