शिव और शिवरात्रि की झलक – अतीत के झरोखे से

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आज स्वयं भारतदेश, जो शिव के प्रकट होने की भूमि है, में परमपिता परमात्मा शिव के बारे में अनेक मत हैं जो इस बात के परिचायक हैं कि परमपिता शिव के स्वरूप का ज्ञान आज प्रायः लुप्त हो चुका है। फिर भी यदि हम अतीत के झरोखे से दूरबीन तथा अणुवीक्षण यत्र लगाकर देखें तो शिव के स्वरूप के बारे में हमें कुछ टूटी लड़ियाँ, बिखरे बिन्दु, मिटते अवशेष अथवा धुंधले संकेत मिल जाते हैं। उनमें से कुछेक का विवढ़रण हम यहाँ दे रहे हैं

भूमि की खुदाइयों तथा पुराने ग्रन्थों द्वारा शिव की आकृति का परिचय

अभी तक भारत में जो पुरातात्विक उत्खनन किये गये हैं, उन द्वारा शिव के बारे में जो-कुछ उपलब्धियां हुई हैं, उन सभी में से आन्ध्रप्रदेश के गुडीमलम नामक स्थान से जो शिवलिंग प्राप्त हुआ है, उसे ही शिव का सर्वप्राचीन स्मरण-चिह्न माना जाता है। हम उसका चित्र यहाँ छाप रहे हैं। इस चित्र से यह स्पष्ट है कि यह गुडीमलम शिवलिंग आजकल मन्दिरों में रखे जाने वाले शिवलिंग से भिन्न आकृति वाला अण्डाकार ही है। इस प्रकार, पुरातात्विक दृष्टि से शिव के स्वरूप का अण्डाकार अथवा बिन्दु-जैसी आकृति वाला होना ही सिद्ध होता है। मालूम रहे कि इसके अतिरिक्त, भोलेढ़नाथ, ‘ॐकारलिंग’ आदि जितने भी शिवलिंग हैं, उन सभी की भी यही आकृति है। आज भी भक्त लोग जिस प्राकृतिक शिवलिंग की पूजा किया करते हैं, वे सभी अण्डाकार ही होते हैं। केवल उन पर जिस प्रकार का प्राकृतिक चित्र हो, उनका नाम हो जाता है।

जानकार लोगों का कथन है कि शिव की जो प्रतिमायें जलाधारी के समेत मिलती हैं अथवा मिली हैं उनमें से कोई भी सातवीं शती के पहले की नहीं है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सातवीं सदी के बाद ही शिवमन्दिरों में शिवलिंग को जलाधारी पर स्थित किया जाने लगा।

शिव के बारे में जो भी लिखित ग्रन्थ हैं, उनमें से ‘वृहत् संहिता’ ही पहला ऐसा ग्रन्थ है जिसमें शिवलिंग के साथ जलाधारी के संलग्न होने का वर्णन आता है। इससे पहले के सभी प्राचीनग्रन्थों में शिवलिंग के साथ जलाधारी का उल्लेख नहीं है। यदि हम ‘मनु-स्मृति’ का अवलोकन करें तो उसमें भी लिखा है कि सृष्टि का आरम्भ करने के लिए एक अण्डाकार ज्योति प्रकट हुई।

प्राचीन ग्रन्थों द्वारा शिवलिंग का शिव-प्रतिमा होना प्रमाणित

पुनश्च, प्राचीनग्रंथों में शिवलिंग की जो व्याख्या की गई है अथवा ‘लिंग’ शब्द का जो अर्थ दिया गया है उससे भी यह स्पष्ट है कि ‘शिवलिंग’ परमपिता परमात्मा ही की प्रतिमा है; यह किसी देवता का कोई शरीर-भाग नहीं है। उदाहरण के तौर पर ‘लिंग पुराण’ में लिखा है कि जो सृष्टि का संहार (लय) करता है और पुनः उसकी स्थापना और विकास करता है, उसे ‘लिंग’ कहते हैं। इसी प्रकार ‘तत्रलोक’ नामक प्राचीनग्रन्थ में कहा गया है कि  ‘लिंग’ शब्द सृष्टि का संहार और विकास करने वाले अविनाशी परमात्मा का बोधक है। जो विश्रान्त मन से उसका ध्यान करता है वही उस लिंग का अनुभव प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार ‘सौर-पुराण’ में कहा गया है कि लिंग आदि-मध्य-अन्त रहित है और भव रोग के रोगियों को दिव्य औषधि देने वाला है अर्थात् मोह में जकड़े लोगों को मुक्त करने वाला है। स्पष्ट है कि एक तो यह उल्लेख शिव के बिन्दु रूप होने का ही वाचक है क्योंकि बिन्दु ही आदि-मध्य-अन्त रहित है और शिव ही संसार के दुःख रूपी रोगों को हरने वाला है और, दूसरे, ये सभी वर्णन इस सत्यता को प्रमाणित करते हैं कि शिवलिंग अशरीरी परमात्मा की प्रतिमा है; इसे किसी देवता के शरीर-भाग का प्रतीक मानना मनुष्य की निरी अज्ञानता ही है। देखिये, सौर पुराण में आगे यह भी कहा है कि लिंग के मस्तक पर ऊंकार अंकित करके पूजा करें क्योंकि यह ओंकारेश्वर का चिह्न है। शिव पुराण में भी लिखा है कि सृष्टि का प्रारम्भ करने के लिए एक अद्भुत ज्योतिढलिंग प्रगट हुआ तो निश्चय ही यह ‘लिंग’ शब्द शरीर-भाग का वाचक नहीं है।

शिव ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तथा देवी के रचयिता का वाचक है

पुनश्च, शिवोपनिषद खूब ऊंचे-ऊंचे स्वर में गा रहा है कि शिवलिंग ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रचयिता, तीनों लोकों के स्वामी का प्रतीक है जिसमें कि शिव-वत्स (स्कन्ध) और देवी भी सम्मिलित हैं इन विवरणों से यह भी स्पष्ट है कि शिव, शंकर से भिन्न हैं और त्रिदेव के तथा देवी के भी रचयिता हैं। जिन्होंने इस विषय में शोध कार्य किया है, वे इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि पुराणों में शिवलिंग ही के रूप में शिव की पूजा पर बल दिया गया है। उनकी मान्यता है कि शिव को त्रिशूलधारी शंकर के रूप में पूजने की प्रथा बाद में शुरू हुई। जब वैष्णवों द्वारा अलंकारयुक्त विष्णु की पूजा बहुत प्रचलित हो गई तब ही जटाओं में गंगा, मस्तक पर चन्द्रमा और हाथों में त्रिशूल लिए हुए शंकर की पूजा आरम्भ हो गई। वर्ना पहले तो शिवलिंग ही की पूजा होती थी।

इसके अतिरिक्त दक्षिण भारत में सर्वप्रथम शिवलिंग की पूजा करने वाले लोगों, जिन्हें ‘वीर-शैव’ या ‘लिंगायत’ कहा जाता है, में आज तक भी यही रिवाज है कि एक छोटे-से अण्डाकार शिवलिंग को अपने जनेऊ के साथ बान्धकर सदा अपने शरीर पर धारण किये रहते हैं। यह प्रथा भी इस बात को सिद्ध करती है कि प्रारम्भ में अण्डाकार प्रतिमा के रूप में ही शिव का पूजन होता था और बहुत बाद में ही शिव और शंकर को एक मान लिया गया।

फिर, व्याकरण में तथा दार्शनिक ग्रन्थों में ‘लिंग’ शब्द का जो अर्थ दिया गया है, उससे भी स्पष्ट है कि शिवलिंग ही शिव की प्रतिमा है और शंकर की अपनी मूर्ति अलग है। उदाहरण के तौर पर ‘वैशेषिक दर्शन’ के अनेक सूत्रों (48, 75, 78, 105, 143, 346) में ‘लिंग’ शब्द का प्रयोग चिह्न के अर्थ में तथा निराकार परमात्मा के प्रतीक के लिए प्रयोग हुआ है। वेदान्त सूत्रों (1/1/23; 1/1/31; 1/4/16; 2/3/13; 3/2/11 इत्यादि) में बारह से भी अधिक बार ‘लिंग’ शब्द का प्रयोग लक्षण के अर्थ में हुआ है। इसी अर्थ में ही इसका प्रयोग ‘न्याय दर्शन’ (1/16) में भी हुआ है। इन सभी से सिद्ध है कि अण्डाकार प्रतीक, जो शिवलिंग के नाम से जाना जाता है, परमात्मा शिव के रूप की प्रतिमा है और शंकर की प्रतिमा इससे बिल्कुल अलग, सावयव अर्थात् सशरीर है। ‘लिंग’ शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है और संस्कृत के प्राचीन शब्दकोष में इसका अर्थ मेदनी कोषकार ने कहा है कि ‘लिंग’ शब्द का प्रयोग विशेष रूप से शिव-मूर्ति के लिए होता है और इसके अतिरिक्त ‘चिह्न’, ‘अनुमान’ आदि के लिए भी, परन्तु शरीर-भाग के लिए तो इसका प्रयोग गौण ही है। इन सभी से सिद्ध होता है कि ‘लिंग’ शब्द ‘शिव प्रतिमा’ या प्रभु ‘चिह्न’ का वाचक होने से शिवलिंग त्रिदेव-रचयिता शिव की ही प्रतिमा है और शंकर की शारीरिक आकृति वाली मूर्त्ति इससे अलग है।

प्राचीन मन्दिर एवं कलाकृतियाँ इस सत्यता की साक्षी

एलीफेन्टा की ग़ुफा में जो विश्व-प्रसिद्ध कलाकृतियाँ हैं, वे स्वयं इस सत्यता का प्रबल प्रमाण हैं कि शिव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर के भी ‘रचयिता’ हैं। एलीफेन्टा में ‘त्रिमूर्ति’ नामक जो विख्यात पाषाण मूर्ति है वह भी इस बात के लिए साक्षी है कि शिव और शंकर का तादात्म्य करना अर्थात् उन्हें एक मानना भूल है।

इसी प्रकार उदयपुर में ‘एकलिंग’ मन्दिर में भी बीच में शिवलिंग है और उसके तीन और ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर की आकृतियाँ हैं और चौथी ओर सूर्य का रूप है जोकि इस सत्यता का परिचायक है कि शिव ज्ञानसूर्य है, वे अज्ञान-अन्धकार मिटाने वाले हैं तथा त्रिदेव के रचयिता स्वयं बिन्दु-आकार वाले हैं। 

शिवरात्रि का त्योहार

यह सर्व विदित है कि शिवरात्रि का त्योहार फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को मनाया जाता है। वास्तव में प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ब्रह्मा के एक चक्र के अन्त से थोड़ा पहले ही के समय का प्रतीक है। उपनिषदों में एक प्रश्न आता है जिसके उत्तर में कहा गया है – ‘संवतसरो वै प्रजापतिः’ अर्थात् संवतसर ही प्रजापति है यानि ब्रह्मा भी काल के अन्तर्गत ही सृष्टि करता है। इस वाक्य को लेकर विद्वान लोग कहते हैं कि फाल्गुन मास संवतसर अर्थात् वर्ष के अन्त का प्रतीक होने के कारण ब्रह्मा के चक्र के अन्त का सूचक है और कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि उस चक्रान्त से थोड़े ही पहले के अन्धकारमय (अज्ञानमय) समय की सूचक है। वैसे भी शास्त्रवादी लोग मानते हैं कि भारतीय दर्शन में ‘अमावस्या’ प्रलय की सूचक है क्योंकि स्वयं मनु ने भी कहा है कि महाविनाश के समय इतना अन्धकार हो गया कि चन्द्रमा भी दिखाई नहीं दे रहा था। अतः फाल्गुन मास की अमावस्या कलियुग के अन्त के उस समय की सूचक है जिसमें कि मनुष्य घोर अज्ञानान्धकार में होता है। इसमें चतुर्दशी तिथि इस बात की सूचक है कि जब ज्ञान का पूर्ण लोप नहीं हुआ होता बल्कि उसकी थोड़ी-सी कला रह गई होती है, तब ऐसे अन्धकार के समय शिव ही ज्ञान-प्रकाश देते अथवा ज्ञान सोम देते हैं। बाद में जब लोगों ने शिव और शंकर को एक मान लिया तो शंकर के मस्तक पर एक कला वाला चन्द्रमा दिखाना शुरू कर दिया। वास्तव में चन्द्रमा का सम्बन्ध शिव ही से होना चाहिए क्योंकि यह इस बात की सूचक है कि ज्योतिस्वरूप शिव का अवतरण कलियुग के अन्त में ब्रह्मा की आत्मिक जागृति के लिए और उस द्वारा ज्ञान-सोम पिलाकर नई पवित्र सृष्टि की स्थापना के लिए होता है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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