(भाग 1 का बाकि)
आज युवक संसार में परिवर्तन चाहते हैं -- ऐसा परिवर्तन कि जिसमें एक मनुष्य का दूसरे के प्रति स्नेह हो, भ्रातृत्व की भावना हो और शुभकामना हो तथा इस संसार में सभी सुख-शान्ति से जीवन जीयें। इसका अर्थ यही तो हुआ कि संसार में मानवीय मूल्यों का संसार में ह्रास हो रहा है और इनकी शिक्षा भी स्कूलों और कॉलेजों में नहीं जा रही है। आज साक्षरता को बढ़ाने की ओर तो लोगों का ध्यान है परन्तु ऐसे ईश्वरीय ज्ञान, सहज राजयोग या दिव्य गुणों की धारणा की ओर समाज का कोई सफल प्रयत्न नहीं हो रहा है जिससे कि बाल वर्ग और युवा वर्ग के मन का शुद्धिकरण हो, उनके चरित्र का उच्च निर्माण हो, उनके व्यवहार का दिव्यीकरण हो और उनका आचार श्रेष्ठ हो।
दूसरे शब्दों में आज विनाशी ज्ञान अर्थात् ऐसे ज्ञान की ओर तो ध्यान है जो इस शरीर के नष्ट होने पर प्राय नष्ट हो जाता है परन्तु ऐसी विद्या की ओर ध्यान नहीं है जो मनुष्य के गुण-कर्म और स्वभाव में समावेश करके उसके शरीर छोड़ने पर भी उसके साथ रहे और भविष्य में भी उसके सद्गुणों तथा उसकी सद्प्रवृत्तियों के रूप में उसके काम आए। इसी का यह परिणाम है कि आज युवा वर्ग में अनुशासन की कमी है और जीवन में असंतोष है। यही युवा वर्ग आगे जाकर जब अपनी गृहस्थी रचता है तो वैसे ही आहार और व्यवहार को प्रचलित करता है जो स्वयं उसने अपनाए होते हैं और यही वृद्ध अवस्था में भी उसके साथ रहते हैं और आने वाली पीढ़ियों में भी प्रभाव डालते हैं।
अत अविनाशी ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग तथा दिव्य गुणों या मानवीय मूल्यों की शिक्षा द्वारा ही यह समाज बदल सकता है, नये युग का सूत्रपात हो सकता है और हर आयु-वर्ग में परिवर्तन लाया जा सकता है इसलिए, हे युवक, जो क्रानित आप लाना चाहते हो, जिस शान्ति को इस संसार में देखना चाहते हो, जिस प्रकार के स्व-अनुशासन का जीवन आपको अच्छा लगता है, उसके लिए इस विधि जागना और जगाना ज़रूरी है।
जब आपसे बड़े आपको कोई ऐसी बात करने के लिए कहते हैं तो नैतिकता के विरुद्ध है, जो सदाचार को भंग करने वाली है, जो संसार की भलाई को सामने न रखकर स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए प्रवृत्त करती है अथवा जो संसार में घृणा, द्वेष, वैमनस्य, मनमुटाव, तोड़फोड़, हिंसा, लूट-खसूट, अन्याय, अत्याचार या पापाचार में प्रवृत्त होने का सुझाव देती है तो समझ लो कि वे अपनी बड़ाई में से नीचे उतर कर आपको ऐसा निकृष्ट कर्म करने की राय दे रहे हैं।
अत उस समय आप विनम्र भाव से एवं आदरपूर्वक रीति से उनसे
कह दो कि आपकी अन्तरात्मा आपको गवाही नहीं देती कि आप उस बुरे काम को करें। युवक,
आप उनसे ये निवेदन कर दो कि आप उन बुजुर्गों की हर बात अपने सिर माथे
पर लेने को तेयार हैं और उनका हर हुक्म मानने को तैयार हैं परन्तु अपनी अन्तरात्मा
को तो मत सुलाओ। युवक, आध्यात्मिक रीति से जागो और दूसरों को
जगाओ। अच्छाई और बुराई के संग्राम में जो अन्तरात्मा को सुला देता है, वह बुराई से घायल हो जाता है। बुराई से अपना आँचल मैला करके भगवान के सामने
कैसे जाओगे?
जो ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग द्वारा स्वयं में आध्यात्मिक बल नहीं भरते, वे ही निराश अथवा हताश होते हैं। आप यह क्यों नहीं सोचते कि आप परिस्थितियों से परेशन या परास्त होने वाले हैं। युवक जागो, आप तो ईश्वरीय संतान हो, सर्वशक्तिवान परमात्मा के अमृत पुत्र हो। यही बात दूसरों को समझा कर उन्हें भी जगाओ। अपने और उनके स्वमान को जगाओ। पुरुषार्थ रूपी धनुष को धरा पर डाल कर ठोड़ी के नीचे हाथ रखकर बैठना वीरों का काम नहीं, यह युवा वर्ग का चिह्न नहीं।
युवक तो जागती ज्योति या मशाल थाम कर अंधकार को भगाने वाला प्रहरी या मार्ग-दर्शक बनता है, वह भयानक परिस्थिति का सामना करने वाला महावीर होता है। अत आप युवकों की मर्यादा और मान को मिटने न दो, बल्कि उठो, पुरुषार्थ रूपी धनुष की प्रत्यंचा रूपी प्रत्यंचा की टंकरा करो तो तुम्हारी विजय निश्चित है। जो सत्य का साथ देता है, जो ईश्वर के हाथ मतें अपना हाथ देता है, वह प्रभु-वत्स है। जो बुराई से मिल जाता है, वह माया का मुरीद है।
जो निराश होकर हाथ-पर-हाथ रख कर बैठ
जाता है, वह दिलशिकस्त है और परिस्थितियों का सामना करने की बजाए
भाग जाता है, वह कायर है। परन्तु आप तो अदम्य उत्साह और अमिट
उमंग के धनी हो। अत उठो और देखो कि यदि किसी भी प्रकार की बुराई के थोड़े-से अंश ने आपके मन में कहीं छिप कर भी डेरा डाल रखा है तो उसे वहाँ से इस संसार
में बुराई ने घुस कर यत्र-तत्र-सर्वत्र
डेरे डाल दिये हैं और अब इस संसार को माया के जाल से निकालना है और उसके लिए आप पर
ही सभी की आशा टिकी है।
बुराई क्या है और भलाई क्या है? पाँच तत्वों से बने, हड्डी-माँस के ढाँचे की नारी आकृति रूपी चोले को देखकर उससे छेड़छाड़ करना बुराई है। युवक नारी जाति की रक्षा करने की बजाए यदि नारी को अपमानित करता है, उसके स्वमान को आहत करता है, उसकी लाज लूटने का घृणित कार्य करता है तो मानो कि वह बुराई का ही पक्षधर है। वह स्वयं आत्मा को भूल कर, गोया आत्मा रूपी सत्य पर पर्दा डाल कर अथवा ज्ञान-चक्षु पर पट्टी बाँध कर विवेक को सुला देता है।
अपनी दृष्टि को विकृत करके
नारी जाति के वर्चस्व पर कुठाराघात करने का संकल्प करना पाप ही नहीं महापाप है। यह
काम विकास है जिसे नर्क का द्वार कहा गया है। नारी जाति के प्रति सद्भावना और सद्वृत्ति
को छोड़कर, उसके प्रति सम्मान का और अपने स्वमान को भुलकर अपने
माथे पर कलंक का टीका लेने तथा दूसरे को भी कलंकित करने की कृत्सित चेष्टा बुराई ही
तो है। युवक तुम कभी भी इस बुराई के चक्कर में न फँसना और दूसरों को भी इस दलदल में
फँसने से सावधान करना।
घृणा, द्वेष या बदले
की भावना की आग को अपने मन में भड़का कर स्वयं भी उसमें जलना और दूसरों पर भी उस क्रोध
रूपी आग की गोलाबारी करके उनके साथ शत्रुता का व्यवहार करना बुराई ही का झंडा बुलंद
करना तो है।
फिर, भूख न होने पर अथवा भोजन कर लेने पर भी बार-बार खाना, वस्त्रों और वस्तुओं को आवश्यकता से बहुत अधिक इकट्ठा करना और उसके लिए भ्रष्ट साधन अपनाना तथा दूसरों के अधिकार को छीन कर अथवा उनका शोषण करके या उन्हें वंचित करके भी अपने संग्रह को बढ़ाना बुराई ही तो है। यह लोभ नामक मीठा विष है जिसके कारण संसार में अन्याय और हाहाकार मचा है।
अत क्रोध और लोभ के भंवर से निकलो और दूसरों को भी बचाने का यत्न करो। युवक, देह-दृष्टि के आधार पर अपने और पराये में भेद करके अपनों को अनुचित लाभ देना और परायों की योग्यता की भी अवहेलना करते हुए उनके साथ अन्याय करना अथवा अपनों को किसी भी कर्मभोग भोगते देखकर धीरज को खो बैठना या उनके लिये धर्म को भी छोड़कर अनुचित रीति से भी उनके लिए धन-साधन इकट्ठे करना बुराई नहीं तो क्या है?
इस मोह के कारण ही तो यह संसार शोक सागर
बना हुआ है। इसी के कारण ही तो यहाँ लूट-खसूट का बाज़ार गर्म
है। अत तुम इस मोह के चक्रव्यूह को तोड़ डालो और दूसरों के भी शोक के इस कारण का निवारण
करो।
अपने शारीरिक बल पर इतराते हुए दूसरों पर आवाज़ कसना, उन पर तुन्का लगाना, उन्हें डराना,
धमकाना, किसी नेता से अपना परिचय होने की धौंस
जमाना, अपने पिता-पितामह की पदवी या प्रतिष्ठा
के बलबूते पर दूसरों से दुर्व्यवहार करना, अपनी विद्या के नशे
में चूर होकर अपने सहपाठियों से ऐंठ मरना या अपने अध्यापकों का भी अपमान करना भी बुराई
ही तो है। इसी का नाम तो अभिमान है। इसी से ही तो संसार में रगड़ा-झगड़ा है। अत युवक इस अभिमान रूपी शत्रु से सजग हो जाओ और इसे अपने पास ही
न आने दो!
युवक, ये पाँचों बुराईयों
देह-अभिमान ही के कारण अर्थात् स्वयं को आत्मा न मानकर देह मानने
ही के परिणामस्वरूप प्रगट होती हैं। इसलिए देह-अभिमान ही सर्व
प्रकार के पाप और संतान का मूल है। देह-अभिमान की बजाए स्वयं
को तथा अन्य सभी को आत्मा मानने से तथा परमपिता परमात्मा की संतान जानने से ही विश्व-भ्रातृत्व की भावना जागृत होती है। युवा, जागो,
ऐसी भावना को जगाओ, अब इन विकारों को भगाओ और पवित्रता
को अपनाओ।
युवा यह बुराई ही सुख और शान्ति की शत्रु है। अत आपका आक्रोश किसी व्यक्ति के प्रति नहीं बल्कि इन मनोविकारों ही के प्रति होना चाहिए। आपके मन में विद्रोह सरकार, परिवार या आचार्य के प्रति होने की बजाय पापाचार ही के प्रति होना चाहिए। यही तुम्हारी शत्रु हैं। इन्हीं के कारण ही असत्य, अत्याचार और अन्याय संसार में फैला हुआ है। अत उठो, इस अनैतिकता को मिटा कर जन-मन में नैतिकता को जगा दो।
अपवित्रता को भगा कर पवित्रता को बिठा दो। काम के स्थान पर ब्रह्मचर्य को, क्रोध की बजाये स्नेह, शान्ति और शीतलता को या धैर्य और मधुरता को, लोभ की जगह संतोष, उदारता, सहानुभूति और दान-वृत्ति को, मोह की जगह अनासक्ति, निष्पक्ष भाव या वसुधैव कुटुम्बकं की भावना की और अहंकार का नाम-निशान मिटाकर नम्रता, निमित्त भाव दूसरों के प्रति सम्मान भाव तथा भ्रातृ भाव को सुदृढ़ करो।
जागो,
अब देर मत करो क्योंकि इन मनोविकारों की आग भड़क उठी है, संसार इनमें जल रहा है, हर मन में इनकी चिंगारियाँ चमक
रही हैं। आप ज्ञान की अृमत-वर्षा से, योग
के आनन्द से, दिव्य गुणों की शीतलता और शान्ति से इनको मिटाओ
और उन्हें भी सहयोगी बनाओ। लोगों को अब यह राहत देने का कार्य करो। अब इसी आध्यात्मिक
समाज सेवा और स्व-उन्नति में प्रवृत्त होवो!
युवक, ज़रा सोचो तो सही कि रिश्वत, मिलावट और बनावट किस कारण हैं? ये लोभ वृत्ति ही के कारण से तो है? ये दहेज के बढ़ते हुए तकाज़े और नारी-दहन जैसी निर्दयतापूर्ण दास्तानें किस कारण से हैं? यह लोभ और लालच ही की मानसिक कालिमा के कारण ही तो है। यह बलवे, जातीय दंगे, तोड़फोड़ की वारदातें और हड़तालें क्रोध की धधकती हुई अग्नि का ही तो परिणाम है।
अत अब जागो, अपने मित्र को भी पहचानो और दुश्मन को भी जानो। निश्चय ही यह पाँच विकार ही
तुम्हारे शत्रु हैं और प्रेम, शान्ति तथा पवित्रता के सागर परमात्मा
ही तुम्हारे परम मित्र हैं। मित्र से अपनी मित्रता निभाओ और विकारों रूपी महाशत्रुओं
का बीज ही नाश कर दो। अन्य किसी प्रकार की तोड़-फोड़ करने की
बजाए इन विकारों के पहाड़ों को तोड़ डालो क्योंकि यही तुम्हारी तथा संसार की सच्ची
प्रगति में रुकावट है। अत यदि हिम्मत है तो विकारी संस्कारों रूपी पत्थरों की तोड़-फोड़ करके दिखाओ!
युवक, दहेज की माँग करने वाले को तो मँगता अथवा भिखारी ही बनने की आदत पड़ जाती है। माँगने पर यदि दहेज मिले तो भी बुरा है और न मिले तो भी बुरा है। यदि माँगने पर भी किसी को मुँहमाँगा या मन चाहा दहेज नहीं मिलता तो वह उसे इज्ज़त का सवाल बनाकर और अधिक भड़क उठता है। यदि माँगने पर किसी को दहेज मिल जाता है तो वह और तकाज़े करने लगता है क्योंकि वह यह सोचता है कि अगर अधिक माँगता तो शायद उतना मिल भी जाता परन्तु पहले उतना नहीं माँगा तो चलो अब कुछ और माँग लेता हूँ।
अत उसमें माँगने की आदत पड़ जाती है। वह यह नहीं सोचता कि
जब उसकी बहन या पुत्री के प्रसंग में कोई ऐसे तकाज़े करेगा तो उस समय उसे कैसा लगेगा
और तब वह किस न्याय से उन्हें इंकार करेगा। फिर यदि कोई यह सोच कर दहेज माँगता है कि
संसार में बुराई तो पहले ही फैल चुकी है और समय आने पर हमें भी तो किसी को दहेज देना
पड़ेगा तो गोया वह भी बुराई में अपने हाथ रंगने को तैयार है। युवक, इस प्रकार कुप्रथा को अपनाना तो भेड़चाल ही नहीं, यह
तो पाप को बढ़ावा देना है।
युवक, यह कैसी विडम्बना है कि नर जिससे जीवन-साथी या अर्धांगनी का सम्बन्ध जोड़ने की चेष्टा करता है, उसे पैसे भी साथ लाने के लिए कहता है। संसार में दासी को भी धन देना पड़ता है, गाय-भैंस खरीदना हो तो उसके लिए भी पैसे देने पड़ते हैं, दास-प्रथा के काल में गुलामों को भी पैसा देकर ही खरीदा जाता था परन्तु आज का युवक उससे भी आगे निकल कर नारी को सजे-सजाये रूप में लाना चाहता है, उससे जीवन भर सेवा की भी आशा करता है और साथ में कहता है कि वह अमुक-अमुक मूल्यवान सामान भी साथ लेकर आये!
क्या यह न्याय है? युवक, तुम जागो, इस मायाजाल से निकलो, रेत के ढेर पर अपने जीवन की अट्टालिका को खड़ा करने की व्यर्थ भावना को त्यागो! समाज में अब एक ऐसी जागृति लाओ कि मनुष्य अपने सम्बन्धों में सौदेबाज़ी छोड़ दें। वह घर की सदस्या बनने वाली सुशीला नारी की हत्या का महापाप करना बंद कर दे। उससे धन की माँग कर उसे सताना समाप्त कर दे। वह उसे दासी या भोग्या समझने रूप घिनौने पाप की वृत्ति को त्याग दे। युवक, तुम धर्म के रक्षक बनो, पवित्रता के प्रहरी बनो, स्वामी कहला कर काम या लोभ का कुठारघात तो न करो।