(भाग 6 का बाकि) :_______जीसस का एक प्रसिद्ध वचन है –– ``जो तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारे उसके आगे
अपना दूसरा गाल भी कर देना''। भावार्थ उनका यह था कि लज्जित होकर
वह अपने कुकृत्य पर पश्चाताप करेगा और भविष्य में इस दुष्टता से बच जायेगा परन्तु कुछ
विवेकहीन और दुष्ट लोगों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। यदि उसे तमाचा मारने में कोई
आर्थिक लाभ हो तो मार-मार कर आपके दोनों गालों को कुप्पा कर देगा।
ऐसी क्षमा से ज़रूर बचें। ऐसे लोग आपका जीवन ही नष्ट कर देंगे। इस संदर्भ में देखिए
एक प्रैक्टिकल घटना और खुद सोचिये कि आपको क्षमाभाव को किस तरह अपनाना है।
एक मस्त ईसाई फकीर किसी चर्च में जीसस के इसी वचन पर ``जो तुम्हारे एक गाल....'' पर प्रवचन दे रहा था। सभा में एक दुष्ट प्रकृति का व्यक्ति भी बैठा था। उसने
सोचा क्यों न आज इस फकीर की परीक्षा ले ली जाए। जैसे कि परमात्मा ने उसे सभी लोगों
का परिक्षक नियुक्त किया हो। ऐसे कई दुष्ट प्रकृति के लोग अपने आपको ऐसा ही परिक्षक
समझते हैं। हाँ, तो जैसे ही भाषण समाप्त हुआ, उसने जाकर उस फकीर के गाल पर एक झन्नाटेदार तमाचा रशीद कर दिया। फकीर तो हक्का-बक्का हो उसे देखता ही रह गया, परन्तु तक्षण उसने अपना
होश सम्हाला और उसे जीसस के वचन की मर्यादा याद आ गई। उसने दूसरा गाल भी उस दुष्ट व्यक्ति
के आगे कर दिया। उसने आव देखा न ताव फकीर के दूसरे गाल पर भी जोरदार थप्पड़ दे मारा।
मस्त मज़बूत कद-काठी के उस फकीर ने उसे धर दबोचा और उसकी जोरदार
पिटाई कर दी। अपनी हड्डी-पसली एक होते देख वह दर्द से चिल्ला
उठा और बोला ``लेकिन भाई तुम मुझे क्यों मारते हो। तुम्हारे उस
जीसस के वचन का क्या हुआ?'' वह फकीर मुस्कुराते हुए बोला ``मूर्ख, मैं उनके वचन की मर्यादा को ही निभा रहा हूँ,
उन्होंने दूसरे गाल तक छुटी दी थी, आगे तो मैं
उस वचन से मुक्त होकर तुम्हें तुम्हारी दुष्टता का सबक सिखा रहा हूँ''। उसने व्यंग्य से कहा –– ``ज़रा सोचो तो, मेरे पास
तीसरा गाल है भी तो नहीं जो तुम्हारे सामने करता। जाओ अब तुम्हें माफ करता हूँ। ऐसा
मेरा करना भी तुम्हारे कल्याण के भाव से तुम्हें पाठ सिखाने के लिए ही था। वैसे हमारा
तुमसे कोई वैर विरोध अभी भी नहीं है। भविष्य में दुष्टता की ऐसी गलत आदत न बन जाये
इसके लिए यह पाठ मात्र था''।
क्षमा एक आन्तरिक सुवास है इसे सामर्थ्यवान होकर विकसित
करें। दूसरे के प्रति व्यवहार में भी बनाये रखें, परन्तु ऐसे व्यक्तियों से सावधान भी रहें। काटें नहीं, परन्तु फुफकारना नहीं छोड़ें।
क्षमादान –– सच्चा समाधान
जो लोग बुराई का बदला लेते हैं, बुद्धिमान उनका सम्मान नहीं करते, किन्तु जो अपने शत्रुओं को क्षमा कर देते हैं, वे स्वर्ण
समान बहुमूल्य समझे जाते हैं।
–– तिरुवल्लुवर
दूसरों की बहुत-सी बातों को क्षमा कर दो परन्तु अपनी कोई भी नहीं।
–– अज्ञात
किसी को क्षमा कर देने का अर्थ है –– उसके प्रति उत्पन्न होने
वाले क्रोध को निगल जाना।
–– शरण
जो दूसरों के कर्मभाव शब्द और विचार की प्रतिक्रिया अपने
ऊपर नहीं होने देता है, जो स्वाभाविक क्रिया या
कर्म में विश्वास करता। उसे कदाचित यह अच्छा नहीं लगता कि कोई दूसरा उससे वह सब करवा
ले जो वह नहीं करना चाहता। गुलामी उसे पसंद नहीं वह मालिक बन अपना स्वाभाविक कर्म करना
चाहता है। जैसे ही कोई उसका अपमान करता है वह उसके लिए क्षमा के भाव का स्वभाविक कर्म
करता है न कि बदले में प्रतिक्रिया वश क्रोध, गाली या कोई अन्य
बदले की भावना रख प्रतिकर्म करता है। जिसके दो सुखद परिणाम उसके जीवन में घटित होते
हैं।
1. सदा उसका
चित्त शान्त और प्रेममय बना रहता है।
2. बदले की
आग में जलने तथा उसमें समय नष्ट होने वाले भयंकर अनिष्टों से बच जाता है।
प्राय: मनुष्य
बच्चों के प्रति स्वाभाविक रूप से क्षमाशील होते हैं। चाहे वह क्रोध करता हो,
नुकसान करता हो, अपमान करता हो, हठ करता हो, आप कभी भी बुरा नहीं मानते क्यों?
क्योंकि आप यह जानते हैं कि वह क्या कर रहा है उसे खुद इस बात का पता
नहीं हैं। बच्चा क्रोध करता है, परन्तु इसके दुष्परिणाम से सर्वथा
अनभिज्ञ रहता। स्वाभाविक रूप से लोगों के अन्दर दया, करुणा और
क्षमा का भाव प्रगट होता है। आप उसकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। यदि उसकी किसी
भी भूल को अपने चित पर रखें तो लोग आपको समझदार और सामान्य नहीं मानेंगे।
क्षमा नहीं करने का अर्थ है –– उसी को काटना जिस डाली पर आप बैठे हैं। क्या ऐसी ही वस्तु-स्थिति लोगों की आपस में नहीं है? जैसे आप
बच्चों की गलती चित्त पर नहीं रखते उसी प्रकार महापुरुष भी हमारी गलती अपने चित्त पर
नहीं रखते हुए हमें क्षमा कर देते हैं क्योंकि वे भी हमें बच्चे जैसा ही समझते हैं
और यही शुभभाव रखते हैं कि इन्हें पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं। जीसस ने भी तो
यही कहा था हे प्रभु इन्हें माफ कर देना। क्षमावान मनुष्य अनन्त पुरस्कारों को प्राप्त करते हैं लोगों
द्वारा, प्रकृति
द्वारा और परमात्मा द्वारा। आन्तरिक सौंदर्य से सुसज्जित और गुणों से सुवासित जीवन
का आधार है –– क्षमाभाव। समझदार को तो यह पता होता है कि वह जैसा
करता है वैसा ही पाता है, तो क्या आप इस बोध से बच्चे की तरह अनभिज्ञ हैं? नहीं,
वैर-वैर से नहीं, प्रतिशोध-प्रतिशोध से नहीं बल्कि क्षमा और प्रेम से समाप्त होता है। गाली जब पहली बार
आपके पास आती है उस वक्त वह अकेली ही होती है, परन्तु जैसे की
क्रोधवश आप उसे लौटाते हैं वह दो नहीं अपितु, सौ गुणा हो जाती
है। चिंगारी तो अत्यधिक छोटी होती है लेकिन यदि वह ज्वलनशील वस्तु के सम्पर्क में आये
तो अनन्त गुणा बढ़ जाती है। भाव क्रिया साधारण गणित का अनुशरण नहीं करती है। वहाँ दो
जोड़ दो तो वह बराबर अनन्त की ओर बढ़ जाता है। 2+2 = अनन्त। बच्चों की ही तरह आप जब भी किसी आवेग से आवेशित हो जाते हैं तो उस समय
क्या आप अपना संतुलन खो नहीं देते हैं? क्या उस समय आप मानसिक
दिवालियेपन का शिकार नहीं हो जाते? क्या आवेगों से होने वाली
दुर्घटना के परिणाम से मूर्च्छित हुए, बिना सोचे-समझे अनुचित कर्म नहीं कर डालते हैं? तब ही तो प्राय
व्यक्ति उस आवेग के गुजर जाने के बाद पश्चाताप और ग्लानी से भर जाता है और क्षमा भाव
के लिए बाध्य हो जाता है। इसलिए जब भी कोई इस प्रकार के दुष्कृत्य करता है बाद में
उससे यही बेवसी के बोल निकलते हैं पता नहीं ऐसा जघन्य कृत्य मुझ से कैसे हो गया?
काश मुझे इस भूल के लिए प्रायश्चित करने का मौका दिया जाता।