कुएँ से निकल सागर की ओर

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आंगन में टी.वी. के सामने भीड़ जमा थी। अहमदाबाद और बैंगलोर में हुए बम धमाकों के समाचार को लोग हल्की दहशत के साथ सुन रहे थे। मैं भी उस जमावड़े में शामिल हो गई। समाचारों का सार ग्रहण करने में मुश्किल से दो मिनट लगे और मैं टी.वी. की आवाज़ कम करने का नम्र निवेदन करके उठ खड़ी हुई। चार-पाँच कदम ही चली थी कि एक नौजवान के मोबाइल पर गूंजते गीत का स्वर कानों में पड़ा। पहला स्वर था नारी का - ‘क्या हो अगर मैं तुमसे बिछुड़ जाउँ।’ दूसरा स्वर था पुरुष का - ‘आग लगा दूँ सारी दुनिया को, मैं भी जलकर मर जाउँ।’ मुझे बम धमाकों में और इस गीत में एक गहरा सामंजस्य नज़र आया। आज का नौजवान, यदि उसे उसकी मनपसंद च़ाज ना मिले तो अपनी हताशा, निराशा, नफरत और बदले की आग को शांत करने का यही तो तरीका अपनाता है कि दुनिया को आग लगाई जाए और खुद भी उसमें जलकर मरा जाए। यह मानव बम क्या है? स्वयं को मारकर सबको मारने का उल्टा रास्ता। असंभव नहीं है कि बम फेंकने वाले किसी ने किसी से प्यार (प्यार नहीं काम-वासना का संबंध) जोड़ा हो और वह पूरा ना हुआ हो। इच्छा की अपूर्ति ने उसके अभिमान को जागृत कर दिया हो और प्यार शब्द की आड़ में वह कसाई से भी जघन्य पाप करने पर तुल बैठा हो।

अप-संस्कृति की मिलावट भी अपराध है

क्या इस विकृत मानसिकता के सुधार का कोई उपाय हमारे पास है? हम बमों को नष्ट कर रहे हैं, पुलिस जाँच को बढ़ा रहे हैं परंतु मन के भटकाव के लिए दोषी कारणों का निवारण कर रहे हैं क्या? क्या हमने उन स्वरों पर रोक लगाई जो जलने-जलाने की बातों को सुरीली तर्ज़ के साथ महिमामंडित करके नौजवानों के अपरिपक्व मन को भड़काते हैं? क्या उस लेखनी पर रोक लगाई जो मरने और मारने की बातों की तुकबन्दी करके कानों का आकर्षण पैदा करती है? यह तो मात्र गीत था, ऐसे दृश्य भी तो हैं जब व्यक्ति हज़ारों को मारता है और चौड़ी छाती करके सड़कों पर निर्भय चलता है? क्या हमने कभी सोचा कि हथियारों से भी भयंकर ये गीत और ये दृश्य हैं? आज कोई खाद्य पदार्थों में, मकान बनाने के सामान में, वस्त्रों या दवाइयों में मिलावट करता है तो उसका पर्दाफाश किया जाता है, उसे पकड़ा जाता है, सज़ा दी जाती है परंतु भारत के उच्च सांस्कृतिक मूल्यों में, यह जो विकारों और विकृतियों की, अप-संस्कृति की, अनैतिकता और भग्न मूल्यों की मिलावट हो रही है, क्या उसके लिए कोई धर-पकड़ या सज़ा का पावधान है?

भारत की संस्कृति में प्रेम एक बहुत उच्च मूल्य है। परमात्मा प्रेम का सागर है। इस प्रेम के बल से वह निर्बल को बलवान, अशक्त को सशक्त, अबला को सबला, गरीब को अमीर, विकारी को निर्विकारी, झूठे को सच्चा, पापी को पुण्यात्मा और पतित को पावन बनाता है।

सच्चे प्रे में ईश्वरीय प्रे की झलक

जैसे बूँद चाहे कहीं भी हो, उसमें सागर का रूप झलकता ही है, ऐसे ही प्रे चाहे जहाँ भी हो उसमें प्रेम-सागर परमात्मा के ऊँचे प्रे की झलक अवश्य मिलनी चाहिए क्योंकि स्त्रोत तो वही है। प्रेम किया था चाणक्य ने चंद्रगुप्त से, एक निर्धन बालक को बादशाह बना दिया। प्रेम किया था बुद्ध ने करुणा और दया से, लाखों निर्दोषों के बहते खून को रोक दिया, आँसुओं और आहों को मिटा दिया। प्रेम किया था राजा विकमादित्य ने प्रजा से, न्याय का डंका बजा दिया, दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। प्रेम किया महावीर ने, मानव सहित सभी जीवों को जीने का अधिकार दिलवा दिया। प्रेम किया शंकराचार्य ने, आसक्तियों और मोह में फंसे लोगों को शान्ति का मार्ग दिखा दिया। पेम किया मीरा, रहीम, तुलसी ने, समाज को शाश्वत सत्यों का पैगाम दे दिया। प्रेम किया पन्ना धाय ने, राजा को दिए वचन को निभाकर, राजकुमार उदय को राजा बना दिया। पेम किया गुरुनानक और उनके उत्तराधिकारी गुरुओं ने, भयभीत जनता के हृदय में निर्भयता और साहस का कमल खिला दिया। प्रेम किया महात्मा गांधी ने, 35 करोड़ भारतीयों को स्वतंत्रता की छत्रछाया में ला दिया। प्रेम किया युवा विवेकानन्द ने, भारत के अध्यात्म का विश्व में परचम लहरा दिया। प्रेम किया झांसी की रानी ने, देश पर तन, मन, धन कुर्बान कर दिया। कितने प्रेमियों के नाम गिनती करें। इन सभी के प्रेम में, प्रेम के स्त्रोत परमात्मा के सच्चे प्रेम का अंश अवश्य झलकता है। ऐसा प्रेम आज भी हो सकता है। प्रेम के पात्र कोई स्त्री या केवल कोई पुरुष ही क्यों?

हम वैलेन्टाइन-डे मनाते हैं, तो क्या हम ऐसा दिन नहीं मना सकते, जैसे कि ‘दया का दरिया बहाने का दिन’, ‘आभार का भार उतारने का दिन’, ‘दुआ देने और लेने का दिन’, ‘माफ करने और दिल साफ करने का दिन’, ‘करुणा की कलियाँ खिलाने का दिन’ आदि। ऊपर हमने जिन प्रेम-बाँकुरों की बात की, उनके जन्मदिन या शहादत दिन ऐसे हैं जो ऐसे रूपों में मनाए जा सकते हैं फिर केवल वैलेन्टाइन डे का ही इतना शोर क्यों? और उस महंगी गुलाब की डण्डी के बदले यदि दवाई के लिए तड़पते किसी बीमार की सहायता कर दें तो? पुस्तक और पैन के लिए परेशान किसी बालक का सहारा बन जाएं तो? भूख से बिलबिलाते किसी अर्धनग्न बच्चे की क्षुधा शान्त कर दें तो? टपकती झोंपड़ी में ठंड से ठिठुरते किसी को एक चद्दर उपलब्ध करा दें तो? तो क्या हम प्रेमी नहीं कहलाएंगे? क्या हमारा नाम सच्चे प्रेमियों की सूची में से काट दिया जाएगा?

प्रे और काम - एक-दूसरे के विरोधी

जैसे छोटे-से गड्ढे में पड़े जल में अनेक प्रकार के कीटाणु पैदा हो जाते हैं, उसी पकार पेम जब किसी एक व्यक्ति या वस्तु से बंधकर ठहर जाता है, संपूर्ण मानव जाति तक अपनी पहुँच नहीं बना पाता है, सीमित दायरे तक सिमट जाता है, तो उसमें स्वार्थ, दिखावा, झूठ, ठगी, शोषण, वासना, मोह आदि अनेक विकारों रूपी कीड़े पैदा हो जाते हैं। झूठे प्रेम छलावों के आरंभिक दिनों में दोनों उल्लासोन्माद की भावनाओं के बुलबुले में तैरते हैं। दोनों ही एक-दूसरे की दृष्टि में पूर्ण होते हैं। एक-दूसरे के लिए बलिदान की भावना सहज बनी रहती है परन्तु कुछ समय बाद जब बुलबुला फटता है तो दोनों भूमि पर आ गिरते हैं। कड़वी सच्चाई पर पड़ा पर्दा हट जाता है। अब दोनों एक-दो को अपूर्ण नज़र आने लगते हैं। इस दौर में जो दरार पड़ती है वह फिर कभी भी भरने का नाम नहीं लेती। निम्न स्तर के पेम में कोध, हिंसा, ईर्ष्या सब कुछ घटता रहता है। कुछ दिन पूर्व समाचार आया कि एक व्यक्ति ने अपनी महिला मित्र की हत्या कर दी। पुलिस ने छान-बीन की तो कारण मिला, महिला ने स्वयं के शोषण का प्रतिरोध किया था।

सच्चे प्रेम में काम-वासना सबसे बड़ी बाधा है। काम का अर्थ है ‘दूसरों से लेना’ और यह लेने की भावना कभी संतुष्ट नहीं होती। भौतिक पयासों द्वारा इस काम को संतुष्ट करने का पयत्न, अग्नि को पैट्रोल द्वारा बुझाने के समान है। अगले ही क्षण, अग्नि उस ईंधन को निगलकर अधिक तीव्रता से भड़क उठती है। फिर उस अग्नि को ईंधन देने के मार्ग में बाधा डालने वाले हर अच्छे इंसान को, समाज को अपना दुश्मन मान लिया जाता है। ऐसे दुर्गंध भरे पेम में दुश्मनी, घृणा, हताशा, निराशा जैसे कीड़े ही पैदा होंगे।

एक अन्य समाचार में था कि एक गरीब माता ने अपने ज़ेवर गिरवी रखकर इकलौते बच्चे का मैडिकल कॉलेज में दाखिला करवाया। वहाँ उसे एक लड़की से तथाकथित प्यार हो गया। लड़की के घरवालों को पता पड़ा तो वे पढ़ाई छुड़ाकर उसे घर ले गए। इस नौजवान ने ज़हर की गोलियाँ खाकर आत्म-हत्या कर ली। कोई कह सकता है कि वह पेम पर कुर्बान हो गया परंतु माँ के प्रेम, माँ की कुर्बानी का क्या हुआ? उस अनजानी लड़की के लिए उसे मरना सहज लगा परंतु जिसने बाईस वर्ष तक अपना खून-पसीना पिलाकर, मुँह का निवाला खिलाकर इतना बड़ा किया उसके लिए जीना इतना मुश्किल हो गया था क्या? उसकी बाईस वर्ष की तपस्या का कोई मूल्य नहीं? यदि मरना ही था तो देश पर कुर्बान होता, किसी मरीज को रक्त, गुर्दे या किसी अंग का स्वेच्छा से दान देते हुए पाण त्यागता, यदि पढ़ना मुश्किल लग रहा था तो गिरवी रखे ज़ेवर छुड़ाने के लिए कोई कड़ी मेहनत करता; ऐसे किसी सार्थक, समाजोपयोगी कर्म को किए बिना, केवल गोलियाँ खा लेने से, मृत्यु महिमामंडित नहीं हो जाती। यूँ तो पतिदिन हज़ारों कीड़े-मकोड़े पैदा हेते और मरते हैं, इतना श्रेष्ठ मानव भी उन्हीं की तरह उपयोगिताविहीन जीवन का भार ढोए और कर्ज़ की गठरी सिर पर उठाए-उठाए दुनिया से कूच कर जाए तो मानव जाति के जन्म और उसकी दशा-दिशा पर उँगली उठने लगती है।

सच्चा पेम वह है जो जीना सिखाए, परिस्थितियों से जूझना सिखाए, धारा के विपरीत तैरना सिखाए, रिसते घावों को सहलाना सिखाए, बहते आँसुओं को थमना सिखाए। ऐसे प्रेम का झरना आज समाज को चाहिए। दुर्गन्ध भरे प्रेम-प्रसंगों से तो समाज के शरीर पर अनेक घाव हो गए हैं। आज ज़रूरत है ईश्वरीय प्रेम की, बेहद के प्रेम की औषधि से उन घावों को पोंछने की। जब यह ईश्वरीय पेम फैलेगा तो कोई पुत्र माँ की तपस्या पर दाग नहीं लगायेगा। हर व्यक्ति, हर व्यक्ति से ईश्वरीय पेम की डोर में बंधा हुआ होकर भी कर्त्तव्यपालन के सुख से ओत-पोत होगा।

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय ऐसे सच्चे, समाजोपयोगी, निस्वार्थ और स्थायी प्रेम का निशुल्क प्रशिक्षण केन्द्र है। झूठे प्रेम के चक्करों में पड़े हुए सभी मानवों का यह आह्वान करता है कि वे सड़ाँध भरे पेम-कूप के मेंढक बनने के बजाय, बेहद प्रेम के सागर परमात्मा से रिश्ता जोड़ें। ऊँचे से ऊँचे परमात्मा प्रदत्त ऊँचे प्रेम का रस चखें।

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।


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