(भाग 5 का बाकि)
इसे जीवन में उतारने के उपाय
सुरदुर्लभ जीवन की सार्थकता का सारा मर्म इसी मौन में समाया हुआ है। इसलिए इसको
जीवन में उतारने के लिए दृढ़ संकल्प को धारण करें तो आप अपने जीवन-मूल्यों और अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने में सहज रूप से सफल हो जायेंगे।
सप्ताह में इसे एक दिन से प्रारम्भ करें। फिर धीरे-धीरे प्रतिदिन
थोड़े घण्टे मौन में बिताने का लक्ष्य बनाए। जिह्वा के प्रभाव से मुक्त होते ही अन्तस्
का प्रभाव शुरू हो जायेगा। वहाँ मात्र बुराई ही नहीं है, परन्तु
अच्छाई भी है। यह अच्छाई वास्तव में बुराई की तुलना में अनन्त गुना अधिक है।
थोड़े समय के लिए बोलना बन्द कर दें। वे बाह्य निमित्त जैसे रेडियो, टी.वी., पुस्तकें इत्यादि,
जिससे संकल्पों को उत्तेजना मिलती हो, थोड़े समय
के लिए बन्द कर दें। प्रारम्भ में आन्तरिक शोरगुल बढ़ जायेगा, परन्तु क्रमश वह कम होता चला जायेगा क्योंकि मन को पता चल जाता है कि आत्मा
जो वास्तविक मालिक है, उसने मौन होने का दृढ़ संकल्प धारण कर
लिया है और तब आत्मा की वास्तविक शान्ति की शक्ति के क्षेत्र में आप प्रवेश कर जायेंगे।
इसके लिए दूसरा अभ्यास है -- थोड़े-थोड़े समय के अन्तराल पर चुनाव रहित क्षणों में ठहरना। होता क्या है कि हम सुबह से शाम तक हाँ, ना, तुलना, मूल्यांकन, विश्लेषण इत्यादि हज़ारों विचारों में उलझें रहते हैं और प्रतिपल अन्तर में एक प्रकार की संघर्षात्मक अवस्था बनी रहती है जो हमें अपनी ही आत्मा की शक्तिशाली स्थिति तक पहुँचने में अवरोध पैदा करती है।
इसके
लिए मौन में रह कर अन्दर चल रहे वार्त्तालाप अर्थात् विचारों को विराम देने का प्रयास
करें। अपने दो विचारों के बीच अंतराल पैदा करें और उस अंतराल में ठहरने का प्रयास करें।
इसी निसंकल्प स्थिति में हमें मौन का महत्त्व और अपने वास्तविक `मैं' की अद्भुत क्षमता से मिलन हो जायेगा। इसके लिए पूरे
दिन में कम-से-कम एक घण्टे के लिए इस अभ्यास
को करें कि हम इस एक घण्टे में चुनाव रहित स्थिति में रहेंगे। इस प्रक्रिया को बढ़ाते
चले जायें।
मौन रहने की कला सीखें
मौन रहने के लिए जंगल में जाने की ज़रूरत नहीं है। मौन के प्रति थोड़ी समझ को विकसित करने की ज़रूरत है। इतना ध्यान रहे कि फालतू बोलने से अपने को बचायें, जब तक यह निश्चित न हो जाये कि इससे किसी का हित होने वाला है। इस प्रक्रिया को धीरे-धीरे बन्द करते जायें। इसके लिए भीतरी उपेक्षा की ज़रूरत है। मन तभी तक किसी दिशा में सक्रिय रहता है जब तक उसमें उसका आकर्षण हो।
चाहे वह राग हो या द्वेष हो, पक्ष हो या विपक्ष हो, मित्र हो या शत्रु हो। उपेक्षा का अर्थ है, अब हम चल रहे मन के विचारों में कोई रस नहीं लेते हैं। थोड़ा प्रयोग करें। साक्षी होकर विचारों को देखना सीखें। जब मन में कोई विचार चले या मन बोलने लगे तो उसको सहयोग नहीं दें। उसके प्रति साक्षी हो जायें। उसे कहें, तुम्हें जितना चलना हो चलो, जितना बोलना हो बोलो। मैं कोई साथ देने वाला नहीं हूँ। मैं देखता रहूँगा। तुम्हें चलना है तो चलो नहीं चलना है तो नहीं चलो। मेरी तुम्हारे में कोई रुचि नहीं है।
इसलिए देखना की कला सीखने के लिए उपरोक्त सभी विघ्नों को ध्यान में
रख कर दृढ़ संकल्प, धैर्य और शान्ति से इस प्रक्रिया को करते
जाना है। थोड़े समय के बाद ये दृश्य और ये विचार शनैः-शनैः कम
होकर दिखना बन्द होने लगेंगे। इसमें अलग-अलग लोगों का पुरुषार्थ
काल अलग-अलग हो सकता है, परन्तु यह निश्चित
है कि प्रयत्न की तीव्रता जितनी अधिक होगी, घटना घटित होने में
उतना ही कम समय लगेगा।
जैसे राजा जनक के प्रश्न का उत्तर देते हुए अष्टावक्र ने कहा था -- ``राजन, मुक्ति में उतना ही समय लगेगा जितना एक पाँव रकाव में तथा दूसरा घोड़े की पीठ पर भी नहीं पहुँचा हो''। निसंकल्प होते ही द्रष्टाभाव भी विलीन होने लगता है और तब प्रारम्भ होता है, मौन का अनन्त साम्राज्य, जहाँ द्रष्टा और साक्षी भाव मौन और शान्ति के सागर में समा जाता है। न कहीं जाना, न कहीं आना, न कुछ करना।
बिन्दू रूप में आत्मा, सिन्धु रूप परमात्मा के प्यार में समा जाता है जैसे रस में रसगुल्ला। थोड़ा
साक्षी, थोड़ी उपेक्षा बस। आप अन्दर से धीरे-धीरे मौन होने लगेंगे। साक्षी और उपेक्षा दो संकल्प-शक्ति
आपके अन्दर पैदा होने लगेगी, जो अन्दर और बाहर सतत् चल रहे बोलने
की प्रक्रिया को रोकने में सहयोगी साबित होगा।
कुछ करना नहीं है। कुछ समय के लिये मौन होकर अपने चित्त के अन्दर व्यर्थ के कूड़े-कचरे को समाप्त करना मात्र है। यह होगा अपनी दिनचर्या में इसको ध्यानपूर्वक उतारने से। सृष्टि में जितने भी श्रेष्ठतम सृजन हुए हैं वह साइलेन्स अर्थात् मौन में हुए हैं।
सफलता की साधना में यदि कुछ कमी आ जाती है तो उसका कारण यही होता है कि हमने
मौन को जीवन में खो दिया है। मौन के निर्मल जल से चित्त के गन्दे पात्र को धोया जा
सकता है, लेकिन हमने मौन को खो दिया है। दिन-रात सोते-जागते हरदम हम बातचीत में मशगुल रहते हैं और
यह बातचीत या तो दूसरे से करते हैं या अपने से।
सोने से पहले रात्रि में एक घण्टे के लिए बिल्कुल मौन में प्रभु की याद में चले जायें और र्निसंकल्पता की स्थिति में सो जायें। अमृतवेले सुप्रभात में जो धूल व्यर्थ संकल्पों के रूप में, स्वप्नों के रूप में आपकी चेतना को थोड़ा गन्दा कर गया है, उसे मौन में, शान्ति के सागर परमात्मा से योग लगाकर अपने में शान्ति की शक्ति भर कर प्रभु की याद से उसे पुन साफ कर दें। रास्ते चलते, कार्य करते इतना ख्याल ज़रूर बना रहे कि हम मौन में हैं।
दो-चार दिन थोड़ी दिक्कतें आयेंगी, क्योंकि हमारी व्यर्थ
संकल्प चलने की आदत काफी गहरी और लम्बी है, परन्तु भीतर चुप्पी
हो, कोई संकल्पों की हलचल नहीं हो। चाहे आप कहीं भी हो,
ऑफिस में या दुकान पर। जिस क्षण आप मौन हैं, उसी
क्षण में धीरे-धीरे आपके अन्दर नई सुखद आनन्द की सुवास फैलनी
प्रारम्भ हो जायेगी। बिल्कुल मरजीवा ज़िन्दगी का आभास होना प्रारम्भ हो जायेगा। सभी
प्रकार की जड़ता टूटने लगेगी। पूर्ण मौन में स्थापित होते ही
आप अपने आत्मिक-स्वरूप के अनुभव में चले जायेंगे, शरीर भूल जायेगा।
इस संसार में जो भी शिक्षा व श्रेष्ठतम् पाने जैसा है वह मौन ही है। संसार 24 घण्टे ही आपके इस मौन को तोड़ने में लगा रहता है। इसलिए सबसे बेहतर है कि आप चुप हो जायें। जब अन्तकरण में सब बातचीत समाप्त हो जायेगी उस घड़ी में जब निपट सन्नाटा हो, वैसे ही जैसे दूर एकान्त जंगल में सब शान्त हो, पक्षी भी नहीं बोलता हो, हवा से पने की सरसराहट भी नहीं होती हो, उस क्षण में आप अपनी आत्मिक अनुभव की ऊँचाई पर होंगे।
प्रभु-मिलन के आनन्द के सागर में खो गये होंगे। उसी समय ऐसा अनुभव
होगा कि आत्मा मालिक है। अहंकार शून्य उन्हीं क्षणों में सभी रहस्यों से हमारा घनिष्ठ
सम्पर्क हो जायेगा और पाना था, सो पा लिया के भाव मन से प्रवाहित
होने लगेंगे। इसके लिये विचारों के प्रति साक्षी होने की ज़रूरत है।
मात्र सावधान रहे कि हम व्यर्थ की बकवास को अपने अन्दर नहीं चलने देना। जब व्यर्थ संकल्प चलें, तो मात्र शान्त होकर, बिना किसी चुनाव के उसे देखें, ऐसे ही जैसे आकाश में बादल के टुकड़े तैर रहे हैं, वैसे ही चित्त के आकाश में विचारों के टुकड़े तैर रहे हैं। साक्षी होकर देखने मात्र से एक नया अनुभव आरम्भ होगा कि मन कैसे बातचीत में लगा है और आत्मा शान्त, मौन खड़ी है।
इसी साक्षी
भाव में ध्यान जब देने से एक समय ऐसा आयेगा व्यर्थ के विचार समाप्त होने लगेंगे। एक
नई विचार-शक्ति, इच्छा-शक्ति आपके अन्दर पैदा होगी। लेकिन विचार करने से नहीं, व्यर्थ के विचारों के समाप्त होने से ही विचार-शक्ति
पैदा होती है।
इसलिए हे सफलता और दिव्यता के साधको, मौन में डुबकी लगाओ। मौन को अपने भीतर लाओ। वहाँ शान्ति का परम राज्य है। वहाँ एक अनिवर्चनीय आनन्द की रसधारा बह रही है। अनन्त स्त्राsत है दिव्य शक्तियों का, जहाँ जाते ही सब थकान, सन्ताप और उदासी समाप्त हो जाती है। जितना भूल सकें देह, देह के सम्बन्ध और देह के पदार्थ को उतना भूलें। यह मौन बड़ा शुभ है।
जैसे-जैसे मौन गहरायेगा वैसे-वैसे आपकी वाणी भी प्रमाणिक होती चली जायेगी। उस बोल में अत्यन्त माधुर्य होगा। उससे सत्य की सुगन्ध आने लगेगी। अब आपको लगेगा, बोलने में भी आपका मौन खण्डित नहीं होता है। उसका एक अन्तर प्रवाह सतत् बना ही रहता है। एक बार मौन में डूब जाओ फिर तुम्हारी वाणी में एक सुगन्ध, एक विशालता और एक गहराई आ जायेगी। मौन की यह अन्तर दशा बोलने में भी भंग नहीं होती है।
मौन जीवन में इतनी बड़ी घटना है
अगर एक बार घट जाये फिर बोलते रहने पर भी बोलना ऊपर-ऊपर अभिनय हो जाता है। पहले भीतर विचार और बाहर मौन होता था, अब भीतर मौन होगा और बाहर विचार होंगे। एक बार
इसका प्रयोग करें तो सफलता का कंटीला मार्ग मंगलमय हो जायेगा, मार्ग ही मंज़िल बन जायेंगे। यह यात्रा तो ठहरने की है, जहाँ चलना ही सब गतियों को ठहराना है।
(समाप्त)