क्षमा और सहानुभूति (Part 5)

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(भाग 4 का बाकि) :_______ व्यक्तिगत मंतव्य भी दोष दृष्टि का कारण है

स्वतंत्रता मनुष्य का मौलिक अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति की यह इच्छा होती है कि वह स्वत्रंत होकर सोचे, कर्म करे और जीवन जिये। लेकिन आश्चर्य यह है कि जो व्यक्ति स्वयं वैचारिक स्वतंत्रता में जीना चाहता है, वही दूसरों की वैचारिक स्वतंत्रता को यह सोचकर बाधित करना चाहता है जो उसे अच्छा नहीं लगता है या जैसा वह सोचता है दूसरा भी वैसा ही सोचे और करे। अपरोक्ष रूप से अपने आग्रह या दुराग्रह की वैचारिक गुलामी की जंजीर में वह दूसरों को बांधना चाहता है और जब दूसरा इसे स्वीकार नहीं करता तो वह व्यक्ति उसे अच्छा नहीं लगता है अर्थात् वह व्यक्ति अच्छा नहीं है। और यहीं से परदोष-दर्शन और निन्दा रूपी बुराईयाँ जीवन से जुड़ना प्रारम्भ हो जाती हैं। हम अच्छे हैं, हमारी सोच, हमारी जीवन दृष्टि, हमारे सिद्धान्त, हमारे धर्म-कर्म दूसरों से ऊँचे हैं ये समस्त वाद-विवाद चाहे वह धार्मिक हों, जातिगत हों, राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय, उससे उत्पन्न झगड़े और फसाद की जड़ है –– पूर्वाग्रह और पक्षपात पूर्ण दृष्टि कि मेरे सिवाय दूसरे सभी गलत है। आज के समस्त धार्मिक लड़ाई-झगड़े इसी आग्रहपूर्ण श्रेष्ठता को सिद्ध करने के दुष्परिणाम है। पक्ष-मुक्त चिन्तन के आलोक में ही कोई व्यक्ति इस पापपूर्ण क्षुद्र दृष्टिकोण से दोष मुक्त हो सकता है।

अभिनय की भिन्नता जीवन की अनिवार्य शर्त है

जबकि सृष्टि एक विराट रंगमंच है तो निश्चय ही सभी का अभिनय एक जैसा सम्भव नहीं हो सकता है। फिर तो यह भी स्वाभाविक ही होगा कि सभी के कर्म की प्रवृत्ति और उसमें उसका लगाव या रस भी भिन्न-भिन्न ही होगा। इसलिए यह भी स्वाभाविक है कि उनके विचार भी अलग-अलग होंगे। जैसे ही कोई बुद्धिमान मनुष्य इस तथ्य से अवगत होता है कि विराट लीला में अभिनय की भिन्नता अनिवार्य शर्त है, फिर उसके सभी पूर्वाग्रह और दृष्टिदोष समाप्त होने लगते हैं। मन के वे सभी मैल, चाहे घृणा हो या निन्दा धुलने लगते हैं और इस सत्य से वह दो-चार होने लगता है। वे सभी श्रेष्ठ सद्गुण ही जीवन में ज्ञान-प्रकाश है और दुर्गुण मानसिक अन्धकार। उन्हें अब ऐसा लगने लगता है कि कोई कुछ भी कर रहा हो चाहे उसका वह कर्म ज्ञान के प्रकाश से निकल रहा हो या नहीं वे उसे अच्छा और आवश्यक समझते और करते हैं। फिर कटुता कैसी, दोषारोपण कैसा? 

इंसान ठोकर से ही ठाकुर बनता है

स्वतंत्रता मनुष्य का स्वभाव भी है, सौभाग्य भी और उसका जन्म-सिद्ध अधिकार भी। परमात्मा भी मनुष्य के इच्छा और कर्म के चुनाव में कोई हस्ताक्षेप नहीं करता है। कोई भी अपनी इच्छा अनुसार अपने कार्य-क्षेत्र का चुनाव करने में स्वतंत्र है। कर्म, भाव और विचार के चुनाव की स्वतंत्रता को वह किस ढंग से उपयोग करता है और उसके क्या परिणाम आयेंगे, उन समस्त बातों का उत्तरदायित्व भी उसी पर है। कार्यकारण के अटल नियम के अनुसार जैसे ही वह विकारों वश कोई भी दुष्कर्म करता है, तक्षण मानसिक और शारीरिक वेदना का शिकार हो जाता है, और तब इस वेदनामय अनुभव के बाद वह अपने कृत्यों का पुनर्निरीक्षण और पूर्ण मूल्यांकन कर उचित और अनुचित का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर विवेकशील प्राणी बन अपने श्रेष्ठ मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। इसलिए शिक्षा और संस्कारों का परिमार्जन दुःख रूपी दंड प्रक्रिया के माध्यम से सहज ही किसी व्यक्ति के जीवन में घटित होने लगता है। ठोकर से ही तो आदमी ठाकुर बनता है। मूर्ति निर्माण में हथौड़े का जो स्थान है वही स्थान ज्ञान और विवेक के विकास में कष्ट रूपी हथौड़े का। इसलिए भी किसी में किसी को दोष दर्शन की कोई ज़रूरत नहीं। क्योंकि अच्छे और बुरे का अनुभव ही मनुष्य की सहज विकास-प्रक्रिया में गति लाता है।

छिद्रान्वेषी प्रवृत्ति वाले लोगों को दूसरों के प्रति अपने व्यक्तिगत विचारों को ओढ़कर नहीं देखना चाहिए। अच्छे और बुरे के व्यक्तिगत मानदंडो की दृष्टि प्राय दोषपूर्ण होती है। क्योंकि उसके साथ पूर्वाग्रह संलग्न रहता कि दूसरे भी इन्हीं मानवीय मूल्यों पर जीवन बिताए जैसा वह चाहता है। यदि इस अपेक्षा की पूर्ति दूसरे द्वारा नहीं होती है तो उन्हें चरित्र में दोष दिखाई देने लगता है।

यदि आप इस दोषपूर्ण दृष्टि से मुक्ति चाहते हैं तो प्रेम और कल्याणकारी मंगल भावों से पक्षमुक्त हो उचित परिप्रेक्ष्य में उसके मानदंडों की कसौटी पर परखे तो सहज ही आपकी दृष्टि निर्दोष बन सकती है। दूसरे में अवगुण ढूँढ़ने के बदले हमें ऐसा अवश्य सोचना चाहिए कि ––

w क्या मैं पाप से मुक्त हो गया हूँ?

w क्या मुझमें कोई कमी शेष नहीं रह गई है?

w क्या परमपिता ने सभी के लिए हमें न्याय कर्त्ता नियुक्त किया है। हमें अपने-आपके लिए जज बनना है न कि दूसरों के लिए। अपने लिए जज तथा दूसरे के लिए वकील बनें। इसके विपरीत बनना घाटे का सौदा है। आज कल मनुष्य भूलवश इस घाटे के सौदे को ज़्यादा करते हैं।

w क्या परमात्मा ने आपको पुलिस इन्स्पेक्टर बनाया है या आपने खुद ही मियां मिट्ठू बन इन्स्पेक्टर की वर्दी पहन ली है।

महात्मा ईसा के उस महत्त्वपूर्ण वचन को याद करें कि पहला पत्थर पापी पर वही उठाए जिसने पाप नहीं किया हो या नहीं कर रहा हो। ऐसा सोचने वाले महापुरुष पक्षपात और घृणा-मुक्त, प्रेम, सहानुभूति, और विनयशील हृदय ही दूसरे में दोषों को देखना बन्द कर देता है और धीरे-धीरे अपने दुःखों और कष्टों से भी मुक्ति पा लेता है।                                                                                                                                                                   शेष भाग - 6


प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सपरिवार पधारें।
आपका तहे दिल से स्वागत है।

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