(भाग 2 का बाकि)
सकारात्मक विचार
हमारी मन की स्थिति का आधार हमारे विचारों पर ही होता है। हम जैसा सोचते हैं वैसा
ही अनुभव भी होता है। भय, हताशा, ईर्ष्या आदि के
कारण किये गये नाकारात्मक विचार तनाव उत्पन्न करते है एवं शान्ति, आशा सच्चाई, आत्मिक स्नेह आदि के कारण किये गये सकारात्मक
विचार स्वास्थ्य में वृद्धि करते हैं।
जिस प्रकार हम अपनी शारीरिक, भौतिक क्रियाओं को अपनी इच्छानुसार
कार्यान्वित करते हैं, ठीक उसी प्रकार राजयोगी अपनी मनस्थिति
पर इतना काबू पा लेता हैं कि वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने सकारात्मक विचारों
से स्थिति को शान्त बना सकता है।
सबसे पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि जैसे हम हाथ और पैर को अपनी इच्छा अनुसार
ऊपर-नीचे कर सकते हैं। इसी प्रकार हम जैसा चाहें वैसा विचार मन में
उत्पन्न कर सकते हैं। हम मन को जिस भी दिशा में मोड़ना चाहें, मोड़ सकते हैं। अगर आप कोई तनाव उत्पन्न करने वाली परिस्थिति का सामना करते हैं, अथवा अगर आपके विचारों
की गति तेज़ होगी तो भी ऐसी परिस्थिति में भी आप इच्छापूर्वक मन को सकारात्मक विचार
दे सकते हैं।
मनोवैज्ञानिकों की मत है कि कोई भी परिस्थिति स्वयं तनाव उत्पन्न नहीं करती है।
एक परिस्थिति का हमारे मन पर क्या असर होगा, उसका आधार हमारे
दृष्टिकोण पर है। इसी कारण जब एक-जैसी परिस्थिति अधिक लोगों के
सामने आती है तब सभी की प्रतिक्रिया भी भिन्न-भिन्न होती है।
उदाहरण के रूप में, अगर दूध का भरा एक गिलास हाथों से गिर जाता
है तो उसे देखने वाले व्यक्तियों की प्रतिक्रियाएं भिन्न-भिन्न
हो सकती है। एक व्यक्ति यह नुकसान देखढ़कर ही चिल्ला उ ठुंगा और क्रुद्ध हो उठेगा। दूसरा व्यक्ति जो दूध गिर गया
है उसे शान्ति से स़ाफ करने में मदद करने लगेगा तो तीसरा व्यक्ति कहेगा कि जो हो गया, सो हो गया आगे से पूरा ध्यान देना।
हमारी प्रतिक्रिया का आधार हमारे व्यक्तित्व पर एवं मान्यताओं पर निर्भर है। उदाहरण
के रूप में, अगर एक व्यक्ति के निकट के सम्बन्धी की मृत्यु
हो जाती है, मनोविज्ञान में ऐसी परिढ़स्थिति को क़ाफी तनाव उत्पन्न
करने वाली परिस्थिति माना जाता है। हर व्यक्ति को किसी-न-किसी समय इस प्रकार की परिस्थिति का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में
जो व्यक्ति ऐसा मानते हैं कि मानव का मस्तिष्क ही सब-कुछ है और
आत्मा-जैसी चैतन्य शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है, वे दुःखी और अशान्त हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि हमारे सम्बन्धी-स्वजन का जीवन समाप्त हो गया।
परन्तु `अजर, अमर एवं अविनाशी आत्मा'
के कारण ही व्यक्ति का जीवन है। आत्मा ही एक शरीर छोड़कर दूसरा धारण
करती है। मृत्यु जीवन का अन्त नहीं है। आत्मा में विश्वास रखने वाला व्यक्ति ऐसी परिस्थिति
में भी मन का सन्तुलन नहीं खोता है। निष्कर्ष यह है कि हमारी सभी प्रतिक्रियाओं का
आधार हमारी मान्यताओं पर होता है।
सन्तुलित
व्यक्तित्व
हमारी मन की स्थिति, आपसी सम्बन्ध, कार्यक्षमता
आदि का हमारे व्यक्तित्व के साथ गहरा सम्बन्ध है और व्यक्तित्व का प्रभाव स्वास्थ्य
पर भी पड़ता है। मनोविज्ञान में विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्व का वर्णन है। जो लोग
कम बोलते हैं, दूसरों से मिलने जुलने में हिचकिचाते हैं,
अपने हावभाव के विषय में ज्यादा सोचते हैं - ऐसे लोगों को `अन्तर्मुखी' कहा गया है। इससे विपरीत जो लोग ज्यादा बोलते
हैं, दूसरों से मिलने-जुलने में आनन्द का
अनुभव करते हैं, अपने हावभाव के विषय में ध्यान नहीं देते हैं,
ऐसे लोगों को `बाह्यमुखी' कहा गया है। सुस्वास्थ्य के लिए अन्तर्मुखता एवं बाह्यमुखता का सन्तुलन आवश्यक
है। कुछ परिस्थितियों में अन्तर्मुखी होना आवश्यक है और कुछ परिस्थितियों में बाह्यमुखी
होना आवश्यक है। जो व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाते हैं, वे समस्या
एवं तनाव को मोल लेते हैं।
टाइप `ए' एवं टाइप `बी' दो भागों में भी व्यक्तित्व का विभाजन कर सकते हैं।
टाइप ए -- जो लोग सभी काम टाइम पर करना चाहते हैं, कार्य पूरा करने की समय मर्यादा में काम पूरा न हो तो हताश एवं क्रोधित हो जाते हैं ऐसे लोग उतावले होते हैं। धीरज नहीं रख पाते, बोलने की गति ज्यादा होती है।
जिनका व्यक्तित्व इससे विपरित है, उन्हें टाइप `बी' व्यक्तित्व कहते हैं।
टाइप ए व्यक्तित्व वाले लोगों को हृदय रोग होने की सम्भवना काफी बढ़ जाती है।
राजयोग से सन्तुलित व्यक्तित्व बनता है। इसलिए एक राजयोगी आवश्ययकता अनुढ़सार मन
को मोड़ पाता है। राजयोग के नियमित अभ्यास से यह परिवर्तन आता है।
परमात्मा
में विश्वास एवं डॉक्टर की सलाह
स्वस्थ जीवन के सुनहरे नियमों के साथ-साथ आवश्यक नियम
है `परमात्मा में विश्वास'। अनेक डॉक्टरों
का भी यह अनुभव है कि कुछ मरीज़ जो बहुत अधिक व्याधि ग्रस्त हैं और डॉक्टर को भी उनकी
पुनःस्वास्थ्य प्राप्त करने की कोई उम्मीद नहीं, फिर भी वे चिकित्सा
के सभी नियमों से ऊपर उठकर रोगमुक्त हो जाते हैं।
इससे विपरीत कुछ मरीज़ जिन्हें बहुत मामूली बीमारी होती है, चिकित्सा विज्ञान की समझ के अनुसार भी उनके जीवन को कोई खतरा नहीं होता है,
फिर भी अचानक ही उनकी मृत्यु हो जाती है। ऐसा अनुभव होता है कि हम तो
सिर्फ इलाज करते हैं और कोई अदृश्य शक्ति ही रोग निवारण करती है। इसी कारण मरीज़ एवं
उनके रिश्तेदारों को भी कहते हैं कि ईश्वर को याद करो, क्योंकि
दवा के साथ-साथ दुआ भी ज़रूरी है।
परमात्मा के साथ मन-बुद्धि का सम्बन्ध जोड़ने से मन शान्त एवं शक्तिशाली
बनता है। तनाव उत्पन्न करने वाले कारणों का निर्मूलन होता है। जैसे हमें हमारे लौकिक
पिता मदद करते हैं वैसे ही सर्व शक्तियों के सागर, पारलौकिक पिता
परमात्मा भी हमें मदद करता हैं। हमारे कर्मों के अनुसार उसका फल तो हमें भोगना ही पड़ता
है, फिर भी परमात्मा की याद से बीमारी का दर्द काफी कम हो जाता
है।
जब बीमारी के चिह्न दिखाई दें तो तुरन्त ही डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए। अगर बीमारी की शुरूआत में ही डॉक्टर की सलाह ली जाये तो बीमारी जल्दी एवं सम्पूर्ण रूप से ठीक हो सकती है। बीमारी फैलने के बाद काबू में लाना बहुत मुश्किल होता है। दातों को स्वस्थ रखने के लिए छः मास में एक बार दातों के डॉक्टर को दिखाना चाहिए। चालीस वर्ष के बाद प्रतिवर्ष हृदय एवं कैन्सर के लिए जांच करा लेनी चाहिए। समय प्रति समय नियमित रूप से अपने शरीर का डॉक्टरी निरीक्षण अवश्य करवाते रहना चाहिए और शीघ्र उपचार शुरू करना चाहिए।स्वास्थ्य रूपी पूंजी को बढ़ाने के दस सुनहरे नियमों को जीवन में अपनाकर आप अनेक बीमारियों से मुक्त रह सकेंगे एवं अगर कुछ बीमारी है तो उसमें भी राहत मिलेगी।
(समापत)