तीसरा प्रेम है –– प्रभु-प्रेम
परमात्म-प्यार अटल,
अद्भुत और इतना है कि पूरी दुनिया को प्राप्त हो सकता है। परमात्म-प्यार वह सुखदायी झूला है जिसमें कोई भी मेहनत नहीं, दुःख की लहर नहीं। इस निस्वार्थ प्यार में समाई आत्माएँ सदा सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आनन्द मग्न रहती है और सदा दूसरों में आत्मीय प्यार बाँटती रहती हैं। इस प्रभु प्यार को पाने की विधि है सदा देहभान से न्यारा रहना।
उस परम प्रेम की यह मंज़िल है जहाँ अपने आप को समर्पित कर देना है। ऐसा नहीं है कि परमात्मा की इस बात में कोई रुचि या अहंकार है कि आप उसके चरणों में समर्पित हो जाए। वह तो निराकर ज्योतिबिन्दु है। उनके तो अपने पैर भी नहीं,
परन्तु हमारे समर्पण का भाव ही उसकी तरफ से प्राप्तियों की बरसात कर देता है।
मानवीय प्रेम वह दोराहा है जहाँ से कोई यदि चाहे तो वह वस्तुओं के जगत में प्रवेश कर सकता है और जीवन को उस राजा की तरह स्वर्ण ढेर पर नर्क की आग में जलता हुआ महसूस कर सकता है। (आपने राजा मिडास की कहानी अवश्य पढ़ी होगी जिसने प्रभु से यह वरदान पाया था कि जिसको भी वह छुए वही स्वर्ण बन जाए)। दूसरी तरफ वह प्रभु-प्रेम में स्वर्गिक आनन्द के राज्य में प्रवेश पा सकता है। इसलिए यह सम्बन्धों में उत्पन्न अहंकारजन्य दुःख भी हमें प्रभु से प्रेम करने का पाठ पढ़ाता है। प्रेम के मार्ग में व्यक्ति से मिला दुःख मनुष्य को परमात्मा के प्रेम की ओर ले जाता है।
यदि एक बार भी प्रेम की यह विरह अग्नि पैदा हो जाये फिर दिन रात उसकी याद के बिना चैन नहीं। फिर तो मछली की तरह बिना प्रभु याद रूपी जल के तड़फन बढ़ जायेगी। विरह का यह दुःख संसार की समस्त वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रेम से मिले सुख से भी अनन्त गुणा बड़ा है। ईश्वरानुभूति के मार्ग में चित्त की यह दशा अत्यधिक तीव्रगामी है।
विश्वास और प्रेम के साथ जो अपने जीवन को,
प्रभु के आगे समर्पित कर देता है, वह इतनी आन्तरिक शक्तियों से भर जाता है कि भयंकर परिस्थितियों में से भी वह ऐसे निकल आता है जैसे मक्खन से बाल। परमात्मा पिता से वह पुत्रवत प्यार पाता है तथा दोषों के प्रति क्षमा का अधिकारी भी बन जाता है। प्रेमास्पद प्रभु की असीम कृपामय सानिध्य उस पारस का काम करता है जो हमारे नर्क-तुल्य दोष और दुःखों को स्वर्णिम सुखमय जीवन में बदल देता है।
यह प्रभु-प्रेम सच्चे अर्थों में मनुष्य तो क्या देवतुल्य बना देता है। जहाँ सच्ची सफलता, सच्चा सुख और समृद्ध जीवन हमें उपहार स्वरूप मिल जाता है। उस प्रेम और ममतामयी विश्व माँ की शीतल छाया में विकारों और बुराईयों का तपन सदा के लिए मिट जाती है और मिलती है सभी प्रकार के चिन्ताओं से, सभी प्रकार के भय से मुक्ति। बस ज़रूरत है उस आलौकिक प्रेम की।
सभी नियमों का नियम –– `प्रेम'
एक ईसाई संत से किसी ने पूछा मुझे जीवन शुद्धि के लिए,
परम-आनंद की प्राप्ति के लिए एक मात्र नियम बता दो। मैं बहुत सारे नियमों को पालन नहीं कर सकता। क्योंकि मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ और न मैं शास्त्रों को जानता हूँ। कोई एक साधारण-सा नियम, जिसे मैं पालन कर सकूँ मुझे दे दो। बोलने में कुशल संत कुछ देर तक चुप रहे।
फिर उन्होंने कहा –– ``तुम प्रेम करो, सब नियम पूरे हो जायेंगे। नियम तो हज़ारों हैं, कौन-कौन-से नियम पालन करोगे? और देखो, ज़िन्दगी तो कितनी छोटी है''। यहाँ हमें परमात्मा के महावाक्य याद आते हैं –– ``बच्चे अपना समय इन छोटी-छोटी बातों में नहीं गंवाओ, कभी आँखें धोखा देती है, कभी कान धोखा देते हैं, यानि कभी कुत्ता आ जायेगा, कभी बिल्ली आ जाएगी, कभी पुराने संस्कार रूपी शेर का वार हो जायेगा। फिर एक-एक को हटाने में आप थक जायेंगे। इसलिए ज्योतिबिन्दु परमात्मा से प्रेम की लगन लगाओ, तो उस लगन की अगन में सभी कमी-कमजोरियाँ भस्म हो जायेगी।
इस लगन की अगन का आधार है –– प्रेम। प्रेम के सागर परमात्मा से हमारा प्रेम सम्बन्ध जुट जाये तो सब नियमों को पालन करने का पुरुषार्थ करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। क्योंकि और सभी नियम स्वाभाविक रूप से उसके जीवन में आ जाते हैं। जिससे प्यार होता है उसकी आज्ञाओं से भी सहज ही प्यार होता है।
बिना प्रेम के कोई नियम पूरा नहीं होता है। बिना प्रेम के सभी नीति अनीति है। सभी आचरण दुराचरण हो जाते हैं। जो परमात्मा-प्रेम में डूब गया उसके जीवन में परम अनुशासन के पुष्प स्वाभाविक रूप से खिलते हैं। निस्वार्थ
प्रेम फूलों और फलों से भरा वह मधुबन है, जहाँ सतत् दिव्यता का महारास चलता रहता है। क्योंकि जो प्रेम करेगा वह चोरी कैसे करेगा?
वह हिंसा कैसे करेगा? किसी का अपमान कैसे करेगा? जिसका प्रेम आत्मवत हो जाये उसके जीवन से सभी कांटे अपने-आप झड़ने लग जाते हैं क्योंकि प्रेम केवल फूलों को ही खिलाता है। जो प्रेम करता है वह क्रोध, वैमनस्य, घृणा और प्रतिस्पर्धा कैसे करेगा? उदाहरण –– प्रेम करने वाला लोभी नहीं बन सकता। अगर लोभ करना हो तो प्रेम की बात ही मत करना। कंजूस व्यक्ति कभी प्रेम कर नहीं सकता। क्योंकि उसके लिए प्रेम खतरनाक है। प्रेम का अर्थ है –– बाँटना। प्रेम की एक ही भाषा है, बिना अपेक्षा के सबको दो, सबसे बाँटो।
साधारणत व्यक्ति का जब किसी से प्यार होता है,
तो तक्षण वह देने के भाव से भर उठता है। प्रेमी, वस्तुओं की भेंट एक-दूसरे को देता है अर्थात् प्रेम की तुलना में वस्तु उसके लिए निरर्थक हो जाती हैं। प्रेम का यही लक्षण है। साधारणत हम जिससे प्रेम करते हैं उसको सब-कुछ दे देना चाहते हैं। राजाओं ने इस हद के प्यार के पीछे अपनी राजाई गंवा दी। गोया राजाई भी इस अल्पकाल के शारीरिक प्यार के आगे उसे फीकी लगी। लेकिन कंजूस व्यक्ति बाँट नहीं सकता। वह प्रेम कैसे करेगा?
जिसका धन से,
तिजोरी से ही सम्बन्ध है,
उसका जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। परमात्मा को प्रेमपूर्ण ढंग से याद कर परम प्रेम स्वरूप बन फिर प्रेम भले लुटाइए। वह निस्वार्थ प्रेम, जो परमात्मा से मिलता है, उसी शुद्धिता से उसे बाँटिए।
एक संत अपने सिद्धान्तों और विचारों का सम्पादन मौन में कर देता है। उसकी उपस्थिति मात्र से श्रेष्ठ कर्मों की व्यवस्था हो जाती है।
–– लाउत्स ________________________________