(भाग 1 का बाकि)
सफलता अर्थात् सुफलता
हमारे प्रयास द्वारा प्राप्त ऐसा फल जो स्वयं तथा समाज के अन्दर सुख शान्ति और
समृद्धि पैदा करें। ऐसा कर्म जिससे समाज को दिव्य प्रेरणा मिले तथा खुद का व्यक्तित्व
भी नैतिक और आदर्श चरित्र से गौरवान्वित हो। जिससे जीवन में आत्मिक-संतुष्टता और प्रसन्नता के स्वर्ण कमल खिलें, यही है
सफलता की नई परिभाषा।
जगत में कार्य-कारण और फल प्राप्ति का एक अनादि अविनाशी सिद्धाँत है। जो जैसा करता है, वैसा ही पाता है। इसलिए सुख और दुःख मनुष्य के द्वारा प्रतिपादित कर्म का ही फल हैं। चाहे वह भाव क्रिया हो या विचार क्रिया। कर्म-सिद्धाँत का एक दूसरा भी सूक्ष्म पहलू है।
यदि आप शारीरिक तथा मानसिक शक्ति के सूक्ष्म स्तरीय कार्य-कलापों को समझ कर उसके अनुसार कार्य करते हैं, तो अवश्य ही उस इच्छित फल को पाने में सफल हो जायेंगे।प्रकृति के नियम सबके लिए एक समान हैं। फिर भी एक व्यक्ति हिमालय पर परचम लहराता है और दूसरा सड़क पर लंगड़ा कर चलने में भी असमर्थ होता है। हज़ारों सफल व्यक्तियों से इतिहास भरपूर है। क्यों? क्योंकि इस इतिहास में भाग्य का स्थान नाम मात्र है। सही ज्ञान, सही चिन्तन और सही दिशा में समर्थ प्रयास ने ही उन्हें सफल लोगों की पंक्ति में ला खड़ा किया है।
यदि कोई व्यक्ति शक्तिशाली
इच्छा-शक्ति द्वारा उस कार्य के प्रति अटूट लगन तथा सतत् यथार्थ
दिशा में शक्तिशाली एकाग्रता के आधार पर प्रयास करें तो सफलता अवश्यम्भावी है। सफलता
के लिए शक्ति प्राप्त करने के सर्व सामान्य नियम एक जैसे हैं। इच्छा-पूर्ति का लक्ष्य श्रेष्ठ है या निकृष्ट यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, परन्तु नियम पालन से शक्ति प्राप्त अवश्य होगी। सफल जीवन के प्रति यदि हमारा
आध्यात्मिक दृष्टिकोण हो तो अल्प प्रयत्न से ही सहज सफलता सम्भव है। क्योंकि जगत् के
सूक्ष्म नियमों को पालन करने से हमारे और प्रकृति के मध्य अद्भुत सामंजस्य स्थापित
हो जाता है।
जीवन में सफलता और सफल जीवन जीने के लिए आध्यात्मिक सशक्तिकरण के अलावा मनुष्य
के सामने दूसरा कोई भी विकल्प नहीं है और इसके लिए जीवन में आध्यात्मिक नियमों को आत्मसात
करना अति आवश्यक है। सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि हमारा मूल स्वरूप और हमारी मूल
प्रकृति शुद्ध और अनन्त शक्तियों का स्त्रोत है। शान्ति, आनन्द, प्रेम, शक्ति और ज्ञान के
बीच अद्भुत संतुलन और सामंजस्य स्थापित करने वाली भी यही हमारी मूल चेतना है। जैसे
ही हमें यह अनुभव हो जाता है कि हमारा मूल स्वरूप इतना दिव्य और शक्ति सम्पन्न है तो
हमारे स्वप्न स्वत ही साकार होने लगते हैं। क्योंकि हम खुद ही अनन्त सम्भावनाओं और
अपरिमित शक्तियों के स्वामी हैं।
कई लोग प्राय यही सोचते हैं कि हम इसलिए सफल नहीं हैं –
1. क्योंकि हमें निर्धन परिवार में जन्म मिला है।
2. क्योंकि हमारा शारीरिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है।
3. क्योंकि कुछ कार्य को पूरा करने के लिए दूसरा हमसे अधिक योग्य है।
4. क्योंकि हम विकलांग हैं।
5. क्योंकि हमारा सामाजिक स्थान सम्मानजनक नहीं है।
वस्तुत ऐसा नहीं है! आप इस कारण असफल नहीं हो रहे हैं कि आपकी निकटवर्ती परिस्थिति सुविधा और सहयोग पूर्ण नहीं है, बल्कि इसलिए कि आपके विचार नकारात्मक हैं, जो आपके विचार की शक्ति, साहस और संघर्ष की शक्ति, आन्तरिक प्रेरणा-शक्ति, आशा, विश्वास और कल्पना-शक्ति को पंगु बना रहे हैं। उठिये! और समाज के उन आदर्श और सफल व्यक्तियों से मिलकर प्रेरणा प्राप्त कीजिये।
असुविधापूर्ण परिवेश तो कई बार
प्रबल चुनौती का काम करता है, जो मनुष्य में सुषुप्त इच्छा-शक्ति या `स्व' की शक्ति को जगाकर
प्रबल कर देता है। इसे ही परिवर्तन की शक्ति कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के पास यह
सुरक्षित और संचित होती है जो आपातकालीन परिस्थिति में अपने आप पैदा हो जाती है। उन
कमज़ोर क्षणों में आप अपनी शक्तिशाली स्थिति को तुरन्त प्राप्त कर लेंगे।
दुनिया के महानतम् लोगों में प्राय अधिकतम लोग निर्धन परिवार के थे। जैसे –
w अब्राहिम लिंकन
w ईश्वरचन्द विद्यासागर
w विनोबा भावे
w हिटलर
सन् 1960 में ओलम्पिक दौड़ प्रतियोगिता की
5 स्वर्ण-पदक विजेता महिला, बचपन में एक पैर के पक्षाघात से पीड़ित थी। अपने देश की मशहूर नृत्यांगना तथा
फिल्म `नाचे मयूरी' की नायिका सुधा चन्द्रन
का एक पैर कटा हुआ है। आप सोचने से ही काँप जायेंगे, लेकिन उसने
अपनी हिम्मत नहीं खोई और भारत सरकार से कई मशहूर नृत्यपदक प्राप्त किये हैं।
``जॉन ऑफ आर्क'' का नाम शायद आपने सुना होगा। एक गाँव की
साधारण गड़रिये की लड़की ने फ्रांस का सैन्य नेतृत्व अपने हाथ में लेकर उसका इतिहास
ही बदल दिया था। यहाँ तक कि वहाँ का राजा भी उसकी आज्ञा का कायल था। इतिहास में ऐसी
अनेक अद्भुत मिसालें हैं।
दूसरी तरफ सोने की चम्मच लेकर पैदा हुए लोगों में से अधिकांश मौज-मस्ती और अय्याशीपूर्ण जीवन के द्वारा अपना सबकुछ बर्बाद करते हुए देखे गये
हैं। ऐसे लोगों को आप क्या कहेंगे? सौभाग्यशाली या दुर्भाग्यशाली?
वे लोग जो निर्धन परिस्थितियों में पैदा हुए उनका सर्व पूज्य नाम आज
भी इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ में ज्योतिर्मय है।
सफलता का पहला सार सूत्र – किसी वस्तु की कमी की महसूसता। उसके बाद उसे पाने का संकल्प तथा उसके लिए उस दिशा में मन की शक्ति का नियोजन अर्थात् उसे किस योजन के तहत पाया जाये और उसके बाद उस दिशा में दृढ़ता से प्रयास। बस उस चीज़ को पाने में आप सफल हो जायेंगे।
चाहे वह
भौतिक जगत हो या आध्यात्मिक। नियम यही होंगे। हाँ, आपकी मानसिक
शक्ति किस दिशा में कार्य करती है। आध्यात्मिक चरित्र का निर्माण और उसकी उपलब्धि चाहती
है या किसी कलात्मक पेन्टिंग का निर्माण करना चाहती है। इस तरह सफलता प्राप्ति की दिशा
में और भी बहुत-सी बातों को ध्यान में रखना होगा, जिसकी चर्चा हम क्रम से करेंगे।
1. आत्म-निरीक्षण
सफल जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है।
``स्व'' के शुद्ध स्वरूप अर्थात् आत्मा की अनुभूति। प्रत्येक व्यक्ति को सफलता के लिए एकान्त में विश्राम के क्षणों में आत्म-चिन्तन की अत्यधिक ज़रूरत है। जैसे शरीर के लिए पौष्टिक आहार-विहार, निद्रा और व्यायाम ज़रूरी है वैसे ही आत्मा और मन को शक्तिशाली बनाने के लिए आत्म-मंथन तथा स्वाध्याय (स्वयं के बारे में जानना) तथा उसकी अनुभूति के लिए योग का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है।
आत्म-निरीक्षण शब्द से यह ज्ञात होता है कि आत्मा साक्षी होकर शरीर और मन के क्रिया-कलापों का विस्तार से अध्ययन और निरीक्षण करें, यही आत्म-निरीक्षण है। बौद्धिक समझ तो प्राय सभी को है कि मैं आत्मा हूँ, यह मेरा शरीर है। संसार रंगमंच है। यह रहस्यमय बाह्य और अन्तर जगत का अनुभव हमें नहीं है।
मैं नित्य, शाश्वत्, अविनाशी ज्योतिबिन्दु आत्मा हूँ यह `मेरा' शरीर है। परन्तु `मैं' जब `यह' से तादात्म्य स्थापित कर इन्द्रियों मे सुखेपभोग की इच्छा जागाती है और सत्य समझ को धूमिल कर देती है तब यह ज्ञान के विपरीत बाला `मैं' को प्रकट करती है। इस `मैं' और `यह' का तादात्म्य, प्रियता-अप्रियता, राग-द्वेष, आसक्ति-अनासक्ति और अहंकार के वशीभूत व्यक्ति को संसार और माया के बन्धन में फंसा जाती है।
सत्य ज्ञान से जब-तक विवेक पैदा नहीं होता तब-तक सही रूप से आत्म-निरीक्षण पैदा ही नहीं हो सकता है। विकास और सफलता के लिए एकान्त में आत्म-निरीक्षण अति आवश्यक है। इसी प्रक्रिया के सज्ञान, शक्ति,
समझ, धैर्य और साहस तथा पुरुषार्थ के लिए प्रेरणा
प्राप्त की जा सकती है।
स्वानुभूति, आत्म-निरीक्षण व अवलोकन
का अर्थ इस बात का बोध है कि आत्मा की शक्ति ही हमारी आन्तरिक शक्ति है, न कि पदार्थ का अनुभव। या तो हम `स्व' का अवलोकन करते है या पदार्थ, व्यक्ति, भाव विचार और उसकी प्रतीति का।
जैसे ही हमारा सम्बन्ध `स्व' से
खत्म हो जाता है, तक्षण हम अन्य से अपना तादात्म्य जोड़ लेते
हैं। इसे वस्तु परक दृष्टिकोण कहा जाता है और इसी तादात्म्य की अवस्था में आत्मा `स्व' के प्रभाव क्षेत्र से दूर संसार के प्रभाव में आ
जाती है। इससे अनेक तरह की मानसिक, शारीरिक और सामाजिक परिवेश-जन्य स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं।
आज वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि जगत पदार्थ नहीं, ऊर्जा है। इससे यह सिद्ध होता है कि भौतिक जगत में जो भी प्रगट रूप हमारे सामने
है, वह सभी अप्रकट से निकला है। प्रगट और अप्रगट का जो यह आँख
मिचौली का खेल चल रहा है वह प्रकृति और पुरुष के सूक्ष्म आध्यात्मिक नियम के अन्तर्गत
ही कार्य करता है।
ब्रह्माण्ड की अंतहीन ऊर्जामय प्रकृति और आपके पवित्र आत्मिक-स्वरूप के बीच एक रहस्यमय प्रेमपूर्ण एकता और आज्ञाकारिता का बाधारहित प्रवाह
सतत् विद्यमान है। जैसे ही आप इस शाश्वत अंतर नियम को जान जाते हैं `खुल जा सिम-सिम' का मंत्र सहज ही
पा जाते हैं। यहाँ अल्प प्रयत्न का नियम स्वत ही लागू हो जाता है। इन नियमों के व्यावहारिक
प्रयोग और अनुभव आपको आत्मा की पवित्रता की शक्ति के बिल्कुल नज़दीक ला खड़ा करता है।
धन और मानवीय सम्बन्धों के लिए हम इसलिए लालायित रहते हैं कि हमें प्रतिपल असुरक्षा
का भय सताता रहता है।
आत्म-निरीक्षण में पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर अपना आत्म मूल्यांकन भी ज़रूर कीजिए। यह सम्भव है कि दूसरा आपका मूल्यांकन उतना सही नहीं कर सकता है, परन्तु आप स्वयं का तो अवश्य ही मूल्यांकन कर सकते हैं। माना कि आप एक आदर्श पुरुष नहीं हैं, परन्तु अपने परिवार के नज़र में कम-से-कम अपेक्षाओं की कसौटी पर भी खरे उतरते हैं तो एक-दूसरे की नज़र में, अपने परिचितों और पड़ोसियों की तुलना में उनसे अच्छे हैं।
क्या सामाजिक
स्तर पर आपकी पहचान, एक परोपकारी, विनम्र
और अच्छे नागरिक के रूप में है? यदि ऐसा नहीं है तो इस छवि पर
भी आपको अवश्य ही ध्यान देना चाहिए। क्योंकि सफलता का मार्ग इन्हीं के आसपास से गुजरता
है।