महाशिवरात्रि ही ‘हीरे-तुल्य’ जयन्ती है

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संसार में जिस-किसी भी व्यक्ति का जन्म-दिन लोग मनाते हैं, उसकी जीवन-कहानी के बारे में भी वे थोड़ा-बहुत तो जानते ही हैं। उदाहरण के तौर पर विवेकानन्द या महात्मा बुद्ध की जयन्ती मनाने वाले लोग भी उनके जीवन-वृत्त को जानते हैं और उनके जन्मोत्सव के दिन उसका विशेष वर्णन करके वे उन महात्माओं के जीवन से गुण ग्रहण करने की चेष्टा भी करते हैं। परन्तु शिवरात्रि के दिन तो लोग केवल जागरण, उपवास तथा शिव की पूजा ही कर डालते हैं, वे शिव के अलौकिक जन्म और कर्तव्यों से तो अपरिचित ही हैं, वर्ना यदि वे काल-कंटक दूर करने वाले, सब भण्डारे भरपूर करने वाले, संकटमोचन शिव को जानते तो आज सबके भण्डारे भरपूर होते और संसार से काल-कंटक दूर होते।

आप देखते हैं कि शिव के जो चित्र मिलते हैं अथवा शिव की जो मूर्तियाँ स्थापित हुई-हुई हैं, वे अन्य सभी से विलक्षण हैं। वे पुरुष हैं, स्त्री रूप, बल्कि अंगुष्ठाकार, अण्डाकार अथवा बिन्दु का वृहदाकार हैं। अवश्य ही ‘शिव’ अन्य सभी माननीय व्यक्तियों से न्यारे ही कोई परम माननीय हैं। अतः प्रशन उता है कि शिव कौन हैं, उनका पूर्ण परिचय क्या है, उन्होंने कब और कैसे इस मनुष्यलोक में आकर कर्त्तव्य किये हैं? विवेकानन्द, बुद्ध आदि तो शरीरधारी व्यक्ति हुए हैं, उनके बारे में तो लोग जानते हैं कि उनके माता-पिता और शिक्षक आदि कौन थे और उन्होंने आज से कितने वर्ष पूर्व जन्म लिया, वे कितने वर्ष जीवित रहे तथा उन्होंने अपने जीवन-काल में क्या-क्या विशेष कर्तव्य किये। 


परन्तु, शिव की तो प्रतिमा ही गोल-सी बिन्दु रूप है, उसका तो कोई शारीरिक आकार ही नहीं है, उसके तो कोई माता-पिता या शिक्षक आदि नहीं थे, तब भला शिव ने कैसे जन्म लिया होगा, कौनसा साकार रूप धारण किया होगा और कैसे कर्त्तव्य किया होगा? मनुष्य को इस पहेली का हल जानना चाहिए। एक और विचारणीय बात यह है कि शिव के जन्मकाल को ‘शिवरात्रि’ नाम से लोग मनाते हैं। भला ‘रात्रि’ शब्द पर क्यों ज़ोर दिया गया है? यदि अन्य किसी महान् व्यक्ति का जन्म, रात्रिकाल में हुआ भी हो और मनाया भी जाता हो तो भी उसके जन्मोत्सव का नाम ‘शिवरात्रि’ की भांति ‘रात्रि’ शब्द को नहीं लिये रहता। 


अतः यह भी जानने योग्य रहस्य है कि शिव के प्रसंग में ‘रात्रि’ शब्द का क्या विशेष भाव और महत्त्व है और रात्रि शब्द पर क्यों ज़ोर दिया गया है। जबकि शिव प्रतिमा से विदित होता है कि शिव का कोई शारीरिक रूप नहीं है तो शिव के लिए दिन और रात का क्या भेद? पुनश्च, अन्य महान् व्यक्तियों के बारे में तो लोग यह भी जानते हैं कि उन्होंने शरीर कब और किन परिस्थितियों में या किस आयु में छोड़ा परन्तु शिव को लोग ‘अमरनाथ’, ‘अजन्मा’ तथा ‘मृत्युन्जय’ मानते हुए भी उसका जन्मोत्सव मनाते हैं, यह भला कैसे?

इसके अतिरिक्त आप देखेंगे कि विवेकानन्द, बुद्ध आदि के चार-छः से अधिक नाम नहीं हैं। परन्तु शिव, जिनके जन्म के उपलक्ष्य में शिवरात्रि मनाई जाती है, उसके सहस्त्रों नाम हैं, जैसे कि अमरनाथ, सोमनाथ, विश्वेश्वर, पशुपतिनाथ आदि-आदि। स्पष्ट है कि ये नाम गुणवाचक, कर्त्तव्यवाचक या परिचयवाचक हैं। ये सभी नाम ऐश्वर्य, शक्ति, उत्तमता और उच्च कर्तव्यों को बताने वाले हैं। अन्य किसी के भी पापकटेश्वर, मुक्तेश्वर, पशुपतिनाथ आदि ऐसे नाम नहीं हैं। भला इन नामों वाला शिव कौन है? उसका पूर्ण परिचय क्या है? जो ऐसा विलक्षण और न्यारा है, उसकी आश्चर्यजनक जीवन-कहानी को जानना तो चाहिए।

शिव के नामों से शिव का परिचय

शिव के जितने भी नाम हैं, वे सभी उसके स्वरूप का परिचय देते हैं। उदाहरण के तौर पर ‘पशुपति’ नाम को लीजिए। इस नाम से नेपाल में शिव का एक प्रमुख और अति प्रसिद्ध मन्दिर भी है। वहाँ के राजा और राजकुल के अन्य सभी लोग भी उस मन्दिर में स्थापित शिव को अपना इष्ट मानते हैं। भारत के लोग भी पशुपतिनाथ के मन्दिर के लिए भारत-नेपाल मैत्री के लक्ष्य से इस मन्दिर के लिए अपनी भेंट करते हैं। भला शिव को ‘पशुपति’ क्यों कहा गया है?

यहाँ ‘पशु’ शब्द गाय या भैंस-जैसे किसी पशु का वाचक नहीं है, बल्कि ‘आत्मा’ शब्द का वाचक है। भारत तथा विदेशों में जो शैव मत के लोग हैं, उनके मत में आत्मा को ‘पशु’ कहा गया है क्योंकि ‘पशु’ का अर्थ है ‘बन्धा हुआ’ और आत्मा चूंकि माया या प्रकृति के बन्धन में है, इसलिए ‘पशु’ है। 


परमात्मा शिव बन्धन से सदा मुक्त हैं और आत्माओं रूपी पशुओं को माया रूपी पाश से मुक्त करने वाले हैं, उनका गायन-पूजन है। इसलिए ही उन्हें ‘शिव’ भी कहा गया है, क्योंकि ‘शिव’ का अर्थ ‘कल्याण’ है और आत्मा का कल्याण या निस्तारा जिस द्वारा होता है वही ‘शिव’ हैं। उन्हीं शिव को ‘त्रिभुवनेश्वर’ अथवा ‘सर्वेश्वर’ भी कहा गया है। क्योंकि तीनों भुवनों या लोक में रहने वाले सर्व जीव-प्राणियों या देवी-देवताओं के एकमात्र ईश्वर या परम माननीय भी शिव ही हैं। अन्य सभी तो शरीरधारी हैं और ‘रचना’ हैं, शिव ही बिन्दु रूप, अशरीरी, तेजराशि और ‘रचयिता’ अथवा परमपिता हैं। अन्य सभी उनके वश में हैं, इसलिए उनका नाम ‘शिव’ है।

शिव की प्रतिमा बिन्दु के वृहदाकार वाली क्यों?

भारत के मन्दिरों में जब हम जाते हैं तो देखते हैं कि सभी देवताओं की पूजा मूर्तियों में होती है, लिंग में या बिन्दु रूप में नहीं। परन्तु शिव का स्मरण चिन्ह बिन्दु-जैसे आकार वाला होता है, भला ऐसा क्यों है? स्पष्ट है कि अन्य सभी देवी-देवता इत्यादि तो शरीरधारी हैं, वे अपने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार अपनी कोई काया लेते हैं परन्तु ‘शिव’ अशरीरी परमात्मा हैं, इसलिए उनका कोई कायिक रूप नहीं है।

ज्योति-बिन्दु शिव वास्तव में ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के भी रचयिता हैं, इसलिए उन्हें ‘त्रिमूर्ति’ कहा जाता है और ‘त्रयम्बकेश्वर’ भी। मुम्बई के निकट ऐलीफेन्टा में ‘त्रिमूर्ति’ नाम से जो उनका चित्र चित्रण मिलता है उनमें उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और शंकर, इन तीनों देवों के रचयिता के रूप में दिखाया गया है और उदयपुर में जो ‘एकनाथ’ का प्रसिद्ध मन्दिर है, उसमें भी ऊपर शिव और नीचे तीन देवों की प्रतिमा है। अतः ‘शिवरात्रि’ का त्योहार त्रिदेव के भी रचयिता स्वयं परमात्मा से सम्बन्धित उत्सव है। इतना उच्च है यह त्योहार!

अब प्रश उता है कि शिव ने आत्माओं रूपी पशुओं को माया के पाशों से कब मुक्त किया कि जिस कारण उनका नाम ‘पशुपति’ अथवा ‘मुक्तेश्वर’ हुआ। उन्होंने मनुष्यों के दुःखों को कब हरा कि वह ‘हर’ अथवा ‘दुःख-हर्त्ता’ कहलाये? उन्होंने संकटों को कब मिटाया और मनुष्यों के पापों को कब काटा कि वह ‘पाप-कटेश्वर’ अथवा ‘संकट-मोचन’ कहलाये?

स्पष्ट है कि उन्होंने यह कर्त्तव्य तब किया होगा जबकि सभी नर-नारी पापी अथवा पतित हो चुके होंगे और माया की जंजीरों में जकड़े हुए़ पशुओं की तरह अज्ञानी और बन्धे हुए होंगे तथा अत्यन्त दुःखी होंगे। ऐसा समय तो कलियुग का अन्तिम चरण ही होता है जबकि लोग धर्म-भ्रष्ट और कर्म-भ्रष्ट और योग-भ्रष्ट होते हैं और पशुओं के समान तुच्छ-बुद्धि होते हैं। अतः कलियुग के अन्त में ही परमपिता परमात्मा शिव ने संसार का कल्याण किया और सभी के दुःखों को हर कर उन्हें सुख दिया जिसके बाद सुख का युग अर्थात् सतयुग शुरू हुआ। जबकि शिव के बारे में उक्ति प्रसिद्ध है कि – शिव के भण्डारे भरपूर हैं और काल कंटक सब दूर हैं, तो अवश्य ही परमात्मा शिव ने कलियुग के अन्त में ही तो कर्त्तव्य किया होगा क्योंकि उसके बाद सतयुग में ही नर-नारी पापों से और दुःखों से मुक्त होते हैं और सभी के दर से काल-कंटक दूर होते हैं। अतः शिवरात्रि का त्योहार कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संगम समय ही से सम्बन्धित है।

‘रात्रि’ शब्द का भावार्थ और शिवरात्रि का महात्म्य

‘शिवरात्रि’ का त्योहार वास्तव में कोई दस-बारह घण्टे की रात्रि से सम्बन्धित नहीं है बल्कि अज्ञान रात्रि से सम्बन्धित है। आप जानते हैं कि रात्रि को अन्धकार छाया होता है, लोग सो जाते हैं, वे काम-विकार के भी वशीभूत होते हैं, रात्रि को चोर-डाकू भी लूट-मार मचाते हैं और तमोगुण का वातावरण होता है। अतः इस भावार्थ को लेकर द्वापरयुग और कलियुग को ‘रात्रि’ कहा गया है और सतयुग तथा त्रेतायुग को ‘दिन’। 

कलियुग के अन्त में सभी नर-नारी अज्ञान-निद्रा में सोये होते हैं, वे कामादि विकारों के वशीभूत होते हैं और तमोप्रधान अवस्था वाले होते हैं। अतः उन्हें ईश्वरीय ज्ञान देकर उनका कल्याण करने के लिए, उन्हें पाप से मुक्त करने तथा सुखी बनाने के लिए परमपिता परमात्मा शिव कलियुग के अन्त में अवतरित होते हैं। कलियुग के अन्त के उन वर्षों को ‘शिवरात्रि’ कहा गया है क्योंकि उस अज्ञान-रात्रि में शिव सभी के कल्याण का कार्य करते हैं। उस महारात्रि की याद में ही आज तक लोग पुराने वर्ष के अन्त में अमावस्या से एक दिन पहले जो अन्धेरी रात्रि पड़ती है, तब शिवरात्रि महोत्सव मनाते हैं।

शिव कर्तव्य कैसे करते हैं?

प्रश उता है कि शिव अशरीरी हैं और ज्योति-बिन्दु रूप हैं, वह इस मनुष्य-लोक में कल्याण करने का कर्त्तव्य कैसे करते हैं? वह इस लोक में जन्म कैसे लेते हैं?

इस विषय में जानने के योग्य बात यह है कि शिव तो ‘अजन्मा’ और ‘मृत्युन्जय’ माने गये हैं, वह तो देवों के भी देव अथवा ‘सर्वेश्वर’ हैं, अतः उनका जन्म किसी देवता या मनुष्य के रूप में नहीं होता। शिव तो कर्मातीत और सदा-मुक्त हैं, इसलिए वह नस-नाड़ी के बन्धन में नहीं आते। वह तो ‘महाकालेश्वर’ हैं, इसलिए वह बाल, युवा, वृद्ध अथवा जन्म-मरण रूप, काल के वश में भी नहीं होते।

हाँ, संसार-भर के नर-नारियों को मुक्त करने के लिए, भक्तों को अपना परिचय देने के लिए, लोगों को पापों तथा दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिए अर्थात् सतयुगी पावन तथा सुखी सृष्टि रचने के लिए, वह कलियुग के अन्त में एक साधारण मनुष्य के तन में प्रवेश अथवा सन्निवेश करते हैं जिसका नाम वह ‘प्रजापिता ब्रह्मा’ रखते हैं। उनके मुख से ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग की शिक्षा देकर वह मनुष्य को देवता बनाते हैं। इस प्रकार ही वह भारतवासियों का चारित्रिक नव-निर्माण करके सतयुगी दैवी सृष्टि की पुनः स्थापना करते हैं।

शिव पुराण में भी लिखा है कि भगवान् शिव ने कहा – मैं ब्रह्मा जी के ललाट से प्रगट होऊंगा। आगे लिखा है कि इस कथन के अनुसार समस्त संसार पर अनुग्रह करने के लिए शिव ब्रह्मा जी के ललाट से प्रगट हुए और उनका नाम ‘रुद्र’ हुआ। शिव पुराण में यह भी लिखा है कि – जब ब्रह्मा जी द्वारा सतयुगी सृष्टि रचने का कार्य तीव्रगति से नहीं हुआ और इस कारण वह निरुत्साहित थे, तब शिव ने ब्रह्मा जी की काया में प्रवेश किया, ब्रह्मा जी को पुनर्जीवित किया और उनके मुख द्वारा सृष्टि रची। 

शिव पुराण में अनेक बार यह उल्लेख आया है कि भगवान् शिव ने पहले प्रजापिता ब्रह्मा को रचा और फिर उस द्वारा सतयुगी सृष्टि को रचा। इस पौराणिक उल्लेख का भी यही भाव है कि परमपिता परमात्मा शिव, प्रजापिता ब्रह्मा के मस्तिष्क (ललाट) में अवतरित हुए और उसके मुख द्वारा ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग की शिक्षा देकर उन्होंने संसार का कल्याण किया।

संसार का कल्याण करने की ईश्वरीय युक्ति

कलियुग के अन्तिम चरण में, अज्ञान रूपी रात्रि में, जब परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होते हैं तब वे मनुष्यमात्र को यह शिक्षा देते हैं कि – काम-वासना का भोग एक जीव-घातक विष लेने के समान है जिससे कि मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का सर्वनाश होता है। अतः ज्ञान रूपी सोम अथवा अमृत पिलाकर परमपिता परमात्मा शिव, जिन्हें ही ‘सोमनाथ’ और ‘अमरनाथ’ भी कहा जाता है, इस संसार सागर से सारा विष हर लेते हैं। इसी कारण उन्हें ‘विष-हर’ भी कहा गया है।

परमात्मा शिव के उसी कर्त्तव्य की स्मृति में आज भी लोग जब शिवरात्रि का उत्सव मनाते हैं तब ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। वैसे भी जो शैव लोग प्रसिद्ध पाशुपत व्रत रखते हैं, वे नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। जो मनुष्य 12 वर्ष तक निरन्तर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे पाशुपत व्रत का बहुत फल मिलता है – ऐसी शैव लोगों की मान्यता है। 

पाशुपत व्रत रखने वाले शैव लोग ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के अतिरिक्त, शिव की याद में रहने का अभ्यास करते हैं तथा जो वस्तुयें उन्हें सर्वाधिक प्रिय हैं उन्हें शिव को अर्पण करते हैं और शिव की सेवा में रहने का पुरुषार्थ करते हैं – ये चार बातें मुख्य रूप से उनके व्रत में शामिल हैं।

वर्तमान समय शिवरात्रि का समय है अब विष को छोड़कर शिव से प्रीति जोड़ो

ऊपर हमने ‘रात्रि’ का जो अर्थ बताया है, उससे स्पष्ट है कि अब कलियुग का जो अन्तिम चरण चल रहा है, यह सारा काल ‘रात्रि’ अथवा ‘महारात्रि’ ही है। हम सभी नर-नारियों को यह शुभसन्देश देना चाहते हैं कि अब परमपिता परमात्मा शिव, संसार को पावन तथा सुखी बनाने के लिए फिर से प्रजापिता ब्रह्मा के तन में अवतरित होकर ज्ञानामृत पिला रहे हैं और वास्तविक सहज राजयोग भी सिखा रहे हैं। 

अतः हम सबका कर्त्तव्य है कि उनकी आज्ञानुसार हम नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करें और शिव के अर्पण होकर संसार की ज्ञान-सेवा करें। वास्तव में यही सच्चा ‘पाशुपत व्रत’ है जिसका फल मुक्ति और जीवनमुक्ति की प्राप्ति माना गया है। अब मनुष्य को चाहिए कि विकारों रूपी विष से नाता तोड़कर परमपिता परमात्मा शिव से वह अपना नाता जोड़े। 

वास्तव में शिवरात्रि केवल एक दिन नहीं होती बल्कि जब तक शिव परमात्मा इस अज्ञान-रात्रि में अपना कर्त्तव्य कर रहे हैं, यह सारा समय ही ‘शिवरात्रि’ है जिसमें कि मनुष्यात्मा को ज्ञान द्वारा ही जागरण मनाना चाहिए, शिव परमात्मा की स्मृति में स्थित होना चाहिए तथा ब्रह्मचर्य व्रत का सहर्ष पालन करना चाहिए। यही रीति शिवरात्रि का त्योहार मनाने की सच्ची रीति है।

शिवरात्रि ही हीरे-तुल्य जयन्ती है

चूँकि शिव ही ज्ञान के सागर, शान्ति के सागर, आनन्द के सागर, प्रेम के सागर, परमपिता परमात्मा हैं, जो कि कलियुग के अन्त में पशु-तुल्य आत्माओं को माया के पाशों से छुड़ाकर मुक्त करते हैं तथा ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग द्वारा मनुष्य को देवता बनाते तथा सतयुगी पावन सृष्टि की पुनः स्थापना कराते हैं, इसलिए ‘शिव जयन्ती’ ही सर्वोत्तम त्योहार है। 

यह सभी आत्माओं के परमपिता का जन्मोत्सव है जिसे सभी देशों में धूमधाम से मनाया जाना चाहिए। चूंकि शिव ही कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संगम समय सभी मनुष्यों का जन्म कौड़ी-तुल्य से बदल कर हीरे-तुल्य बनाते हैं, इसलिए शिवरात्रि ही हीरे-तुल्य जयन्ती है, अन्य सभी महात्माओं आदि के जन्म-दिन इस जयन्ती की तुलना में कौडी-तुल्य ही हैं क्योंकि उनसे सारे संसार में सतयुग आता है, ही दुःख और अशान्ति का अन्त होता है और ही सभी पावन होते हैं। 

परन्तु आज स्वयं भारतवासी भी शिवरात्रि के इस महात्म्य को नहीं जानते तो और देशों के लोग भला कैसे जानेंगे? भारतवासियों की अज्ञानता का यह हाल है कि अब शिव का अवतरण हो चुकने के बावजूद भी वे ज्ञानामृत पीकर विकार रूपी विष पी रहे हैं और, सबसे बड़ा पाप तो यह है कि बहुत-से लोग स्वयं को ‘शिव’ मानते हैं और ‘शिवोहम्’ की रट लगाते हैं!!

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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