कबीर ने कहा –– साधो सहज मिले अविनाशी।
यदि आप प्रकृति के क्रिया-कलापों पर ध्यान दें तो पायेंगे कि वह पुरुषार्थ मुक्त, सहजता और स्वतंत्रता से गतिशील है। बिना किसी अन्तर विरोध के प्रयास रहित यह सिद्धान्त वास्तव में पूर्ण प्रेम और सामंजस्य के सिद्धान्त पर आधारित है देखिये, प्रकृति का विराट कार्य कितनी सहजता से प्रवाहित है, फूल का खिलना, फल का आना, पंछी का स्वच्छन्द भाव से नभ में विचरण करना, झड़ने का सहज प्रवाह, मछली का जल में तैरना, ऋतुओं का आना,
वर्षा का होना, प्रकृति का रंगो, ध्वनियों और ऊर्जा का बहुआयामी नर्तन सबकुछ कितनी सहजता से गतिशील है।
विराट प्रकृति जब इतनी सहजता से कार्यरत है, तो क्या उससे हमारा प्रेम पूर्ण पवित्र आत्मिक-सम्बन्ध और आपसी सामंजस्य स्थापित हो जाने से न्यूनतम प्रयास से अधिकतम सफलता का सिद्धान्त जीवन में लागू नहीं हो सकता?
न्यूनतम प्रयास से अधिकतम सफलता का यह सिद्धान्त जीवन में तभी अर्थपूर्ण है, जब हमारे समस्त कर्मों का आधार निस्वार्थ प्रेम हों। इसके विपरीत यदि हम किसी भी प्रकार की शक्ति जैसे तन की,
धन की,
पद की,
सम्बन्ध-सम्पर्क, और सूचना इत्यादि के महत्त्वकांक्षी हों, दूसरों पर अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश करते हो, तो उससे और ही हमारी आन्तरिक ऊर्जा प्राय नष्ट होने लगती है। इस तरीके से स्वाभिमान की रक्षा और धन-सम्पत्ति को बढ़ाने का प्रयत्न जीवन में खुशी के पीछे भागना मृगतृष्णा ही सिद्ध होती है, परन्तु निस्वार्थ प्रेम से प्रेरित आपकी प्रत्येक क्रिया आप में उत्तरोतर सृजनात्मक ऊर्जा का विस्तार करता रहता है,
जिसके माध्यम से आप सहज ही सबकुछ प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।
प्रेम का सार सूत्र है –– जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही तुम दूसरों के लिए चाहो
प्रेम के सम्बंध में दो बातें हैं –– पहली : दूसरों को प्रेम देना। क्योंकि प्रेम की भूख सारी दुनिया को है, दूसरा : परमात्मा से प्रेम पाना इस बात पर मेरा अत्यधिक जोर है। जो कुछ हम दूसरे को देते हैं वह हमारे अंतस से ही आता है। जैसे यदि हम किसी को अशुद्ध प्यार देते हैं, तो अनेक जन्मों से संचित विष,
काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि विकारों से युक्त प्रेम ही दूसरों को देते हैं। यानि हमारा प्रेम अनेक प्रकार की कामनाओं, वासनाओं, अपेक्षाओं से रंग कर आता है। प्रेम की पवित्रता से रिक्त हृदय,
कारागार की सब ओर से बंद वह तंग कोठरी है, जहाँ सड़ाँध एवं दुर्गंध के सिवाए कुछ भी नहीं है। दम घुटने लगता है इस क्षुद्रता में। नफरत,
ऐसे ही मन की वह घिनौनी, ओछी तथा अत्यंत संकीर्ण बंद कोठरी है, जिसमें से खुदगर्जी की बदबू आती रहती है। यदि इस बदबू को बंद करना हो तो इस कोठरी को गिरा दीजिए। नहीं तो यह प्रेम अपनी निर्मलता के अभाव में काम और मोह का रूप धारण कर लेगा। प्रेम का निर्मल आलोक तो उन आत्माओं से प्रस्फुटित होता है, जहाँ `काम'
नहीं, कोई `वासना' नहीं रह जाती। प्रेम तो एक दान है। वासना, भिक्षा वृत्ति है। प्रेम और वासना में दूरियों का अन्तर आप आकाश और पाताल की दूरियों से भी नहीं माप सकते हैं। इसलिए वासना में इतने कलह है। परमात्मा से प्रेम के सिवाए सभी प्रेम असफल हो जाते हैं।
मान लीजिए यदि हम किसी को प्यार देते हैं और बदले में उससे अपेक्षा रखते हैं कि उसका तन मिले, धन मिले तो यह शर्त रहित निस्वार्थ प्यार तो नहीं हुआ ना। अपेक्षा अर्थात् भीख माँगने के संस्कार, कि उससे सुख मिलेगा। यह तो गुलामी पैदा करता है। प्रेम की भावदशा तो सम्राट की भावदशा है,
तो बिना शर्त ओर किसी अपेक्षा के बाँटता है। इसलिए स्वतंत्र व्यक्ति ही प्रेम दे सकता है। स्वतंत्र अर्थात् विकारों से मुक्त। मानव की मानवता को यदि सही अर्थों में जीवित रहना हो तो वह विशाल, उदार, विराट, निस्वार्थ एवं अनंत की ओर उन्मुक्त निर्मल प्रेम के सहारे ही जीवित रह सकती है।
मुहब्बत में मेहनत नहीं
मैंने कहीं पढ़ा था –– एक संन्यासी हिमालय की तीर्थयात्रा पर गया था। चढ़ाई भारी थी। पसीने से लथपथ उसकी श्वासें चढ़ गई। उसके सामने कोई दस-बारह साल की एक लड़की अपने छोटे भाई को कंधे पर लिए बड़े मजे से चढ़ रही थी। पसीने से लथपथ वह भी थकी-सी लग रही थी। संन्यासी उसके पास आया और बड़े ही सहानुभूति और प्रेम के भाव से उसने कहा –– ``बेटी, मैं भी बहुत थक गया हूँ, तू भी बहुत थक गई होगी। कितना भारी बोझ लेकर चल रही है''। उस लड़की ने क्रोधित होकर कहा ``स्वामी जी बोझ आप लिए हुए हो, यह तो मेरा छोटा भाई है, बोझ नहीं है''। देखा आपने, प्रेमपूर्ण सम्बंधों का चमत्कार! प्रेम ने सारे गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को ही समाप्त कर दिया। हालांकि तराजू पर उसके भाई का वजन स्वामी जी की पोटली से ज़्यादा था, परन्तु फिर भी प्रेम में उसे कोई बोझ नहीं, कोई मेहनत नहीं लगती थी। यदि हम जीवन के शाश्वत सत्य, अविनाशी सुख को प्राप्त करने के मार्ग पर अग्रसर हैं; परमात्म-मिलन के आनंद में लगे हैं तो निश्चय ही इसके लिए मेहनत या मूल्य चुकाना ही पड़ेगा। लेकिन परमात्म-प्रेम में मेहनत नहीं लगती। निरंतर परमात्मा की याद बनी रहे, यह साधना असंभव तो नहीं, परन्तु अत्यधिक कठिन ज़रूर है। लेकिन यदि प्रेमपूर्ण सम्बन्ध उनसे जुट जाएँ तो मेहनत, मेहनत जैसी नहीं रह जाती।