सूर्य का
उदय /अस्त होना व सूर्य को ग्रहण लगना एक ऐसा महान असत्य है, जिसे हम सदियों से सत्य
के रूप में स्वीकार कर रहे हैं।
ज़रा विचार करें
उदय / अस्त
या यूँ कहिये कि उत्थान व पतन तो उसका होता है, जिसके आकार, परिमाप, वजन, समय, स्थान,
स्थिति व गुणों में परिवर्तन होता है अर्थात् जो परिवर्तनशील है। लेकिन सूर्य में तो
किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता, वो तो सदैव अचल-अडोल व एक ही स्थान पर स्थिर है।
तो फिर सूर्य उदय / अस्त कैसे हो सकता है?
पृथ्वी के
अपनी धुरी व सूर्य के इर्द-गिर्द घूमते-घूमते पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सम्मुख (सामने)
होता है, वहाँ उदय (उजियारा यानि की दिन) होता है और जो भाग सूर्य के विमुख (पृथ्वी
के पीछे का भाग) होता है, वहाँ अस्त (अंधियारा यानि की रात) होती है। इससे स्पष्ट होता
है कि सूर्य उदय / अस्त नहीं होता बल्कि पृथ्वी का भाग ही उदय / अस्त होता है। लेकिन
पढ़ाया और सिखलाया जाता है कि सूर्य उदय / अस्त होता है।
किसी गृह
की छाया जब दूसरे ग्रह पर पड़ती है तो ग्रहण (दोष) लगता है। जिस ग्रह पर छाया पड़ती
है, ग्रहण उसी ग्रह को लगता है। जिस प्रकार जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है तो चन्द्रमा
को ग्रहण लगता है और कहते भी हैं कि चन्द्र ग्रहण लगा है। लेकिन जब चन्द्रमा की छाया
पृथ्वी पर पड़ती है तो ग्रहण लगता है पृथ्वी को। कहा जाता है सूर्य ग्रहण लगा है। देखा
और समझा जाये तो सूर्य न तो कभी उदय / अस्त होता है और ना ही कभी सूर्य को ग्रहण लगता
है।
सूर्य का
उदय / अस्त होना और सूर्य को ग्रहण लगना हम सत्य क्यों मान रहे हैं? क्योंकि पृथ्वी
का घूमना अदृश्य है जबकि घूमते-घूमते पृथ्वी के भाग का सूर्य के सम्मुख व विमुख होना
सदृश्य है। इस अदृश्य व सदृश्य के खेल के कारण ही हम सूर्य का उदय / अस्त होना सत्य
मान रहे हैं। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के समय भी सूर्य और चन्द्रमा अदृश्य होते हैं,
जबकि पृथ्वी सदृश्य होती है।
कल्प का सबसे बड़ा और महान असत्य
श्रीकृष्ण
को गीता का भगवान मानना एक सबसे बड़ा महान असत्य है। इसका सत्य पमाण स्वयं गीता है।
वर्तमान में जो गीता शास्त्र हम पढ़ते और सुनते हैं, इसी गीता में लिखे हुए ज्ञान में
ही विरोधाभास है।
अध्याय चार,
श्लोक नम्बर पाँच और छ के बीच ही विरोधाभास है। जहाँ श्लोक नम्बर पाँच में लिखा है
कि - हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, उन सबको तू नहीं जानता, लेकिन
मैं जानता हूँ। वहीं श्लोक नम्बर छ में लिखा है कि मेरा जन्म पाकृत मनुष्यों के सदृश्य
नहीं है। मैं अविनाशी स्वरूप, अजन्मा होने पर भी सब भूत पाणियों का ईश्वर होने पर भी
मैं अपनी प्रकृति को अधीन करके योग माया से प्रकट होता
हूँ।
गीता में लिखे ज्ञान में विरोधाभास क्यों
हुआ?
इसका मुख्य कारण है कि गीता के उद्गम से लेकर वर्तमान सत्य तक अनेकानेक संस्करण प्रतिपादित हो चुके हैं। अपनी अरुचि का छोड़ना व अपनी रुचि का जोड़ना और अपनी रुचि अनुसार अर्थ में तब्दीली करना मनुष्य का स्वभाव रहा है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण वर्तमान में भी अनेक विद्वानों द्वारा गीता के श्लोकों का अपनी-अपनी रुचि अनुसार उच्चारण करना व अर्थ में तब्दीली कर देना है।
इसी छोड़ और जोड़ के स्वभाव के कारण गीता के प्रत्येक संस्करण में कुछ छोड़ दिया गया, कुछ जोड़ दिया गया व कुछ का अर्थ ही तब्दीली कर दिया गया। इसी छोड़ व जोड़ के चलते व अर्थ तब्दीली के कारण वर्तमान में जो गीता शास्त्र हम पढ़ते और सुनते हैं, इसमें सच्चाई नाम मात्र की रह गई है।
सच्चाई नाम मात्र रहने के कारण सब कुछ उलट-पुलट हो गया है और इसी उलट-पुलट
ने गीता शास्त्र के उद्गम के समय, स्थान, पात्र व गीता ज्ञान दाता के नाम को भी उलट-पुलट
कर दिया है।
अभी तक हमारा
मानना है कि गीता ज्ञान द्वापरयुग में महाभारत के युद्ध में कुरुक्षेत्र के मैदान में
अर्जुन द्वारा अपने निकट सम्बन्धियों के विरुद्ध युद्ध करने के प्रति उदासीनता दिखाने पर श्रीकृष्ण ने अधर्म
के विरुद्ध व धर्म की स्थापना हेतु अर्जुन को गीता ज्ञान सुनाकर युद्ध के लिये तैयार
किया और अर्जुन ने (गीता ज्ञान सुनने के पश्चात्) अधर्म के विरुद्ध युद्ध कर व युद्ध
में विजयश्री पाप्त कर धर्म की स्थापना की।
सर्वपथम हम गीता शास्त्र के उद्गम के
समय के बारे में जानें
गीता में
भगवानुवाच - यदा-यदा हि धर्मस्य.......अर्थात् अति ग्लानि के समय ही मैं इस भारत भूमि
पर अवतरित होता हूँ।
अगर अति धर्म
ग्लानि का समय द्वापरयुग में था और भगवान ने अवतरित होकर गीता ज्ञान देकर धर्म की स्थापना
की तो वर्तमान समय इतना अधर्म क्यों?
वर्तमान समय
अधर्म की प्रबलता व गीता के महावाक्य ही प्रमाणित करते हैं कि महाभारत युद्ध द्वापरयुग
में नहीं हुआ बल्कि महाभारत युद्ध के आधार की स्थापना द्वापरयुग से शुरू हुई। शास्त्र
में लिखा गया है कि द्वापरयुग से देवताएँ वाम मार्ग यानि धर्म से अधर्म के मार्ग पर
चले गये और वर्तमान समय अधर्म की प्रबलता से प्रमाणित होता है कि देवताएँ वर्तमान समय अति
धर्म-ग्लानि में पहुँच गये हैं। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि गीता शास्त्र के उद्गम
का समय द्वापरयुग नहीं बल्कि वर्तमान का समय है।
गीता शास्त्र
के उद्गम का स्थान
जहाँ दो प्रतिद्वन्दी सेनाएँ एक-दूसरे के विनाश हेतु
समर्थ व उन्मुक्त हों, जहाँ किसी अन्य की बात सुनना भी आपघात करने के समान सिद्ध हो
सकता है। क्या वहाँ पर गीता ज्ञान सुना और सुनाया जा सकता है?
कुरुक्षेत्र
का मैदान कोई हिंसक युद्ध का स्थान नहीं बल्कि वर्तमान समय हम मनुष्यात्माओं का जो
कर्मक्षेत्र है, पाँच विकारों से ग्रस्त होकर, कर्म क्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र में तब्दीली
हो चुका है और इसी पुर-कर्म क्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र में हम मनुष्यात्माएँ अपनी देह,
देह के सम्बन्ध व देह के पदार्थों से युद्ध रत है। गीता ज्ञान का स्थान कोई हिंसक युद्ध
का कुरुक्षेत्र नहीं बल्कि वर्तमान समय का हम मनुष्यात्माओं का पुर कर्म क्षेत्र ही
कुरुक्षेत्र है।
गीता ज्ञान के पात्र
अगर एक अर्जुन
को ही गीता ज्ञान दिया गया और एक अर्जुन ने ही अधर्म के विरुद्ध युद्ध कर व युद्ध में
विजयश्री पाप्त कर धर्म की स्थापना की तो बाकी चार पाण्डवों की क्या आवश्यकता थी और
उन्होंने क्या किया?
पाँच पाण्डव
वास्तव में कोई व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि ज्ञानी-तू-आत्मा के पाँच चरित्रों का वर्णन
है।
युधिष्ठिर
: युधिष्ठिर को सत्य
का प्रतीक माना गया है यानि कि जो मनुष्यात्माएँ
सत्य के मार्ग पर चलते हुए मार्ग में आने वाली हर स्थिति-परिस्थिति अर्थात् हानि-लाभ,
दुःख-सुख, मान-अपमान, यश-अपयश जैसी युद्ध की स्थिति में भी स्थिर रहे, उसी को युधिष्ठिर
कहा गया है।
भीम : भीम को बल का प्रतीक माना गया है। यहाँ
बाहुबल की बात नहीं बल्कि ज्ञान बल द्वारा, बुद्धि बल की बात है। यह तो सर्व विदित
है कि जो युद्ध बाहूबल से नहीं जाता जा सकता है वो युद्ध बुद्धि बल से जीता जा सकता
है। दैहिक शासन रूपी दुःशासन व दैहिक धन रूपी दुर्योधन पर केवल ज्ञान बल द्वारा पाप्त
बुद्धि बल द्वारा ही विजयश्री पाई जा सकती है।
अर्जुन
: जो मनुष्यात्मा भगवान
के ज्ञान को अर्जन (सुन) कर अपने अन्दर धारण करती व अन्यों को कराती है, वही ज्ञानी-तू-मनुष्यात्मा अर्जुन कहलाती है।
नकुल : जो मनुष्यात्मा भगवान के ज्ञान की हूबहू
नकल करने में समर्थ हो, वही ज्ञानी-तू-मनुष्यात्मा नकुल कहलाती है। कहा भी जाता है
कि नकल के लिये भी अकल की आवश्यकता होती है।
सहदेव
: जो मनुष्यात्मा ज्ञान
देने और लेने में सहयोगी बन, अन्य आत्माओं को भी सहयोगी बनाती है, वही ज्ञानी-तू-मनुष्यात्मा
सहदेव कहलाती है।
पाँचों पाण्डवों
में भी अर्जुन को मझला व नकुल और सहदेव को माद्री पुत्र कहा गया है। इसका भी अर्थ है
कि जिस मनुष्यात्मा में पहले दो चरित्र विद्यमान होंगे वही मनुष्यात्मा अर्जुन बन सकेगी
व बाद के दोनों चरित्र स्वत ही धारण हो जायेंगे। इस प्रकार से जिस मनुष्यात्मा में उपरोक्त
पाँच चरित्र विद्यमान हैं, वही ज्ञानी-तू-मनुष्यात्मा पाण्डव कहलाती है।
वास्तविकता
तो ये है कि विचित्र (आत्मा) के चरित्र को चित्र (पात्र) में परिवर्तित कर दिया। समय,
स्थान, पात्रों में परिवर्तन होने के कारण सब कुछ उलट-पुलट हो गया और इसी उलट-पुलट
ने श्रीकृष्ण जोकि गीता की रचना है (रचना) को रचयिता यानि की गीता के भगवान में परिवर्तित
कर दिया।
गीता का
भगवान : गीता में भगवान
द्वारा दिये गये अपने परिचय व श्रीकृष्ण के परिचय में महान अन्तर है।
गीता में भगवानुवाच :
1. हे अर्जुन,
मैं जो हूँ, जैसा हूँ, तू मुझे उसी रूप में याद कर, तो फिर श्रीकृष्ण के रूप में कौन?
2. हे अर्जुन
तू मुझे केवल दिव्य-चक्षुओं द्वारा ही देख सकता है, लेकिन श्रीकृष्ण को तो अर्जुन साधारण
चक्षुओं द्वारा ही देखता है।
3. हे अर्जुन
तू मुझे केवल, मेरे धाम, परमधाम में याद कर, लेकिन श्रीकृष्ण का धाम तो वैकुण्ठ (स्वर्ग)
है, इसलिए उन्हें वैकुण्ठनाथ भी कहा जाता है।
4. हे अर्जुन
मैं देह के बंधन से मुक्त हूँ, लेकिन श्रीकृष्ण तो देहधारी है।
5. मैं अजन्मा
हूँ, लेकिन श्रीकृष्ण का तो जन्म होता है, जिसका यादगार जन्माष्टमी है।
6. मैं अभोक्ता
हूँ, लेकिन देहधारी होने के कारण श्रीकृष्ण ने वस्त्र भी धारण किये, इसलिए उन्हें पीताम्बरधारी
भी कहा जाता है। देह होने के कारण खान-पान का भी उपभोग किया, उनकी महिमा में गाया जाता
है दुर्योधन के मेवा त्याग, साक (साग) घर खायो।
7. मैं अकर्त्ता
हूँ, लेकिन श्रीकृष्ण तो अर्जुन का सारथी बन, कर्म करते हैं और मान भी लें श्रीकृष्ण
ने गीता ज्ञान दिया तो गीता ज्ञान देना भी तो एक कर्म हुआ ना।
इस प्रकार अनेक ऐसी विसंगतियाँ हैं जो गीता
के भगवान व श्रीकृष्ण में महान अन्तर करती हैं। अन्तत क्या सर्व को सद्गति देने वाला,
सर्व का दुःखहर्त्ता-सुखकर्त्ता, सर्व का कल्याण करने वाला परमात्मा (ईश्वर) हिंसक
युद्ध का ज्ञान दे सकता है?
सर्व को सद्गति
देने वाला, सर्व को सुख देने वाला, सर्व का कल्याण करने वाला परमात्मा (ईश्वर) शिव
हिंसक युद्ध से नहीं, बल्कि अहिंसक युद्ध के द्वारा अधर्म का विनाश कर धर्म की स्थापना
करते हैं।
अगर गीता
का भगवान श्रीकृष्ण नहीं तो फिर कौन? श्रीकृष्ण को गीता का भगवान क्यों माना गया?
गीता का भगवान
श्रीकृष्ण नहीं बल्कि स्वयं परमपिता परमात्मा शिव हैं जोकि अति सूक्ष्म ज्योतिर्बिन्दु
स्वरूप हैं।
परमपिता परमात्मा
शिव ने गीता ज्ञान किसी रथ (घोड़े गाड़ी) पर सवार होकर नहीं सुनाया बल्कि प्रथम जन्म में श्रीकृष्ण बनने वाली आत्मा
के अन्तिम 84वें जन्म में अर्जुन बनी आत्मा के तन रूपी रथ पर सवार होकर यानि की तन
में पवेश कर सुनाया। फिर वही आत्मा पुन अपने प्रथम जन्म में श्रीकृष्ण बनती है।
श्रीकृष्ण
साकार (सदृश्य) है और परमपिता परमात्मा शिव निराकार (अदृश्य) हैं, इसी साकार और निराकार
यानि की अदृश्य और सदृश्य के खेल के कारण श्रीकृष्ण को गीता का भगवान मानने की महान
भूल हुई।
महाभारत युद्ध क्यों, कहाँ और कब हुआ?
महाभारत युद्ध के मुख्य पात्र
द्रौपदी : हमारा जीवन आत्मा (देही) और शरीर (देह) इन दो के सहयोग से चलता है। आत्मा और शरीर हमारे जीवन के दो अलग-अलग भागीदार हैं। आत्मा चेतन है और शरीर जड़ है। आत्मा अपनी तीन सूक्ष्म शक्तियों की मालिक बनकर शरीर की पाँच कर्मेन्द्रियों (आँख, नाक, मुख, कान व हाथों) से कर्म करने वाली है। बार-बार किये गये कर्म आत्मा के संस्कार बनते हैं।
यही हमारा जीवन है। शरीर के माध्यम से हमारे जीवन को चलाने वाली आत्मा को ही द्रौपदी कहा गया है। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव रूपी पाँच चरित्रों (इनका वर्णन पहले किया जा चुका है) को ही आत्मा रूपी द्रौपदी के पति माने गये हैं। आत्मा रूपी द्रौपदी मूल रूप से शान्ति, सुख, पेम, आनन्द, ज्ञान, पवित्रता व शक्ति स्वरूप होती है।
इस आत्मा रूपी द्रौपदी से ही अन्य
दुःशासन, दुर्योधन, पाण्डव, कौरव, यादव आदि पात्रों की रचना होती है। कल्प के आरम्भ
सतयुग से लेकर त्रेतायुग के अन्तक तक आत्मा के मूल रूप में शक्ति स्वरूप होने के कारण
आत्मा का अपनी सूक्ष्म शक्तियों मन-बुद्धि द्वारा शरीर की कर्मेन्द्रियों पर शासन होता
है। जिसे आत्म-शासन (सुखों से भरपूर) शासन कहा जाता है। इस समय तक आत्मा का हर कर्म
अकर्म होता है, इसलिये यह आत्मा का कर्मक्षेत्र कहलाता है।
दुःशासन
: द्वापरयुग तक पहुँचते-पहुँचते
आत्मा की शक्ति कम हो जाती है। शक्ति कम हो जाने के कारण शरीर (देह) अपनी कर्मेद्रियों
के द्वारा आत्मा की शक्ति मन को वश कर अपना (देह) का शासन स्थापित कर लेती है, देह
के इस शासन को ही दुःशासन कहा गया है। यहाँ पर आत्मा अपना असली स्वरूप भूल, देह स्वरूप
बन जाती है। यह आत्मा का विकर्म क्षेत्र है, जिसे विकर्मी सम्वत् भी कहा जाता है।
दुर्योधन : आत्मा अपने असली स्वरूप को भूलने के कारण कलियुग तक पहुँचते-पहुँचते शक्तिहीन हो जाती है और आत्मा की शक्ति मन, पूर्ण रूप से शरीर की कर्मेन्द्रियों के अधीन हो जाती है। धन (अर्थ) जो आत्मा के लिए शरीर निर्वाह अर्थ था, कर्मेन्द्रियों की तृष्णा वश होकर मन ने शरीर को धन (अर्थ) उपार्जन का साधन बना लिया।
शरीर (देह) का धन उपार्जन का साधन बनना ही दुर्योधन कहलाता है। कलियुग अन्त तक पहुँचते-पहुँचते आत्मा रूपी द्रौपदी, दुःशासन और दुर्योधन के पूर्णत अधीन हो जाती है और लोभ-लालच के जुए में अपनी ईमानदारी, सत्यता रूपी युधिष्ठिर को भी हार जाती है। जिससे आत्मा रूपी द्रौपदी अशान्ति, घृणा, चिन्ता, अज्ञान व काम विकार को धारण कर लेती है। जिससे उसका हर कर्म अपने प्रति व अन्यों के प्रति पुर कर्म बन जाता है और यही कूर कर्म क्षेत्र ही उसका पुर-क्षेत्र (कुरुक्षेत्र) बन जाता है।
इसी पुर कर्म क्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र में वह स्वयं ही देह,
देह के सम्बन्ध, देह के पदार्थों से युद्धरत हो जाती है फिर दुःशासन और दुर्योधन काम
विकार द्वारा आत्मा रूपी द्रौपदी को सरे आम
(भरी सभा) में नग्न करने लगते हैं। यही वो अति धर्मग्लानि का समय है। मूल रूप से पवित्र
स्वरूप होने के कारण आत्मा रूपी द्रौपदी नग्न होना सहन नहीं कर पाती और अपने को नग्न
होने से बचाने के लिए अपने पिता परमपिता परमात्मा को पुकारने लगती है। साथ ही साथ आत्मा
की शक्ति, बुद्धि रूपी भीम, दुशासन और दुर्योधन का अन्त करने की शपथ लेती है।
तब अपने बच्चों
की पुकार सुन व गीता में किये अपने वायदे अनुसार कि जब-जब धर्म......स्वयं परमपिता
परमात्मा शिव एक बेहद धार्मिक वृत्ति, बेहद ईमानदार, सत्य निष्ठ, तीक्ष्ण बुद्धि व
अनुभवी आत्मा के तन रूपी रथ का आधार लेकर इस भारतभूमि पर अवतरित होकर, गीता ज्ञान द्वारा
पाण्डव शिव-शक्ति सेना की रचना कर, दुशासन और दुर्योधन रूपी अधर्म का विनाश कर धर्म
की स्थापना करते हैं।
पाण्डव
: जिन आत्माओं ने परमात्मा
के ज्ञान के द्वारा परमात्मा को पहचान कर, परमात्मा की श्रीमत (श्रेष्ठ मत) पर चलकर
अपना जीवन परमात्मा को समर्पित किया वो पीत बुद्धि आत्माएँ ही पाण्डव कहलाईं।
कौरव : जिन भारतवासी आत्माओं ने परमात्मा को
नहीं पहचाना, वे विपरीत बुद्धि आत्माएँ ही कौरव कहलाईं।
यादव : विज्ञान गर्वित यूरोपवासी, जिन्होंने
परमात्मा के अस्तित्व को नहीं माना वो यादव कहलाईं। कहा जाता है कि यादवों के पेट से
मूसल निकले, परमाणु मिसाईलें जोकि यूरोपवासियों की देन हैं वे ही मूसल कहलाती है।
महाभारत के
युद्ध का, अति धर्मग्लानि का व परमात्मा द्वारा गीता ज्ञान देने का समय कोई और नहीं,
बल्कि वर्तमान समय का समय है।
वर्तमान समय आप देख रहे हैं कि राजनीति व प्रशासन में भ्रष्टाचार अपनी चरम शिखर पर है। इससे ज़्यादा दुशासन हो नहीं सकता। प्रत्येक व्यक्ति में नैतिकता को त्याग कर केवल धन (अर्थ) कमाने की होड़ लगी हुई है।
लगभग सभी दुर्योधन बन चुके हैं। काम विकार के वश हो, महिलाओं ने
नग्नता को ही अपना शृंगार बना लिया है, भाई-बहन का पवित्र रिश्ता भी काम विकार की अग्नि
में भेंट चढ़ चुका है। हर मनुष्यात्मा में दुःख, अशान्ति, भय, चिन्ता, घृणा, द्वेष,
अनिश्चितता सम्पूर्ण रूप से व्याप्त है। आज विश्व की सर्व मनुष्यात्माएँ स्वयं को देह,
देह के सम्बन्ध व देह के पदार्थों में एक तरह से युद्धरत हैं।
अति धर्मग्लानि
के जो-जो लक्षण शास्त्रों में बताये गये हैं, वे सभी लक्षण वर्तमान समय में विद्यमान
हैं। उधर विज्ञान गर्वित यूरोपवासी भी अपने स्वयं के विनाश हेतु विज्ञान द्वारा अनेक
प्रकार के अस्त्र-शस्त्र तैयार कर चुके हैं।
ग्लोबल वार्मिंग से पृथ्वी भी असंतुलित हो चुकी है। कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा तो कहीं
अति वृष्टि - ये सब पाकृतिक आपदाओं की सूचना है। वर्तमान का समय भयंकर विनाश का समय
है। विश्व का महाविनाश सामने खड़ा है।
इस महाभारी
विनाश के समय में भी हम विश्व की सर्व मनुष्यात्माओं के लिए एक बेहद सुखद समाचार व
एक सबसे गुह्य रहस्य समाया हुआ है। वो सुखद समाचार है कि विश्व की सर्व आत्माओं के
पिता परमपिता परमात्मा शिव इस भारतभूमि पर अवतरित होकर, गीता ज्ञान द्वारा नव स्वर्णिम
युग के निर्माण का दिव्य-कर्त्तव्य कर रहे हैं।
सबसे बड़ा
गुह्य रहस्य यह है कि हम आत्माओं का अपने परमपिता परमात्मा से मिलने का समय केवल यही
है।
सन् 1936 में ज्योतिर्बिन्दु परमपिता परमात्मा शिव ने सिंध हैदराबाद (वर्तमान समय पाकिस्तान में है) निवासी दादा लेखराज नामक एक बेहद धार्मिक वृत्ति, बेहद ईमानदार, सत्यनिष्ठ, कर्त्तव्यनिष्ठ, तीक्ष्ण बुद्धि, हीरों के जवाहरात के व्यवसाय में कुशल व अनुभवी व्यक्ति को 60 वर्ष की आयु में साक्षात्कार के माध्यम से पुरानी दुनिया के विनाश एवं नई सतयुगी दुनिया के स्थापना की अपनी योजना से परिचित करवाया और उस आत्मा के तन में अवतरित होकर उसे एडाप्ट (गोद) कर उनका नाम ब्रह्मा रखा।
एक छोटे से 100 वर्षीय पुरुषोत्तम संगमयुग (जिसे ब्रह्मा के 100 वर्ष कहा जाता है) की स्थापना की। फिर ब्रह्मा तन का आधार ले, प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय वर्तमान में जिसका अन्तर्राष्ट्रीय मुख्यालय माउण्ट आबू (राजस्थान) में है, की स्थापना की।
(साक्षात्कार से लेकर विश्व विद्यालय की स्थापना व माउण्ट आबू में स्थानान्तरण के बारे में विश्व विद्यालय द्वारा प्रकाशित जीवन को पलटाने की अद्भुत कहानी नामक किताब से जाना जा सकता है) तब से लेकर वर्तमान समय तक स्वयं परमपिता परमात्मा शिव ब्रह्मा के द्वारा (कहा भी जाता है ब्रह्मा ने सृष्टि रची) प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के माध्यम से पुरानी कलियुगी दुनिया के विनाश एवं नई सतयुगी दुनिया के स्थापना की योजना को कार्यान्वित कर रहे हैं।
वर्तमान
समय प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय
की पूरे विश्व में लगभग 145 देशों में 8500 शाखाएँ स्थापित हैं। अनेक देश, अनेक संस्कृति,
अनेक भाषा व अनेक धर्म के होते हुए भी लगभग 8 लाख विद्यार्थी एक राजयोग (गीता में वर्णित
पाचीन राजयोग) का योगदान देकर नई दुनिया के स्थापना की ईश्वरीय योजना में मददगार बन,
अपना भाग्य बना रहे हैं। ओमशान्ति।
अधिक स्पष्टीकरण के लिए अपने शहर में स्थित
आपका तहे दिल से स्वागत है।