शिव, ब्रह्मा और शिवरात्रि

0



भारत के प्राचीन संस्कृत साहित्य में लिंग शब्द का प्रयोग 99.99% प्रतीक अथवा चिह्न के अर्थ में ही हुआ है। अतः शिवलिंग से शिव के प्रतीक अथवा ‘शिव-प्रतिमा’ ही का बोध होता है। परन्तु जिन्होंने पृथ्वी का उत्खनन किया है अथवा पुराने खण्डरात या भग्नावशेषों का अध्ययन किया है, उन्हें पाश्चात्य देशों में, जैसेकि रोम में और उसके आसपास के देशों में कुछ वाममार्गीय पूजा के प्रतीक भी मिले हैं। पाश्चात्य विद्वान वेस्ट्रोप और केनेडी इत्यादि ने अपनी पुस्तकों में यह मत प्रकट किया कि आयरलैण्ड, इंग्लैण्ड, ग्रीस, रोम, असीरिया, अमेरिका, जर्मनी आदि में वामढ़मार्गी लोग थे। वहाँ जो प्रतीक मिलते हैं, उनकी आकृति शिवलिंग से भिन्न है। वहाँ के कुछ लोग पत्थर की उस आकृति के सामने बैकर टोना-टोटका करते थे। इन विद्वानों के लेखों को प्रामाणिक मानकर भारत के प्रसिद्ध विद्वान गोपीनाथ राव ने भी यही मान लिया कि शिवलिंग की पूजा वाम-मार्गीय है। उन्होंने इस बात को एक ओर ही रख लिया कि भारत में जो प्राचीन शिवलिंग मिलते हैं, उनकी आकृति उपरोक्त पाश्चात्य देशों के प्रतीकों से भिन्न है और यहाँ जो शिव-पूजा होती है, उसका जो विधि-विधान है उसमें अश्लील भावना की कहीं आशंका भी नहीं है। भारतीय सभ्यता और संस्कार का तो आधार ही इन्द्रिय संयम और ब्रह्मचर्य है।

शिवलिंग के बारे में भ्रान्ति

वास्तव में हमारे विचार में, शिवलिंग की पूजा को अश्लील अथवा वाम-मार्गीय मानने के दो कारण हैं। एक तो इसमें ‘लिंग’ शब्द का प्रयोग है। सभी प्राचीन संस्कृत शब्दकोष कहते हैं कि लिंग शब्द का अर्थ ‘प्रतीक’ है। दक्षिण भारत में तो आज तक भी शिवलिंग शब्द शिव-प्रतिमा ही के अर्थ में प्रयोग होता है और वहाँ लिंग शब्द को अश्लीलता या वाम-मार्ग के साथ बिल्कुल ही नहीं जोड़ा जाता। बल्कि वहाँ आज भी अनेक लोंगों के नाम ‘लिंगराज’, ‘लिंगस्वामी’ आदि होते हैं। उत्तर भारत में ‘लिंग’ शब्द कहीं-कहीं सारे शरीर के लिए और कहीं पुरुष के शरीर-भाग के लिए प्रयोग होता है। जैसे शिष्ट लोग ‘संडास’, ‘टट्टीखाना’, ‘पायखाना’ आदि शब्दों का प्रयोग कर ‘शौचालय’ शब्द का प्रयोग करते हैं और अंग्रेजी में भी ‘लेट्रिन’, यूरीनल आदि शब्दों को व्यवहार कर ‘टायलेट्स’ या ‘एमेनिटीस्’ आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं, वैसे ही चूंकि यह शब्द प्रतीक का अर्थ लिए हुए है और यह इन्द्रिय पुरुष की विशेष है, इसलिए शिष्ट लोगों ने पुरुष के इस शरीर भाग के लिए केवल ‘इन्द्रिय’ शब्द या ‘लिंग’ शब्द का प्रयोग करना शुरू कर दिया जिससे आगे चलकर लोगों में भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी।

दूसरा कारण यह है कि चित्रकारों ने शिव को पुरुष रूप में चित्रित करना शुरू किया अथवा ‘शिव’ और ‘शंकर’ को एक मान लिया। चित्रकारों को यह भाव व्यक्त करने थे कि शिव ज्ञान-चक्षु वाले हैं, वे ‘धर्म’ आरूढ़ अथवा स्वधर्म-स्थित हैं, वे त्रिताप को हरने वाले हैं, वे ज्ञान-गंगा धारण किये हुए हैं आदि-आदि; इन सभी भावों को चित्रित करने के लिए उन्होंने शिव को पुरुष रूप देकर, मस्तक में तीसरा नेत्र दिया, बैल पर उनकी सवारी दिखाकर उन्हें धर्म-स्थित अंकित किया, उनके हाथ में त्रिशूल देकर उन्हें त्रिताप-हारी (हर-हर) प्रगट किया और सिर पर गंगा चित्रित करके उन्हें ‘गंगाधर’ व्यक्त किया। फिर शिवलिंग को इसी शंकर का प्रतीक मानकर वाममार्गीय पूजा मान लिया! अतः ये मानव मात्र की अज्ञानता ही है कि उन्होंने ऐसा किया।

शिवलिंग शिव ही का प्रतीक

वस्तुतः प्राचीन अनेक ग्रन्थों में ‘लिंग’ शब्द का अर्थ स्पष्ट किया हुआ है। उदाहरण के तौर पर कश्मीर के प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान अभिनव गुप्त ने ‘तत्रलोक’ में स्पष्ट कहा है

लिंग शब्दनेन विद्वांनः सृष्टि संहारकारणम्।

लयादागमनात् चाहुर्भावानां पदम व्ययम्।।

अर्थात् विद्वान कहते हैं कि लिंग शब्द से सृष्टि के संहार और उत्पत्ति का बोध होता है।

इसी प्रकार अन्यत्र कहा गया है कि जो सृष्टि का संहार कराता है और पुनः उसकी सृष्टि कराता है, उसे लिंग कहते हैं

लयं गच्छन्ति भूतानि संहारे निखिलं यतः।

सृष्टि काले पुनः सृष्टिस्तस्माल्लिंगमुदाह्यतम्।।

एक जगह तो स्पष्ट ही कहा गया है कि परे से परे जो परमात्मा है वही ‘लिंग’ है

परात्परं परमात्मकलिंगम् (लिंगाष्टक स्तोत्रम्)

अतः हमें यह स्पष्ट मालूम होना चाहिए कि शिवलिंग परमात्मा शिव ही का प्रतीक है और शिवरात्रि परमपिता शिव के प्रजापिता ब्रह्मा के तन में दिव्य अवतरण का वाचक है।

ब्रह्मा के बारे में भ्रान्ति



ऊपर हमने प्राचीन ग्रन्थों से उद्धरण देकर स्पष्ट किया है कि लिंग शब्द वास्तव में परमात्मा ‘शिव’ अथवा उसके प्रतीक का वाचक है और कि उसके विषय में जो लोग वाम-मार्ग की भावना रखते हैं वे भ्रान्ति में हैं। ऐसी ही अनेक भ्रान्तियाँ ब्रह्मा के बारे में हैं। ब्रह्मा की चार मुखों वाली प्रतिमाएं देखकर लोग समझते हैं कि ब्रह्मा जी चार मुखों वाले थे। परन्तु जिन शास्त्रों को वे मानते हैं, स्वयं उनमें ही ‘चार मुखों’ की जो व्याख्या की गयी है, उसे समझाने से वे इस भ्रान्ति का शिकार होने से बच सकते हैं। इनके चतुर्मुख की एक व्याख्या इस प्रकार की गयी है

त्र+ग्वेदादिप्रभेदेन कृतादियुगभेदतः।

विप्रदिवर्णभेदेन चतुवत्रं चतुर्भुजम्।।

अर्थात् त्र+ग्वेदादि चारों वेद, कृत इत्यादि चारों युग और ब्राह्मणादि चारों वर्णों के प्रतीक इनके चारों मुख और चारों भुजाएं हैं। स्पष्ट है कि चूंकि ब्रह्मा नाम वाली आत्मा को चारों युगों में इस सृष्टि-मंच पर पार्ट अथवा काम एवं कर्म होता है तथा चूंकि इनके द्वारा दिये गये ज्ञान को धारण करने या करने के आधार पर ही चार वर्ण बनते हैं, इसलिए ही इनके चार मुख और इनकी चार भुजायें दिखाई जाती हैं। पुनश्च, ब्रह्मा जी द्वारा परमात्मा शिव ने चार विषय पढ़ाये (1) ईश्वरीय ज्ञान (2) सहज राजयोग       (3) दिव्यगुणों की धारणा और (4) ईश्वरीय सेवा। वास्तव में यही चार विद्याएं ही चार वेद हैं परन्तु बाद में लोगों ने त्र+प् आदि ग्रन्थों को चार वेद मान लिया और यह समझ लिया कि ब्रह्मा जी ने यही चार वेद पढ़ाये थे। अन्यत्र ब्रह्मा जी के चार मुखों की व्याख्या करते हुए कहा है

अरुणादित्यसंकाश्र चतुर्वत्रं चतुर्मुखम्।

यतुर्वेदमयं देवं धर्मकामार्थमोक्षदम्।।

अर्थात् ब्रह्मा के बाल सूर्य के समान हैं और चार सिर तथा चार मुख धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के देने वाले हैं। दूसरे शब्दों में हम यों कह सकते हैं कि ब्रह्मा जी द्वारा चारों वरदानों की प्राप्ति होती है इसलिए उन्हें चतुर्मुखी चित्रित किया जाता है।

ब्रह्मा जी के चार हाथों में से एक में पुस्तक, दूसरे में माला, तीसरे में कमण्डल और चौथे में चारुपात्र दिखाया जाता है। पुस्तक वास्तव में ‘ज्ञान’ का प्रतीक है, ‘माला’ ईश्वरीय स्मृति का, ‘कमण्डल’ अमृत का अथवा स्वच्छता एवं पवित्रता का और ‘चारुपात्र’ यज्ञ का अथवा ‘स्वाहा’ का। इन प्रतीकों से भी स्पष्ट है कि ब्रह्मा जी के ज्ञान, पवित्रता,त्याग तथा ईश्वरीय स्मृति के कारण अथवा इनके द्वारा इनकी शिक्षा दिये जाने के कारण ही इनके चार हाथ दिखाये जाते हैं। उन द्वारा यह कार्य कराया परमपिता परमात्मा शिव ने ही, यह बात लोगों को ज्ञात नहीं है। वे मानते हैं कि ब्रह्मा जी तो देवता हैं, वे मनुष्य रूप में नहीं थे। परन्तु उन्हें मालूम होना चाहिए कि शास्त्रों में शिव के ‘पशुपति’ नाम की व्याख्या करते हुए पहले तो यह कहा गया है कि सभी जीव पशु हैं और शिव पशुपति हैं और फिर यह कहा गया है कि ब्रह्मा भी ‘पशु’ हैं।

पशुपितिरहंकाराविष्ट; संसारी जीवः एव पशुः।

सर्वज्ञः पन्चकृत्यसम्पन्नः सर्वेश्वर ईशः पशुपतिः।

के पशव इति पुनः सः तमुवाच जीवाः पशवः उक्ताः।

तत्पतित्वात्पशुपतिः।...

अर्थात् अहंकार से घिरा हुआ संसारी जीव ‘पशु’ है। सर्वज्ञ, पन्चकृत्य सम्पन्न, सर्वेश्वर, ईश पशुपति हैं। कोप पशु है, अतः इसके अधीन जीव पशु हैं। इन जीवों का स्वामी ‘पशुपति’ हैं। अत इसके अधीन जीव पशु हैं। उनसे पूछा गया कि जीव क्यों पशु है? तो उन्होंने उत्तर दिया

तृणाशिनों विवेढ़कहीनाः परप्रेष्याः कृष्यादिकर्मसुनियुक्तः सकलदुःखसहाः स्वस्वामिनध्यताना गवादयः पशवः। यथा तत्स्वामिन सर्वज्ञ ईशः पशुपतिः।।

अर्थात् जिस प्रकार तृण या घास खाने वाले, विवेकहीन, दूसरों से काम में लिए जाने वाले, खेतीबाड़ी के काम में जोते जाने वाले, सब प्रकार का दुःख सहने वाले, अपने स्वामी से बांधे जाने वाले पशु हैं, इसी प्रकार जीव पशु हैं और उनका स्वामी ‘परमात्मा’ पशुपति है।

इस प्रकार ‘पशु’ की व्याख्या करने के बाद अब ब्रह्मा जी के बारे में कहा है कि वे भी ‘पशु’ अर्थात् बद्ध जीव हैं

ब्रह्माद्यास्थावरान्ताश्च पशवः परिकीर्तिताः।

तेषां पतित्वाद्विश्वेषः भवः पशुपति स्मृतः।।

अर्थात् ब्रह्मा से लेकर अचल वस्तुओं तक सभी ‘पशु’ हैं। उनका पति होने के कारण तमः प्रधान जीवों को भी पशु कहा गया है। परमात्मा उनके स्वामी होने से पशुपति हैं।

स्पष्ट है कि प्रजापिता ब्रह्मा भी मुक्ति एवं जीवनमुक्ति प्राप्त करने से पूर्व एक साधारण मनुष्य थे जो अपने कर्मों के बन्धन में बन्धे हुए थे और विकारों के अधीन थे और ज्ञान अथवा विवेक से रहित थे। तब परमपिता शिव ने उन द्वारा संसार को चार प्रकार की विद्या दी, उससे फिर से चतुर्युग का चक्र चला। शिवरात्रि उसी वृत्तान्त की सूचक है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top