आजकल युवक जब देखता है कि संसार में लोग चर्चा तो ऊँच-से-ऊँच आदर्शों की करते हैं परन्तु व्यवहारिक जीवन में तो बुराई ही पनप रही है और कि यहाँ प्राय न इंसाफ है, न सुनवाई, न सत्यता है, न मन की सफाई तो उसके मन में एक विद्रोह की भावना उठती है। वह सोचता है कि हमारा ढाँचा ही बदल कर रख दूँ। परन्तु जब उसे यह अनुभव होता है कि बुराई तो चारों ही ओर फैली हुई है तब या तो उसमें आक्रोश उत्पन्न होता है या वह निराश होकर सोचता है कि अगर इस संसार में रहना है और जीना है तो जैसे और चल रहे हैं वैसे ही मुझे भी चलना पड़ेगा।
गोया वह या
तो उत्तेजित हो उठता है और या बुराई से मेल कर लेता है। परन्तु वास्तव में बुराई को
देखकर मन में आक्रोश का विस्फुटित होता तो उस बुराई को हटाने की बजाए एक और बुराई को
मन में पालना है। पुनश्च, बुराई को देखकर निराश होना या उससे
समझौता कर लेना भी दुर्बलता का प्रतीक है और हिम्मत हारने का सूचक है। युवक,
बुराई के प्रति ये दोनों ही दृष्टिकोण स्थिति को सुधारने वाले नहीं हैं,
पहले इसी सत्य के प्रति जागो और दूसरों को भी जगाओ!
बुराई को देखकर पहले तो मनुष्य के मन में उसे मिटाने की चेष्टा उत्पन्न होती है। इसका अर्थ यह हुआ कि बुराई मनुष्य की नैतिकता को जगाने के निमित्त बन सकती है। इसलिए उतृतेजना आने के बजाए तो युवा वर्ग में जागृति आनी चाहिए और बुराई से समझौता करने की बजाए, उससे हार मानने की बकजाए मनुष्य को बुराई की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए। वह युवक कैसा जो चुनौती को स्वीकार करने से भागता है?
वह जवानी कैसी जिसमें कुछ कर गुज़रने की इच्छा की बजाए
हथियार डाल देने की चेष्टा उत्पन्न हो? अत न आक्रोश करने की ज़रूरत
है, न बुराई के अधीन होने की बात सोचना अच्छा है बल्कि जो बुराई
अन्तरात्मा को कचोट रही है, उसके द्वारा जागने और जगाने का दृढ़
संकल्प लेना ही युवा शक्ति का सदुपयोग करना है। अब यदि संसार में बुराई बहुत बढ़ गई
है तो युवक, जागो और जगाओ, न कि भागो या
सो जाओ!
संसार में बुराई को युवक नहीं मिटाएगा तो और कौन मिटाएगा? जो छोटे बच्चे हैं, वे तो संसार को बदलने में अभी सक्ष्म नहीं हैं। उनके प्रति भी युवकों का ही यह उत्तरदायित्व है कि वे संसार से बुराई को मिटाएँ ताकि ये छोटे बच्चे जब तक बड़ें हों तब तक इस संसार से निर्दयता, अन्याय, निरीहता, स्वार्थपरता और पाप मिट चुके हों। जो अति वृद्ध हैं, उनकी तो अपनी शारीरिक शक्तियाँ शिथिल होती जा रही हैं और स्वयं उनके मन में भी यह जो शुभ इच्छा है कि यह संसार अच्छा बन जाए, उसे पूर्ण करना युवकों का ही वृद्धजनों के प्रति अपना दायित्व निभाना है।
उन वृद्धजनों की भुजा भी तो युवकों को ही बनना होगा।
अत जैसे युवक ही घर की आशा का दीप होता है, वैसे ही आज का युवक
ही संसार की आशा का दीपक है। युवक जागेगा तो युग बदलेगा। इसलिए युवक, जागो और जगाओ। बदलो और इस संसार को बदल कर रख दो। सबकी निगाहें तुम पर ही लगी
हैं।
संसार को पलटने की जो शुभ इच्छा है, ढाँचे को बदलने का जो संकल्प है, एक नया दौर लाने की जो तमन्ना है, जागृति का वह पहल चिह्न है। परन्तु इस शुभ संकल्प को पूरा कैसे करें? क्या नये विधि और विधानों से यह जग बदलेगा? क्या कानून को कड़ा बनाने और सख्त दण्ड देने से, राजनीतिक नेता और राजनीतिक दल बदलने से आक्रोश व्यक्त करने, नारे लगाने से या विध्वंसात्मक कार्यों द्वारा अपने क्रोध को प्रकट करने से यह संसार सुखमय बनेगा? नहीं-नहीं। कानून और डण्डे के ज़ोर से तो किसी भी समाज को बदलना नहीं जा सकता।
आक्रोश या क्रोध से कभी
भी बिगड़े कार्य संवारे नहीं जा सकते। विध्वंसात्मक कार्यों से तो विध्वंस ही होता
है, उससे एक नये समाज की रचना नहीं हो सकती। राजनीतिक नेता या
दल बदलने से देश के लोगों की वृत्ति और प्रवृत्ति नहीं बदल जाती। इस सबके लिए तो एक
नई क्रान्ति की आवश्यकता है जो हर मनुष्य के मन में नैतिक मूल्य भर दे, हर इंसान में इंसानियत को जगा दे और हर विकृत मन में भलाई उजागर कर दे। युवा
जागो और ऐसी क्रान्ति के लिए दूसरों को भी जगाओ। ये विश्व हमारा है, इसे ठीक करना हम सभी का काम है।
आज का युवक संसार में एक क्रान्ति चाहता है। इतिहास में कई क्रान्तियों
का उल्लेख है परन्तु उन क्रान्तियों से विश्व भर में शान्ति नहीं हुई। उनसे मनुष्य
में राजनीतिक, आर्थिक अथवा वैज्ञानिक जागृति चाहे
हुई हो परन्तु उनसे इंसान की इंसानियत नहीं जागी। उन सब क्रान्तियों के बावजूद भी मनुष्य
में देवत्व अभी भी सुषुप्त है। हर मनुष्य में अच्छाई का जो बीज है वह अंकुरित नहीं
हुआ, बल्कि आज हम देखते हैं कि प्रगति करते-करते आज मानवीय समाज विश्व-संघारक अस्त्रों-शस्त्रों का निर्माण करके अपने ही हाथों अपनी ही हत्या करने की ओर अग्रसर हो
रहा है और संसार में घोर पापाचार और अत्याचार पनप रहा है तथा सत्यता और इंसाफ का खून
हो रहा है। क्या ऐसी स्थिति में भी सोए रहोगे? घोर अज्ञान-निद्रा में पड़े रहोगे? युवक, जागो,
संसार में नैतिकता को जगाओ!
यह संसार कैसे बदलेगा? यह सोचने से पहले यह सोचना ज़रूरी है कि मैं स्वयं कैसे बदलूँ? दूसरों को जगाने के लिए पहले स्वयं जागना होता है। विशेष रूप से संसार में नैतिक जागृति लाने के लिये तो पहले अपनी नैतिकता को जगाना ज़रूरी है। विश्व-परिवर्तन की शुरूआत स्व-परिवर्तन से ही हो सकती है। यदि मैं स्वयं ठीक न होऊँ तो दूसरे को ठीक होने के लिए मैं किस अधिकार से कैसे कह सकता हूँ?
विश्व में भलाई लाने के लिए पहले मुझे अपने विचारों, व्यवहारों और संस्कारों को दिव्य बनाना आवश्यक है। अत मूल प्रश्न यह है कि स्वयं मेरी अपनी नैतिक जागृति कैसे हो और फिर दूसरों में भी नैतिक क्रान्ति कैसे लाई जाए? स्वभावत इसके लिए पहले तो भलाई और बुराई का ज्ञान होना ज़रूरी है और उसके साथ-साथ ऐसे अभ्यास की आवश्यकता है कि जिससे मनुष्यका संकल्प अथवा मनोबल दृढ़ हो और उसके संस्कार बदलें। ऐसा ज्ञान जिससे मनुष्य को अच्छाई और बुराई का बोध हो ईश्वरीय ज्ञान कहलाता है और ऐसा अभ्यास जिससे मनुष्य के संस्कार परिवर्तित हों, उसकी बुरी आदतें छूटें और उसकी वृत्तियों का शुद्धीकरण हो सहज राजयोग तथा दिव्य गुणों की धारणा कहलाते हैं। ऐसे ईश्वरीय ज्ञान तथा सहज राजयोग एवं दिव्य गुणों की शिक्षा से ही संसार में नैतिकता स्थाई रूप से जागृत हो सकती है और विश्व सुखमय अथवा बेहतर बन सकता है। अत युवक अज्ञान-निद्रा को छोड़ कर ऐसी रीति से जागो और जगाओ!