(भाग 3 का बाकि)
अनुचित कर्म के पीछे ऐसे कारण हो सकते हैं
कोई इसलिए भी उसे करता है कि उसे तत्कालिक फायदा होता हुआ
महसूस होता है। उसकी अन्तर्दृष्टि भविष्य में घटित होने वाले दूरगामी परिणामों को नहीं
देख पाती है।
उसे कार्य-कारण के अनादि सत्य सिद्धान्त का यह बोध भी नहीं होता कि जो आज के दुःखद फल
हैं, वह अतीत में हमारे ही किसी अनुचित कर्म रूपी बीज का फल है
और आज के तत्कालिक लाभ से प्रेरित अनुचित कर्म भविष्य में किसी दुःखदायी फल के निमित
बनेगें, जो उसे दुःख भोगने के लिए विवश कर देंगे।
वे समस्त कर्म जो प्रत्यक्षत परिणामकारी हैं उसे तो हम बोधपूर्ण
ढंग से करते हैं, परन्तु जो प्रत्यक्षत
अच्छा सुखद और लाभकारी लगता है, परन्तु अनन्त दुःखदायी सिद्ध
होता है। इसके सही बोध के प्रति प्राय लोग भ्रमित रहते हैं। बौद्धिक रूप से उसे अनुचित
समझते हुए भी तत्कालिक सुखद अनुभव के प्रति आकर्षित होकर उसे कर्म में परिणीत कर देते
हैं और पुन उस विषमय फल को खाने के लिए विवश हो जाते हैं।
उदाहरण : निसंदेह शराब बुरी आदत है। लेकिन आज यह ज्ञान
मनुष्य के लिए ज्ञान नहीं है। आज का सत्य तो यह है शराब उसे इद्रिय सुख प्रदान करता
है। सभी प्रकार के तनावों से मुक्त कर उसके जीवन में शान्ति और आनन्द का रस घोलता है।
आज का तत्कालिक अनुभव तो इस सत्य ज्ञान को ढक देता है कि शराब पीना बुरी बात है। आज
की मौज मस्ती का सुख उसे आदर्श जीवन मूल्य से कहीं अधिक मूल्यवान प्रतीत होता है। इसलिए
इस तरह की शिक्षा या ज्ञान लोगों के जीवन की वास्तविकता नहीं बन पाती है, परन्तु कल जब डाक्टर उसे यह कहता है कि यदि तुमने शराब पीना नहीं छोड़ा तो
ये जीवन ही तुम्हारा साथ छोड़ देगा, क्योंकि तुम्हारा लीवर (यकृत) क्षतिग्रस्त हो रहा है। आगे शायद यह फेल भी हो
जाये और तब उसे एक झटका लगता है। अब वह यह अनुभव करता है कि शराब बुरी आदत है। वास्तव
में अब उसने अपने आदर्श जीवन मूल्य को शराब की मौज मस्ती के मूल्य से अधिक आँकना शुरू
कर दिया है। अब सही अर्थों में ज्ञान उसका निर्णय बना है। वैसे ही जैसे आग में हाथ
डालने से हाथ जल जाता है।
जैसे-जैसे किसी
व्यक्ति को अपने अनैतिक कर्मों का ज्ञान होने लगता है, वैसे-वैसे वह अनैतिक कर्मों से मुक्त होने लगता है। वे पदार्थ जो उसे कल सुखदायी
लगते थे आज उससे उसका रागात्मक सम्बन्ध बिखरने लगता है। यथार्थ स्वरूप के प्रति उसका
सौंदर्य बोध अब सही अर्थों से गहराने लगता है। बाह्य तड़क-भड़क
और रंग-बिरंगी चमकीली वस्तुओं के आकर्षण से उसे विरक्ति होने
लगी हो। क्योंकि अब उसे ऐसे लगने लगता है कि इस सुन्दर स्वर्ण-पात्र में विष भरा है, अब उसका ऐसा ज्ञान उसे लोभ में
कभी नहीं फंसाता है। बुरे कर्मों का फल दुःखदायी है, इसके यथार्थ
ज्ञान को अब वास्तव में वह ठीक-ठीक समझने लगा है।
उपरोक्त विवेचन से यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि जीवन की चमक को मन्द
कर देने वाली वे सभी बुरी आदतें, स्वार्थी प्रवृत्तियाँ, नफरत, दिखावा,
अहंकार, जलन और आवेगों के वश सम्पादित पाप-कर्म अज्ञानता की ही परिणति है। अर्थात् व्यक्ति यह नहीं जानता है कि वह क्या
कर रहा है या क्यों कर रहा है। मूर्छित और विभ्रमित चित्त की यह दशा निश्चय ही महापुरुषों
की दृष्टि में क्षमा और सहानुभूति के काबिल है। वास्तव में बुराई का स्वरूप इतना घृणा
और निन्दा के योग्य नहीं है। ऐसे लोगों को घृणा और निन्दा नहीं अपितु प्रेम,
करुणा, क्षमा और सहानुभूति की ज़रूरत है।