भण्डारे भरपूर और काल-कण्टक दूर

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आज मनुष्य के भण्डारे खाली हैं और मनुष्य को कभी निर्धनता के, कभी सम्बन्धियों के कटु व्यवहार के तथा कभी सरकार द्वारा टैक्स के काँटे भी लगते रहते हैं। काल के पंजे में तो सभी हैं ही। अतः आज की परिस्थिति में तो खास तौर पर परमात्मा शिव को अवश्य जानना चाहिए क्योंकि उनके बारे में तो यह कहावत है कि  – शिव के भण्डारे भरपूर हैं और काल कण्टक सब दूर हैं।

क्या आपके सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर हुए हैं?

आज तक विचित्र बात यह है कि भारत के बहुत-से लोग तो यह समझे बै हैं कि वे शिव को भली-भांति जानते हैं, शिव की नित्य पूजा करते हैं और बड़े उत्साह से शिवरात्रि भी मनाते हैं। परन्तु प्रश्न ता है कि लोगों ने शिव को जैसा जाना हुआ है और जिस तरह वे शिवरात्रि मनाते हैं उससे क्या उनके सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर होते जा रहे हैं और क्या काल-कण्टक दूर होते जा रहे हैं? यदि नहीं तो प्रमाणित है कि उस जानकारी में कुछ त्रुटि है। उदाहरणार्थ, आप जानते हैं कि लोग शिव पर प्रायः अक्, धतूरा इत्यादि चढ़ाते हैं। अब विचार की बात है कि यदि इसी अक् और धतूरे से शिव प्रसन्न होते तब तो अधिक पुरुषार्थ अथवा यत्न की आवश्यकता ही रहती बल्कि दस-बीस पैसे का सौदा लेकर उन पर चढ़ाने की थोड़ी-सी मेहनत से जीवन के लक्ष्य की सिद्धि हो जाती। इतना पुरुषार्थ तो कोई भी कर सकता है। यदि इतने भर से ही शिव, जिन्हें ‘पाप-कटेश्वर’ और ‘मुक्तेश्वर’ कहा गया है, पाप काट देते और मुक्ति प्रदान कर देते तब तो योग-तपस्या और ज्ञान-ध्यान को कोई भी पूछता। विवेक से यह बात सिद्ध है कि वह अक्, धतूरा इत्यादि कुछ और ही चीज़ें हैं जिन्हें यदि एक बार सचमुच शिव पर चढ़ा दिया जाये तो आशुतोष, भोलानाथ, अवरदानी शिव प्रसन्न होकर मुक्ति और जीवनमुक्ति के वर दे देते हैं।

जो स्वयं को शिव मानते हैं वे अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते हैं

अतः यह रहस्य भलीभाँति जानने की आवश्यकता है कि शिव कौन हैं, शिवरात्रि क्यों मनाई जाती है और आत्माओं की श्रेणी में शिव का कौन-सा उच्च स्थान है? लौकिक दृष्टि से तो मनुष्य जानते हैं कि इस संसार में कौन प्रसिद्ध मनुष्य क्या है? परन्तु इस सृष्टि के आदि से लेकर अन्त तक के इतिहास में शिव का क्या स्थान है, यह जाने बिना मुक्ति और जीवनमुक्ति जैसे उच्च वरदान भला कैसे प्राप्त होंगे? उदाहरण के रूप में आप देखिए कि कुछ लोग तो स्वयं को ही शिव मानते हैं। परन्तु प्रशन ता है कि यदि आत्मा स्वयं ही शिव है तो फिर शिवरात्रि का त्योहार किसके पुण्य जन्मदिन के उपलक्ष्य में मनाया जाता है? ‘शिव’ तो कल्याण करने वाले परमात्मा का ही गुणवाचक नाम है। उनकी तो भारत में बहुत उपासना होती है। भक्त लोग ‘ॐ नम शिवाय’ का जाप करते हैं। स्पष्ट है कि यह भक्ति, उपासना, महिमा स्वयं से किसी उच्च हस्ती (सत्ता) की होती है। अतः अपने आप को शिव मानना तो अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनना है। यह तो छोटे मुंह बड़ी बात करना है। विश्व का कल्याण करने वाले त्रिभुवनेश्वर, स्वयंभू शिव कहाँ और माया द्वारा पराजित, अकल्याण-युक्त हम जन्म-मरण के चक्कर में आने वाली जीवात्माएं कहाँ! शिव तो एक हैं, वह तो परमपिता हैं जो कि मनुष्यात्माओं को पतन के गड्ढे से निकाल कर उनका कल्याण करते हैं!

हमारे इस कथन से कोई यह समझ बै कि शायद हम महादेव शंकर जी को ही शिव मानते हैं, क्योंकि प्रायः लोग शिव और शंकर को पर्यायवाची समझते हैं। वास्तव में शिव और शंकर एक ही के दो नाम नहीं हैं। आप देखते हैं कि मन्दिरों में एक तो अंगुष्ठ-जैसी, शरीर के आकार से रहित मूर्ति रखी रहती है जिसे शिवलिंग कहते हैं और दूसरी शारीरिक रूप वाली महादेव शंकर की होती है। कभी आप ने सोचा कि ये दोनों अलग-अलग मूर्तियाँ क्यों हैं? इसका यही कारण है कि शिवलिंग तो निराकार (शरीर-रहित) ज्योतिस्वरूप, ब्रह्मलोक के निवासी ज्योतिर्लिंगम् परमात्मा शिव की प्रतिमा है और दूसरी एक सूक्ष्म शरीर वाले, शंकरपुरी के निवासी एक देवता की मूर्ति है। ‘शिव’, ब्रह्मा, विष्णु और शंकर तीनों देवों के रचयिता अर्थात् ‘त्रिमूर्ति’ अथवा ‘देवों के देव’ हैं। ‘शिव’ ही को ‘मुक्तेश्वर’ और ‘पापकटेश्वर’ भी कहा जाता है।

अतः अब आप समझ सकते हैं कि शिवरात्रि सर्व महान् आत्मा के दिव्य जन्म का उत्सव है। मनुष्यों का जन्म-दिन तो परमात्मा शिव के जन्म-दिन की भेंट में ऐसे है जैसे हीरे की भेंट में कौड़ी, क्योंकि मनुष्य, पाप काटने वाले (पापढ़ कटेश्वर), मुक्ति देने वाले (मुक्तेश्वर), तीनों लोकों के मालिक (त्रिभुवनेश्वर), रामेश्वर और गोपेश्वर अर्थात् राम और श्रीकृष्ण के भी पूज्य नहीं हैं। वह ‘देव देव’ अर्थात् त्रिमूर्ति नहीं हैं। परन्तु अ़फसोस है कि इतने उच्च एवं पूज्य परमपिता के जीवन वृत्तान्त को आज विदेशी तो क्या, भारत के लोग भी नहीं जानते। यही कारण है कि आज भारत कौड़ी-तुल्य अथवा कंगाल बन गया है। भारत की ऐसी दशा क्यों हुई है? इसलिए ही कि यहाँ के वासियों के कर्म, भण्डारे भरपूर करने वाले परमपिता शिव की आज्ञाओं के विपरीत हैं अर्थात् वे परमात्मा से विपरीत-बुद्धि हैं।

शिव ने क्या किया?

प्रशन सकता है कि परमात्मा शिव को क्यों याद करें? उन्होंने ऐसा क्या महान् कार्य किया है कि आज तक उनकी महिमा, उन का गायन और पूजन होता है और उनका जन्मोत्सव मनाया जाता है? हम बता चुके हैं कि मनुष्यात्माओं का कल्याण करने के कारण परमात्मा के ‘शिव’ नाम का गायन हुआ। आप पूछेंगे कि क्या कल्याण किया? आज मनुष्य समझते हैं कि किसी को अन्न, धन, वस्त्र इत्यादि देना अथवा थोड़े समय के लिए किसी को आय का साधन इत्यादि प्राप्त करा देना ही किसी का कल्याण करना है। भारत सरकार ने तथा सामान्य जनता ने इस प्रकार के कई केन्द्र ‘कल्याण केन्द्रा के नाम से खोले हुए हैं। परन्तु आप सोचिए कि जब तक मनुष्यात्माओं में जागृति नहीं आयेगी, जब तक उनके कर्मों में पवित्रता नहीं आयेगी तब तक उनके दुःखों का कोई कोई कारण तो बना ही रहेगा। अतः परमपिता परमात्मा, जो कि कर्मों की गुह्य गति को जानने वाले हैं, मनुष्य का कल्याण इस प्रकार करते हैं कि वह उनके कर्मों में श्रेष्ठता लाते हैं।

दो चीज़ों की आवश्यकता है

कर्मों को श्रेष्ठ बनाने के लिए दो चीज़ों की आवश्यकता है एक तो ज्ञान और दूसरे योग की। कौन-से कर्म करने चाहिएँ, कौन-से नहीं करने चाहिएँ, आत्मा क्या है, उसे अपने स्वरूप में कैसे स्थित होना चाहिए इत्यादि-इत्यदि विषयों को जानना ही ज्ञान कहलाता है। केवल ज्ञान से ही मनुष्य पवित्र नहीं बन सकता क्योंकि जब तक मनुष्य सर्वशक्तिमान् परमपिता परमात्मा शिव से शक्ति ले तब तक वह अपने पूर्वकालीन संस्कारों को बदल नहीं सकता, विकर्मों को दग्ध नहीं कर सकता और पूर्ण कल्याण अथवा आनन्द को प्राप्त नहीं हो सकता। परमपिता परमात्मा से आध्यात्मिक शक्ति, संस्कारों की पवित्रता, आनन्द इत्यादि की प्राप्ति के लिए उनसे सम्बन्ध स्थापित करना ही योग है। परमपिता परमात्मा शिव ने स्वयं ही वास्तविक योग सिखा कर मनुष्य को माया जीत जगत जीत बनाया। योग द्वारा ही उन्होंने मनुष्यों के पाप-बन्धन काटे और योग द्वारा ही पावन किया। इस कारण ही वह ‘पापकटेश्वर’ अथवा ‘पतित पावन’ कहलाते हैं। ज्ञान-रूपी सोमरस पिलाने के कारण ही उनको सोमनाथ भी कहते हैं। आपके मन में प्रश्न गा कि ज्ञान और योग सिखाकर परमपिता परमात्मा शिव मनुष्यात्माओं को क्या पद प्राप्त कराते हैं? इसके बारे में उक्ति प्रसिद्ध है कि वह नर से श्रीनारायण और नारी से श्रीलक्ष्मी पद अथवा मनुष्य से देवता पद के योग्य बनाते हैं। श्रीनारायण को ही बाल्यकाल में श्रीकृष्ण कहते हैं।

अतः मालूम रहे कि गीता-ज्ञान श्रीकृष्ण ने नहीं दिया था बल्कि त्रिलोकीनाथ, ज्ञान के सागर, निराकार, विश्वपिता परमात्मा शिव ने दिया था। श्रीकृष्ण ने भी परमात्मा शिव ही के ज्ञान से श्रीनारायण पद प्राप्त किया। इसलिए वास्तव में ‘शिव’ ही गीता-ज्ञान दाता हैं। इस कारण शिवरात्रि ही गीता जयन्ती है। परन्तु आज यह अनमोल रहस्य जनता को मालूम नहीं है। अगर देश-विदेश में यह मुख्य बात सभी को मालूम हो जाये कि गीता का ज्ञान सभी मनुष्यात्माओं के परमपिता, देवों के देव परमात्मा शिव ने दिया था तो सारे विश्व के तथा सभी धर्मों के लोग गीता को विश्वपिता परमात्मा के महावाक्यों का ग्रन्थ मानकर सिर पर धारण करेंगे और शिवरात्रि को परम श्रद्धा से मनायेंगे और भारत को सर्वोत्तम तीर्थ मानेंगे और गीता की आज्ञाओं का पालन करके श्रेष्ठाचारी बन जायेंगे।

एक रात्रि के लिए खाना छोड़ने की बात नहीं है

इन रहस्यों को जानने पर ही शिवरात्रि को वास्तविक रीति में मनाया जा सकता है और मुक्ति तथा जीवनमुक्ति प्राप्त की जा सकती है। तब ही मनुष्य समझ सकता है कि हमें शिव पर अक् और धतूरा नहीं चढ़ाना है बल्कि ये पदार्थ तो हमारे विषयों अथवा विकारों के प्रतीक हैं और हमें उन विकारों ही को शिव पर चढ़ाना है। तभी हमारी मुक्ति होगी। हमें शिवरात्रि की एक रात को खाना-पीना बन्द करके ही व्रत नहीं रखना। शिवरात्रि तो कलियुग के अन्त और सतयुग के आरम्भ के सारे संगम काल का नाम है, इसलिए सारे काल में हमें आत्मा का जागरण करना है और ब्रह्मचर्य का व्रत पालन करना है। यदि हम ऐसा करके केवल एक रात्रि पवित्र रहने के बाद में काम रूपी विष का सेवन करते हैं तो मानो हम केवल एक रात्रि ही शिवरात्रि मनाकर फिर नित्य विष रात्रि मनाते हैं। हम केवल एक रात्रि ही ‘शिव संकल्प’ और फिर नित्य विष-संकल्प करते हैं। इससे हमारे जीवन का कल्याण नहीं हो सकता। हमें तो वर्तमान संगमयुग को शिवरात्रि समझकर सतयुग रूपी दिन चढ़ने तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए और आत्मिक अर्थ में जागते रहना चाहिए। इस प्रकार शिव को जानने से सुख-शान्ति के भण्डारे भरपूर और काल-कण्टक दूर हो जायेंगे।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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