आज हर क्षेत्र में यह सुनने को मिलता है कि हमारा सामज दिशाहीन समाज बनता जा रहा है, हमारा समाज बिगड़ता जा रहा है, हमारा समाज विकारों की गर्त में धंसता जा रहा है आदि-आदि। ऐसा कहते समय शायद हम यह भूल जाते हैं कि व्यक्ति और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और यह भी भूल जाते हैं कि ऐसे समाज के हम भी एक घटक हैं और ऐसा पतीत होता है कि हम अपनी जिम्मेदारी से मुकरकर ऐसा कह रहे हैं।
वास्तविकता तो यह है कि व्यक्ति ही समाज है। जैसे मन आत्मा की विचार शक्ति है वैसे ही मानव भी समाज का मूल है। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि मूल्यनिष्ठ समाज का निर्माण हो तो मानव के मन में, विचारों में, जीवन में मूल्यों का समावेश होना आवश्यक है। हम मनुष्य हैं ही प्रकृति और आत्मा का संयुक्त स्वरूप। आज तक विकास के नाम पर, इतिहास साक्षी है कि जो कुछ भी किया गया वह पाकृतिक सम्पदाओं को भौतिक रीति से प्रयोग करने के बारे में ही प्रयत्न किया।
जो भी योजनाएं बनी सबका एक ही ध्येय रहा कि हमें रोटी, कपड़ा और मकान नसीब हो। शिक्षण क्षेत्र में विकास भी भौतिक उपलब्धियों को पाप्त करने के लिए ही हुआ। वैद्यकीय क्षेत्र में विकास हुआ वह कम नहीं है, परन्तु उसका लक्ष्य भी शारीरिक व्याधि निवारण की ओर ही अधिक रहा। कारण कि उस क्षेत्र ने कभी यह सोचा ही नहीं कि व्याधि का मूल कारण क्या हो सकता है।
अब रही बात धार्मिक क्षेत्र की। उसको चाहिए था कि धर्म अर्थात् धारणा अर्थात् मूल्यों को अर्थात् शक्ति, पवित्रता, आनन्द,सादगी, निर्मानचित्त और सकारात्मक चिन्तन को मानव अपने अन्तर में धारण करें परन्तु ऐसा हुआ नहीं।
हुआ क्या? हुआ यह कि गत सदियों में एक तो हमें हमारी ही पहचान नहीं रही अर्थात् हम हैं कौन, इसका परिज्ञान हमें पाप्त नहीं हुआ और दूसरी बात कि मानव जीवन का लक्ष्य स्पष्ट नहीं रहा। मानव - जीवेम शरद शतम् (हम सौ साल जीयें), इस लक्ष्य को लेकर कई शारीरिक पकियाओं में व्यस्त रहा।
दूसरी तरफ पुनरपि जननं - पुनरपिमरणं के विचार को लेकर बाल्य - यौवन और मृत्यु के बीच जीता रहा। इन दिनों तो कभी कभी ऐसे भी लक्ष्य लेकर मनुष्य जीते हैं कि जब पैदा हुए हैं तो मरना तो है ही और मरने तक घर गृहस्थी के बीच कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काटते रहो।
अब करें क्या? एक तो हमें चाहिए कि हम अपने आपको जानें कि हम असुल में एक अजर, अमर चैतन्य आत्मा हैं। यह शरीर एक साधन है। इस साधन के माध्यम से मैं आत्मा सिद्धि स्वरूप बन सकती हूँ। दूसरा कि हम अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित करें कि हम इस ही जीवन में अतिमानस चेतना की जागृति कर गीता वर्णित भय एवं शोक से रहित विष्णु पद की वा नर-नारायण पद की पाप्ति करें। ऐसा पद पाप्त करने के लिए घर बार का, धन्धे-धोरी का, पढ़ाई-लिखाई का, गृहस्थ जीवन का त्याग किए बिना ही अपने लक्ष्य की पाप्ति करें।
इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी चेतना को, संकल्पों को सकारात्मक बनायें। उसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान चाहिए। वह ज्ञान अब स्वयं गीता के भगवान पजापिता ब्रह्मा के माध्यम से दे रहे हैं। इस ज्ञान से हम अपने को आत्मा समझ आत्मा की शक्तियों को जागृत कर सकेंगे। शक्ति जागृति अर्थात् जीवन मूल्यों का जीवन में प्रत्यक्षीकरण वा मूल्य जीवन में अर्थात् हमारे चलन और चेहरे में प्रत्यक्ष हों।
इस पकार यदि व्यक्ति अपने निजरूप को जानकर अपने जीवन को श्रेष्ठ लक्ष्य की ओर अग्रसर करे तो बूंद-बूंद से सागर के अनुसार व्यक्ति-व्यक्ति से एक मूल्यनिष्ठ समाज का उदय होगा। मूल्यनिष्ठ समाज का उदय ही रामराज्य का श्री गणेश है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।