जीवन में मौन का माधुर्य (Part 5)

0

 


(भाग 4 का बाकि)


बाहर का मौन भीतर के मौन में सहायक है

वास्तव में मौन का अर्थ सिर्फ चुप हो जाना नहीं है। मौन का सत्य अर्थ तो चित्त की निसंकल्प अवस्था है। जहाँ वाणी और विचार दोनों शान्त हो जाते हैं, परन्तु प्रारम्भ तो हमें बाहर के मौन से ही करना होगा। सच्चाई तो यह है कि बाहर और भीतर दो नहीं। आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जैसे प्यास भीतर होती है और पानी हम बाहर से डालते हैं तो प्यास अन्दर से मिट जाती है। इसी तरह बाहर की खामोशी व्यर्थ की विचारधारा को रोकने में सहायक सिद्ध होती है।

बहुत बार तो अन्दर चल रही विचार शृंखला बाहर बोलने का एक तरह का अभ्यास मात्र ही साबित होता है। जैसे नौकरी के लिए इन्टरव्यू देने वाला व्यक्ति बहुत बार सोचता है। उसका एक कारण यह भी है कि 24 घण्टे उसे उसकी ज़रूरत रहती है। उन विचारों को परखने से पता चलता है कि कुछ सोच तो भविष्य में बोलने की तैयारी है और कुछ सोच अतीत में अपूर्ण रही हुई बात।

जैसे यह करना था नहीं किया, यह जवाब देना था पर गलत जवाब दे दिया इत्यादि। अगर कोई चुप रहे तो धीरे-धीरे उसके अधिक बोलने की आदत भी कम हो जायेगी। बहुत बातचीत करने से बहुत ज़्यादा मन चलता है। अगर कोई बीच-बीच में थोड़े समय के लिए बोलना बन्द कर दे तो उसने मानो व्यर्थ संकल्पों की रीढ़ ही तोड़ दी है। उदाहरण ö यदि कोई दो वर्ष तक पालथी मारके बैठ जाये और अचानक चलना चाहे तो चल नहीं सकेगा, चलेगा भी तो गिर जायेगा। 


मौन के लिए विचारों का अवलोकन करना सीखें

मौन के लिए एक निर्मल और स्थिर चित्त चाहिए जिसमें आपको अपने विचारों का मात्र अवलोकन करना है, न कि उसका विश्लेषण। पश्चिम के मनशास्त्री ने मानसिक शुद्धि के लिए और समस्याओं के समाधान के लिए विचारों के विश्लेषण का मार्ग अपनाया। इसके पीछे उनका प्रयोजन यह था कि विश्लेषण के माध्यम से समस्या की जड़ तक पहुँचा जा सकेगा है और समस्या को समझते ही उसका समाधान सम्भव हो जायेगा, परन्तु निष्कर्ष यही निकला कि उसकी समस्या पूर्ववत ही बनी रही।

जिस प्रकार सिर्फ जानने का ज्ञान हो जाने के क्रोध, ईर्ष्या इत्यादि मानसिक विकारों का नाश नहीं हो जाता, ठीक उसी प्रकार मानसिक विश्लेषण से आन्तरिक कमियों-कमज़ोरियों का नाश नहीं हो जाता है। एक समस्या का निराकरण हुआ नहीं की दूसरी दस प्रकार की अन्य नई समस्याएँ मनुष्य के सामने आ खड़ी होती हैं। इसलिए इन विश्लेषणों में उलझने से कोई लाभ नहीं कि ये विचार क्यों आए कहाँ से आए, कैसे आए इत्यादि। इसके लिए आपको विश्लेषण नहीं, अपितु द्रष्टा भाव या देखने की शक्ति का विकास करना होगा।

यहाँ देखने में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या हमें बुद्धि के माध्यम से देखना है? नहीं, क्योंकि बुद्धि द्वारा देखने की प्रक्रिया में प्रयत्न समाया रहता है। बुद्धि द्वारा देखने का जो माध्यम हमारे पास है, वह है -- शब्द, विचार और समय। अतीत द्वारा समस्त संग्रहित ज्ञान, अनुभव और संस्कार हमारे स्मृति के भंडार में उपस्थित हैं।

उदाहरण स्वरूप हमारे समक्ष कोई परिस्थिति पैदा हुई, किसी कार्य के समाधान के लिए कोई प्रश्न उपस्थित हुआ, कोई दृश्य या कोई व्यक्ति आया तो बुद्धि अपने ही संचित कोष से उसका समाधान ढूँढ़ निकालने, निर्णय करने उसे लागू करने के कार्य में जुट जाती है और यह सभी कार्य बुद्धि शब्दार्थ-मुक्त प्रक्रिया द्वारा करती है। हमारे अचेतन मन में इतना कुछ समाया हुआ है कि 500 वर्ष का जीवन भी बुद्धि के विश्लेषण के लिए कम पड़ेगा। इसलिए बुद्धि द्वारा उसका विश्लेषण नहीं करना हैं।

इसके लिए जो हमारा अस्तित्वगत स्वभाव है, जिसे हम आत्मा का स्वभाव कहते हैं, वह है -- साक्षी-द्रष्टा का स्वभाव। आत्मा का यह जो साक्षी-द्रष्टा भाव या दृष्टत्व स्वभाव है उसी के माध्यम से देखना है। इसके लिए हमें क्या करना होगा? अचेतन से आ रहे विचार प्रवाह को प्रतिक्रिया मुक्त हो कर देखना है। प्रतिक्रिया मुक्त होकर देखने की विधि को सीखना परम आवश्यक है।

 

सीखने के मार्ग में बाधाएँ --

1. धैर्य और शान्ति का अभाव।

2. निर्णय और विश्लेषण में उलझना।

3. अपनी वास्तविकता को स्वीकारने में हिचकिचाहट।

 

धैर्य और शान्ति का अभाव -- पच्चीस-तीस या चालीस साल के बाद मनुष्य में सहिष्णुशीलता का अभाव होने लगता है। सांसारिक संघर्षों में उलझ कर मनुष्य अपनी सहिष्णुशीलता की धारणा शक्ति प्राय क्षीण हुआ महसूस करने लगता है। जबकि अचेतन के अवलोकन की प्रक्रिया सीखने के लिए धैर्य और शान्तचित का होना अत्यन्त ज़रूरी है।

अपने बच्चों को तो बड़ी ही सहजता से हम यह कह देते हैं कि बैठकर अपना पाठ पुरा करो, परन्तु मौन होकर यदि हमें खुद बैठना हो तो दो-चार दिन में ही इससे हार मान लेते हैं। दो, चार दिन भी इसका अभ्यास नहीं कर पाते हैं कि उससे मिलने वाले सम्भावित परिणामों के प्रति बेचैनी से उन्मुख हो जाते हैं ö उसे बच्चे की तरह जो आम की गुठली को जमीन में गाढ़ देता है और दिन में दो बार उसे कुदेर कर देखता है कि इसमें अंकुर आया की नहीं।

निर्णय और विश्लेषण में उलझना -- जैसे ही हम शान्त निरीक्षण प्रारम्भ करते हैं तो विचारों के आते ही हम मूल लक्ष्य को भूल कर उसके विश्लेषण में फंस जाते हैं। पुन अपना मूल उद्देश्य याद आता है कि हमें विचारों को देखना है न कि विश्लेषण करना। भूलना और स्मृति का वापस लौटना, इस प्रक्रिया का पुनरावर्तन होना प्रारम्भ में उबाऊ हो सकता है, परन्तु दृढ़ता सम्पन्न अभ्यास से आप थोड़े ही दिनों में पायेंगे कि आप अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने में सफल हो रहे हैं।

इसके साथ ही दूसरी कठिनाई यह उपस्थित होने लगती है कि कब तक इसे देखना है? क्योंकि आज के युग में मनुष्य अवसरवादी तथा उपयोगितावादी दोनों ही हैं। इसलिए समय-बोध बड़ी ही सघनता से मनुष्य के जीवन में बना ही रहता है। आज व्यापार करना हो कि नौकरी या फिर अन्य आजीविका के काम, यह तो मनुष्य को मज़बूरी में करना ही पड़ता है, परन्तु मौन के अभ्यास को वह इतना महत्त्व नहीं देता है।

काश! यदि मनुष्य की प्रज्ञा का विकास हुआ होता तो वह यह देख सकता था कि मृत्यु कैसे उसकी समस्त अनिवार्यता को बिना किसी पूर्व सूचना के समाप्त कर देता है। यदि इस सत्य का इंसान को अनुभव हो जाये तो इस अभ्यास के लिए समय निकालने में, उसे कोई मुश्किल नहीं होगी।

अपनी वास्तविकता को स्वीकार करने में हिचकिचाहट तथा भय -- अंतरावलोकन की यह तीसरी अवस्था सबसे कठिन है। इस प्रक्रिया में अन्य कई महत्त्वपूर्ण रुकावटें हैं। जैसे ही हम शान्त और मौन होकर विचारों को देखना प्रारम्भ करते हैं, विचारों की आँधी चलने लगती है। मन में संचित अनेक सुखद, दुःखद घटनाओं की स्मृति, अनुभव, अतृप्त कामनाएँ, आकांक्षाओं की अंतहीन लहर चित्त के ऊपरी तल पर प्रकट होने लगती है।

जन्मों से संचित संस्कार स्पन्दनों, शब्दों, रूपों और चित्रों के माध्यम से नैनों के सामने दिखाई देने लगते हैं। इस अवस्था में मनुष्य निर्णय की प्रक्रिया में उलझ जाता है और यह सोचने लग जाता है कि क्या मैं इतना बड़ा आदमी हूँ? लोग तो मुझे अच्छा समझते हैं और शान्ति का अवतार मानते हैं और अंहकार की अब तक की समस्त आन्तरिक वास्तविकता चित्त के ऊपरी तल पर प्रगट होने लगती है।

जिस मिथ्या दंभ के कारण आप फूले नहीं समाते थे उसका समस्त रंग-रोगन उड़ता नज़र आने लगता है। स्वयं के द्वारा निर्मित वे आकर्षक छवि और अन्य स्वीकृत मान्यताएँ टूट-टूट कर बिखरने लगती हैं। क्षुद्रता का अहसास होने लगता है। तब आपको पहली बार अपने आन्तरिक कुरूपता का आभास होने लगता है। जिसके कारण खुद के प्रति हीनता और भय के भाव पैदा होने लगते हैं।

अभी तो मौन की छाया भी प्रगट नहीं हुई, साक्षी-द्रष्टा के भाव का श्रीगणेश भी नहीं हुआ कि स्वनिर्मित आकृति मिलने लगती है। उसी तरह दूसरों के द्वारा प्रतिनिर्मित धारणाओं के अनुरूप हम अपने बाह्य व्यक्तित्व की झूठी काया निर्मित कर लेते हैं। पति-पत्नी, पिता-पुत्र, अड़ौसी-पड़ौसी हमें जितना अच्छा समझते हैं हम उतना ही रूप उनके सामने प्रगट कर बाकी सबकुछ छिपा लेते हैं।

इस प्रकार वास्तविकता से दूर अपने ही पाखंडी स्वरूप में मनुष्य उलझ कर रह जाता है। अवलोकन की इस प्रक्रिया में उसके खुद का अन्तस इतना, डराबना और भयावना लगने लगता है कि आत्म-ग्लानि और दुःख के कारण साक्षी वाले अभ्यास को छोड़ कर वह तक्षण बाहर आ जाता है। अपनी पुरानी छवि को कायम रखने के लिए अपने आन्तरिक कुरूपता की समस्त ज़िम्मेवारी दूसरो पर थोप कर मुक्त हो जाता है।

आपने देखा होगा जब बिल्ली, कबूतर पर झपटती है तो कबूतर अपनी आँखें बन्द कर लेता है, क्योंकि अब बिल्ली उसे दिखाई नहीं देती है, परन्तु ऐसा नहीं है। बिल्ली को नहीं देखने से वह गायब तो नहीं हो जायेगी। तथ्य से आँखें मूंद लेने से तथ्य समाप्त तो नहीं हो जाता है। हाँ, थोड़ी देर भूल जाने के कारण कबूतर को यह भ्रम अवश्य पैदा हो सकता है कि बिल्ली वहाँ नहीं है, परन्तु बिल्ली आती है और कबूतर की गरदन दबा देती है।

करीब-करीब मनुष्यों की भी यही हालत है। कोई शराब पीकर आँख मूंद लेता है तो कोई टी.वी. या अन्य मनोरंजन में अपने को व्यस्त कर देता है। कबूतर की तरह एक ही बात है, परन्तु यदि आप बिल्ली से अर्थात् मन की इस बीमारी से बचना चाहते हैं या उसका उपचार कर ठीक होना चाहते हैं तो उसका एक मात्र रास्ता, इसी एकान्त और मौन से गुजरता है जहाँ आपको आत्म-निरीक्षण का अवसर मिलेगा। आप अपनी वस्तु-स्थिति के आमने-सामने खड़े होकर उसको जान सकेंगे। क्योंकि बिना इसे ठीक-ठीक देखे या जाने आप स्वयं का इलाज नहीं कर सकते हैं।

वास्तव में मनुष्य का सच्चा निवास स्थान एकान्त या अकेलेपन में है। अकेलापन मनुष्य की नियति है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता है फिर इसे स्वीकार करने में आनाकानी क्या करना। मनुष्य का मूल आन्तरिक स्वभाव वास्तव में अकेलापन ही है। इस जन्म की यात्रा का प्रारम्भ भी हम अकेले ही तो करते हैं। सृष्टि से अगले जन्म की यात्रा के लिए भी तो हम अकेले ही जाते हैं।

सोने जाते हैं, नहाने जाते ऐसे बहुत से कर्मों के लिए भी हमें अकेला ही होना पड़ता है। फिर क्यों न अपने अन्तस् का परिष्कार कर एकान्त और मौन में अपने वास्तविक आत्म-स्वरूप से जुड़कर असीम तृप्ति का, शान्ति का और आनन्द का अनुभव करें। क्योंकि आत्मा का अनादि स्वभाव भी आनन्द स्वरूप ही है। जगत की समस्त प्रतिभाएँ, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो, सदा मौन और एकान्त में ही समृद्ध के शिखर का स्पर्श किया है।

कोई भी मनुष्य चाहे तो मौन और एकान्त का उपयोग कर शक्तिशाली बन, जीवन के महान् उद्देश्यों का चुनाव कर उसमें सिद्धि प्राप्त कर सकता है क्योंकि मन की इस उच्च अवस्था में परमात्मा से उसे दिव्य-बुद्धि का वरदान प्राप्त हो जाता है, जिसके द्वारा वह थोड़े ही समय में जीवन-जगत के सत्य और रहस्य का उतना अनुभव प्राप्त कर सकता है जितना कि वर्षों पुस्तक के अध्ययन से भी सम्भव नहीं है। उसे ऐसा महसूस होने लगता है कि समस्त अस्तित्व से जीवन को स्वस्थ और समृद्ध कर देने वाली शीतल प्रकाश-किरण फव्वारे की तरह उस पर बरस रही है और जीवन परम-तृप्ति और अहोभाव से भरता जा रहा है।

शेष भाग - 6


प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।

आपका तहे दिल से स्वागत है।
Tags

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top