शिवरात्रि का त्योहार विश्व के इतिहास की याद दिलाता है

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शिवरात्रि का त्योहार आने पर एक बार फिर इतिहास के पन्ने आंखों के सामने से चित्रपट की फिल्म की तरह से घूमने लगते हैं। इतिहास का सिंहावलोकन करने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि परमपिता परमात्मा शिव ही विश्व के इतिहास की धुरी अथवा केन्द्र-बिन्दु हैं। यदि हम भारत के प्राचीन कथा-साहित्य, जिसे भारत के कई लोग ‘पुराण’ और ‘इतिहास’ मानते हैं, ।कर देखें तो उसका प्रारम्भ इसी कथन से होता है कि जब संसार का महाविनाश हुआ और विश्व का एक बहुत बड़ा भाग जल-मग्न था, तब एक अण्डाकार प्रकाश (शिव) प्रगट हुआ जिसका पार पाने के लिए ब्रह्मा जी की होड़ लग गई। अन्ते उस ज्योति-स्वरूप शिव ने अपना परिचय स्वयं ही दिया और ब्रह्मा जी को कहा कि वे सृष्टि के नव-निर्माण के कार्य के निमित्त बनें। कथाकारों ने इस वृत्तान्त को कथा की शैली में अर्थात् इसमें कौतुक, रोचकता, कल्पना , किंवदन्ती, अतिशयोक्ति, अतिरंजना इत्यादि का पुट देकर कहा है। परन्तु इसका यह भाव तो ही है कि जब पुरानी सृष्टि का महाविनाश हो रहा था और नई सृष्टि का अभ्युदय होने जा रहा था तब परमपिता परमात्मा शिव ने जन-मानस को अपने रूप अनूप का दिव्य साक्षात्कार कराया था। गोया इतिहास का प्रारम्भ शिव परमात्मा ही के आदेश-निर्देश-उपदेश से हुआ।

दिव्य भाषा का उद्गम शिव से

इसी प्रकार, भाषा का इतिहास लिखने वाले लोग भी कहते हैं कि दिव्य-भाषा (देव भाषा) का प्रारम्भ शिव ही ने ‘डमरू’ बजाकर सृष्टि के प्रारम्भ में अगम-निगम का भेद खोला था। स्पष्टतः ‘डमरू’ शब्द तो यहाँ भाषा में प्रयुक्त होने वाला अलंकार है; भाव तो यही है कि मनुष्य को दिव्यता तथा आध्यात्मिकता परमात्मा शिव ही ने सिखाई थी।

प्राचीन धर्म-पुस्तकों में भी शिव ही की महिमा

यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों की पुरानी धर्म-पुस्तक बाईबिल का प्रारम्भ भी ऐसे ही होता है। यद्यपि सृष्टि-संरचना की प्रक्रिया, जो उसमें बताई गई है, मान्य नहीं है, तथापि यह बात तो है कि आदिकाल में परमात्मा ने ही आदम और हव्वा (ब्रह्मा और सरस्वती) को जन्म दिया था और इस सृष्टि को स्वर्गमय बनाया। सृष्टि के इस सर्वप्रथम वृत्तान्त को बाद का मनुष्य पूर्णतया सत्य बताने में तो असमर्थ ही है किन्तु समूचे उल्लेख का यह सार है कि भगवान् ने ही आदम और ईव (ब्रह्मा और सरस्वती) को जन्म दिया। फिर, भगवान् का नाम ‘जिहोवा’ बताया गया है जो कि ‘शिव’ शब्द ही का रूपान्तर मालूम होता है। जैसे संस्कृत के ‘पितृ’, ‘मातृ’, ‘भ्रातृ’ इत्यादि शब्दों ने फ़ारसी भाषा में ‘पिदर’, ‘मादर’, ‘ब्रादर’ रूप ले लिया और आगे जाकर यूरोपीय भाषाओं में ‘फादर’, ‘मदर’, ‘ब्रदर’ इत्यादि रूप धारण किया, वैसे ही ‘शिव’ शब्द ने भी कदचित ‘जिहोवा’ शब्द का रूप ले लिया होगा।

सतयुग और त्रेता के बाद धीरे-धीरे जब यह संसार अपनी पवित्रता, सुख तथा शान्ति की कलाओं को गंवाते-गंवाते, कल्पार्द्ध समाप्त होने पर, पतनोन्मुख हुआ तब भी लोगों ने परमात्मा की इसी दिव्य नाम-रूप ही से पूजा प्रारम्भ की। जैसा कि हम कह आये हैं, जब धार्मिक ग्रन्थ लिखे जाने लगे, तब ‘शिव’ ही को अगम-निगम का भेद बताने वाला माना गया। स्कन्द पुराण, मत्स्य पुराण, लिंग पुराण, ब्रह्मण्ड पुराण, महाभारत इत्यादि सभी में शिव की महिमा का वर्णन है। समस्त ज्ञान का उद्गम शिव से तथा ब्रह्मा ही से हुआ – ऐसा मानकर ही आध्यात्मिक ज्ञान के संवाद बनाये गये। वेदों ने भी नमः शम्भावायच..... नमः शिवायच.... इत्यादि मत्रों द्वारा शिव ही की आराधना, संध्या, प्रार्थना इत्यादि के लिए मंत्र, त्र+चाएं इत्यादि लोगों को दीं। पूजा के लिए भी सर्वप्रथम शिवलिंग ही स्थापित किये गये।

प्रसिद्ध कवियों और लेखकों द्वारा शिव-महिमा

स्वयं विक्रमादित्य जिसके नाम से आज एक संवत चला रहा है, शिव-पूजक था। इतिहासकार कहते हैं कि विक्रमादित्य उज्जैन में महाकाल शिव की पूजा किया करता था। भारत का सर्वोच्च कवि कालिदास भी शिव का पुजारी था। कालिदास ने ‘मेघदूत’ और ‘रघुवंश’ दोनों में महाकाल की स्तुति की है। भास, भवभूति, पद्मगुप्त इत्यादि ने भी अपनी-अपनी कृतियों में शिव ही की महिमा गाई है। सांख्य दर्शन की कारिका लिखने वाले विद्वान शिव ही को मानते थे। विषन लोग पातंजलि के योग दर्शन को भी शिव के उपासकों ही की कृति मानते हैं क्योंकि उसमें परमात्मा को ‘सर्वव्यापक’ कहकर, ‘पुरुष विशेष’ माना गया है, उसका एक धर्म भी माना गया है तथा उसे ज्योतिस्वरूप बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता पर आज जो सबसे पुरानी टीका लिखी मिलती है, उसके लेखक अभिनव गुप्त भी शिव ही के आराधक थे। प्रसिद्ध राजा भोज को तथा राजा भर्तृहरि को भी शिव ही का उपासक माना जाता है। मोहन जोदड़ो की खुदाइयों से भी शिव, नन्दीगण और कल्प वृक्ष के चिह्न मिले हैं। कहाँ तक गिनायें, पुराने समस्त साहित्य पर शिव नाम ही की छाप है। प्राचीन ग्रंथों में तो यहाँ तक लिख दिया गया है कि राम ने भी महाकाल का स्मरण किया और कृष्ण ने भी ‘वन्दे महाकालमहं सुरेशम्’ कहकर नित्य शिव को याद किया। बाद में जब लोगों ने शिवलिंग के बारे में अश्लील कहानियाँ गढ़ीं और लोगों ने विष्णु को भगवान् मानना शुरू किया तब ही मतभेद, वाद-विवाद और फ़साद शुरू हुए और लोग भ्रान्ति-वश लिंग पूजा को ‘शिश्न पूजा’ मानकर इसे वर्जित बताने लगे। परन्तु फिर भी भक्त लोग परमात्मा का नाम ‘शिव’ और उसका रूप ओले की तरह अथवा अंगुष्ठ की भान्ति मानते हुए ‘ओम् नमो शिवाय’ ही का मत्र जपते रहे। उसे ही ‘पितु-मातु-सहायक, स्वामी, सखा’ तथा ‘एक नाथ’ मानते रहे।

बाइर्बिल में भी जो सब से पहला धर्म – यहूदी धर्म बताया गया है, उसका सबसे पहला ‘पैग़म्बर’ मूसा भी ‘जिहोवा’ ही को परमात्मा मानता था और उसको ‘दीपक की लौ’ ही की तरह उसके दिव्य रूप का साक्षात्कार हुआ था। बाईबिल में यहूदियों का जितना इतिहास लिखा है, वह ‘जिहोवा’ ही से सम्बन्धित है। बाद में इब्राहिम, जिसे यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों मत अपना एक पैगम्बर मानते हैं, ने भी मक्का में अपनी पत्नी तथा पुत्र (इस्माईल) के लिए जो ‘काबा’ (भगवान् की पूजा का स्थान) बनाया था, उसमें भी ‘शिव’ ही का स्मरण-चिह्न था – ऐसा कुछ इतिहासकारों अथवा शोध-कार्य करने वालों का दावा है।

 ‘संगे-असवद’, ‘अल्लाह’ और ‘हज़’ शब्द

कम-से-कम यह सब तो सभी मानते हैं कि ‘काबा’ पर जब हज़रत मुहम्मद साहिब ने अधिकार स्थापित कर लिया, तब वहाँ का बुत-कदा (मूर्ति-मन्दिर) तोड़ दिया गया परन्तु फिर भी वहाँ ‘संगे-असवद’ (जोकि हज़रत इब्राहिम के समय से चला आता था और जो कि शिवलिंग ही का प्रारूप है) को रहने दिया गया और तब से लेकर आज तक सभी यात्री उसके प्रति स्नेह और सम्मान व्यक्त करते हैं। संसार में अन्य किसी भी मस्जिद की परिक्रमा नहीं की जाती; केवल मक्का में काबा, जिसमें संगे असवद है, उसी की सात बार परिक्रमा की जाती है। अतः यह रिवाज भी भारतीय ही है क्योंकि विश्व भर में केवल यहीं के लोग मन्दिरों में मूर्ति-स्थान की परिक्रमा करते हैं।

फिर, हज़ के समय हर यात्री जो वेष अथवा परिधान धारण करता है उसमें वह एक चादर को तहढ़मत (धोती) की तरह प्रयोग करता है, दूसरी से तन ढक लेता है। विज्ञ लोगों का कहना है कि यह भी भारत में मन्दिरों में जाने वाले भक्तों की ही प्राचीन परम्परा है क्योंकि भक्त भी बिना सिलाई किया कपड़ा (धोती) ही तन पर लेकर भक्ति करते थे।

कुछ संस्कृत जानने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि ‘हज़’ शब्द भी संस्कृत के ‘व्रज’ शब्द का अपभ्रंश है। संस्कृत में ‘व्रज’ शब्द का अर्थ भी ‘यात्रा’ है और इसी ‘व्रज’ शब्द से ही ‘परिव्राजक’ शब्द बना है जिसका अर्थ होता है यात्रा करते रहने वाला। संस्कृतज्ञ कहते हैं कि ‘ईद’ शब्द भी संस्कृत के ‘ईड’ शब्द का अपभ्रंश है और ‘अल्लाह’ शब्द तो शुद्ध संस्कृत ही का है। संस्कृत में ‘ईड’ शब्द का अर्थ ‘पूजा’ है और मुसलमानों के यहाँ भी ‘ईद’ एक विशेष प्रभु-स्मृति दिवस तथा आनन्दोत्सव है। इसी प्रकार ‘अल्लाह’ या ‘अल्लः’ शब्द संस्कृत में ‘माता’ के अर्थ में प्रयोग होता है। देवी की पूजा करते समय, उसे ‘माता’ कहने के लिए संस्कृत ग्रन्थों में ‘अल्लः’ शब्द का प्रयोग हुआ बताते हैं और मुसलमान लोग भी ‘अल्लाह’ को मातृत्व दयालु मानते हैं। भारत में भी शिव को त्वमेव माता पिता त्वमेव – इन छन्दों से सम्बोधित किया जाता है। भारत में शिव का एक नाम ‘अर्द्धनारीश्वर’ भी है क्योंकि शिव में माता के समान प्रेम एवं वात्सल्य है।

कहा जाता है कि मक्का में ‘संगे-असवद’, जिसे भारतवासी ‘मक्केश्वर’ कहते हैं, की स्थापना प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य ने की थी। इसके साक्ष्य में कई सत्यान्वेषक अरबी भाषा के एक नामवर कवि, जिसे सारे अरेबिया के कवियों की एक सभा में एक श्रेष्ठ कविता के लिए पुरस्कृत किया गया था, की कविता पेश करते हैं। इस कवि का नाम था - ‘जिरहम बिन्तोई’। उस कविता में राजा विक्रमादित्य की बहुत महिमा की गयी है। उसमें लिखा है कि - ‘वे अत्यन्त भाग्यशाली लोग हैं जो सम्राट विक्रमादित्य के शासनकाल में जन्मे। .... अपनी प्रजा के कल्याण में रत वह एक कर्तव्यनिष्ठ, दयालु एवं नेक चरित्र राजा था....। उसने अपने पवित्र धर्म लोगों में फैलाये...।’

हज़रत मुहम्मद साहिब के चाचा द्वारा महादेव की महिमा

और तो क्या हज़रत मुहम्मद के चाचा, जिसका नाम ‘उमर-बिन हश्शाम’ था, स्वयं एक शिव-भक्त थे। वे एक प्रसिद्ध कवि थे; उन्होंने जो कविताएं लिखीं, उनमें शिव की महिमा है। देहली में जो प्रसिद्ध ‘लक्ष्मी-नारायण’ मन्दिर है, जिसे लोग ‘बिड़ला मन्दिर’ भी कहते हैं, उसकी वाटिका में उस कविता का कुछ अंश एक स्तम्भ पर लिखा हुआ है। यह काव्यांश अरबी के एक प्राचीन काव्य संग्रह - ‘से अरूल ओकुल’ के पृष्ठ 235 से लिया गया है। उस कविता का कुछ अंश यहाँ उद्धृत किया जाता है -

क़फविनक जिकरामिन उलुमिन तब असेरू।

कलुवन अमातातुल हवा तज़क्करू ।।1।।

तजखेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा

वलुकएने ज़ातल्लाहे औम् तब असेरू ।।2।।

अहालोलहा अज़ह अरामीयन महादेव ओ।

मनोज़ेल इलमुद्दीने मीनहुम सयत्तरू।।3।।

इसका अर्थ यह है -

1. वह मनुष्य जिसने सारा जीवन विकर्मों अथवा पापों में व्यतीत किया हो, काम वासना और क्रोध में अपनी जवानी को नष्ट किया हो।

2. यदि अन्त में वह प्रायश्चित करे और भलाई एवं धर्म की ओर लौटना चाहे, तो क्या उसका कल्याण सम्भव है?

3. एक बार भी यदि वह सच्चे मन से महादेव की पूजा करे तो अध्यात्म मार्ग में सर्वोच्च पद प्राप्त कर सकता है।

ऊपर के काव्यांश में ‘महादेव’ शब्द का ही अरबी में ज्यों का त्यों प्रयोग हुआ है। यह शब्द ‘शिव’ ही के लिए प्रयोग किया गया है। इसी कविता में आगे कहा गया है - हे प्रभु! मेरा सारा जीवन लेकर केवल एक दिन भारत के निवास का दे दो क्योंकि वहाँ पहुंचकर मनुष्य जीवनमुक्त हो जाता है। अरबी के शब्द निम्न प्रकार हैं -

सहबी के याम फ़ीम कामिल हिन्दे यौमन

यकुलून लातहज़न फ़इन्नक तवज्जरू।।4।।

एक अन्य कवि द्वारा शिव की जन्म-भूमि - भारत की महिमा

इसी पुस्तक ‘से-अरूल ओकुल’ के पृष्ठ 257 पर एक अन्य कवि की कविता है जिसका निम्नलिखित पद ध्यान देने के योग्य है-

अया मुबारेकल अरज यशैये नोहा मिनार हिन्दे।

अरादकल्लाह मज्येनज्जले जिकरतुन।।1।।

इसका अर्थ यह है - हे पुण्यभूमि भारत (हिन्द)! तू धन्य है क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना।

क्या ये सभी साक्ष्य इस बात को प्रमाणित नहीं करते कि किसी समय समूचे मध्य एशिया में, अरब देशों इत्यादि में भी लोग परमात्मा को ‘शिव’ ही मानते थे और वे भारत को परमात्मा शिव की अवतार-भूमि तथा ज्ञान का उद्गम स्थान मानते थे?

शोध-कार्य के लिए सुझाव

इस प्रसंग को हम यह कह कर इसकी इतिश्री करेंगे कि विज्ञ लोगों का कहना है कि मुसलमान भाई जो ‘शबीबरात’ नाम से उत्सव हर वर्ष बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं, वह वास्तव में परम्परागत ‘शिवरात्रि उत्सव’ ही था। उनका कथन है कि शबीबरात शब्द ‘शिवरात्रि’ ही का अपभ्रंश है। यदि संयुक्त राष्ट्र संघ एक आयोग निश्चित करके इस विषय पर एक शोध कराये तो संसार का बहुत भला होगा क्योंकि तब भारत के सनाढ़तन धर्मी लोगों तथा मुसलमानों में, नहीं-नहीं विश्व-भर में मतैक्य हो जायेगा और विश्व में बन्धुत्व की भावना बनेगी।

हम एक बार फिर दोहरा देना चाहते हैं कि ‘संगे-असवद’ के बारे में तथा ‘शबीबरात’ और ‘अल्लाह’ इत्यादि के बारे में शोध द्वारा सत्यता सामने आने पर विश्व के इतिहास में एक नया मोड़ आयेगा और मालूम होगा कि एक ‘शिव’ ही को भूलने से विभिन्न धर्म वालों में इतना खून-खराबा हुआ, लूटमार हुई, घृणा फैली और नास्तिकवाद बढ़ा! अब इसके प्रति पुनः जागृति आने से विश्व का कल्याण होगा और हिन्दू-मुसलमान मिलकर शबीबरात या शिवरात्रि मनायेंगे तथा यहूदी और ईसाई भी ‘जिहोवा’ का दिन मनायेंगे।

इतिहास के पन्नों पर दृष्टि डालने से आपको मालूम होगा कि इधर राजपूत (महाराणा प्रताप इत्यादि) ‘एक लिंग’ (शिव) ही को अपना उपास्य, कुल देवता अथवा इष्ट मान कर ‘हर हर महादेव’ का नारा लगाते रहे, उधर क्षिप्रा नदी के किनारे अवन्ति (उज्जैन) की ओर जितने युद्ध हुए, ‘महाकाल’ (शिव) ही को अपना रक्षक मानकर उस मन्दिर पर विदेशियों का अधिकार हो - इसके लिए भारतवासी युद्ध में अपने सर्वस्व की बलि देते रहे। उस ओर ‘जय सोमनाथ’ की ध्वनि कर, वे विदेशियों के आक्रमणों का सामना करते रहे। गोया भारतवर्ष के समूचे मध्यकालीन इतिहास का केन्द्रबिन्दु भी ‘शिव’ ही था। इधर ‘हरहर महादेव’ का नारा लगाया जाता था और उधर ‘अल्लाह हु अकबर’ का। यदि दोनों पक्षों को यह मालूम होता कि ‘अल्लाह’ (अल्लः) और ‘शिव’ एक ही हैं तो आज भारत तथा विश्व का इतिहास ही भिन्न होता? इसीलिए हम कहते हैं कि इस विषय पर भारत सरकार की ओर से भी शोध-कार्य होना चाहिए। यह राष्ट्रीय एकता के लिए भी ज़रूरी है।

जब तक यह कार्य हो तब तक तो सभी को परमपिता परमात्मा के दिव्य जन्म अथवा अवतरण दिवस शिवरात्रि को खूब धूम-धाम से ‘सर्व-धर्म स्नेह-मिलन’ के रूप में तथा ‘विश्व का बन्धुत्व दिवस’ के रूप में मानना ही चाहिए।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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