कई साल पहले मैं एक दिन कालेज से घर लौट रहा था। अचानक मेरी दृष्टि एक बोर्ड पर एकाग्र हो गई। उस बोर्ड पर लिखा हुआ था - सहज राजयोग प्रशिक्षण केन्द्र और नीचे लिखा हुआ था - प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय। तबसे इसके बारे में जानकारी लेने की इच्छा मेरे मन में तीव्र हो उठी। मैं आश्रम का द्वार खोल कर अन्दर गया।
मेरे आगमन पर सफेद पोशाक पहने हुए एक युवक ने विनम्रतापूर्वक अभिवादन करते हुए मुझे अन्दर बैठने को कहा। कमरे में प्रवेश करते ही रूहानियत भरे वातावरण का जो अहसास हुआ वह आज भी मेरे हृदय में अंकित है। कुछ पल बाद सफेद वस्त्रधारी एक महिला ने कमरे में प्रवेश किया और एक आसन पर बैठ कर मेरे शुभागमन के बारे में जानकारी लेने लगी।
फिर वह महिला बहुत स्नेहपूर्वक ज्ञानयुक्त बातें बताने लगी। वर्तमान समाज में व्याप्त भय व आतंक के वातावरण में, आध्यात्मिक विचारधारा की आवश्यकता पर बल देते हुए बहन जी ने जो भी बातें मेरे समक्ष रखीं, मैं उन पर काफी मुग्ध हो गया। मुझे महसूस हुआ कि अन्दर छिपे हुए विकारों से मुक्त होकर ही हम समाज में शान्ति स्थापना हेतु प्रयास कर सकते हैं।
बहन जी ने कहा - कयामत के समय अल्लाह आकर बन्दों के कर्मों का खाता देखता है और उचित कर्म खाते वाले बंदों को बहिश्त (स्वर्ग) में स्थान देता है। यह बात हिन्दू धर्म में इस प्रकार प्रचलित है - यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति....। तो अभी अल्लाह जो सभी रूहों का मालिक है, उसने आकर बहिश्त स्थापन करने के लिए यह रूहानी संस्था खोली है। मुझे सात दिन का एक पाठ्यक्रम पूर्ण करने के लिए बहन जी ने सलाह दी।
पाठ्यक्रम सम्पूर्ण होने के बाद मैं काफी रुचि के साथ मुरली (ईश्वरीय महावाक्य) सुनने लगा। मुरली सुनने आने में विशेष असुविधा नहीं होती थी, क्योंकि मैं प्रतिदिन नलबाड़ी शहर स्थित कालेज में पढ़ने आया करता था। शुरू के दिनों में मैंने अपने घर वालों से यह बात छिपा कर रखी थी। पर दुर्गा पूजा के समय जब कालेज बंद था तब सुबह-सुबह घर से निकल कर आने का कारण बताना पड़ा।
मेरे अपने घर वालों ने कोई बाधा नहीं डाली, लेकिन गाँव के कट्टर धर्म भीरू मुसलमानों को जब पता चला तो उन्होंने मुझे इस तरह के आश्रम में जाने से मना कर दिया। उन्हें डर था कि मैं हिन्दू धर्म को स्वीकार न कर लूँ।
परन्तु मैं छिप-छिप कर आश्रम आता रहा। कालेज में छुट्टियों के दिनों में, सुबह-सुबह मुरली क्लास में शामिल होने के साथ-साथ, योग अभ्यास द्वारा रूहानी नेत्र खोलने का एक सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ। नियमित योग अभ्यास के कारण मेरी अन्तरात्मा में नूर प्रकट होने लगा। खुदा ने मुझे अपने नूर का दीदार कराया।
मैं इसमें रम गया और रोज़ अमृतवेले के समय, एकान्त में बैठ कर, घर पर ही योग अभ्यास करने लगा। बहुत प्यार से रूह-रूहान कर, फजर (सुबह) का नमाज भी रोज़ अदा करता और नमाज अदा करने के बाद मस्जिद में या घर में ही अल्लाह को याद करने लगा। मुझ को ऐसे बैठा हुआ देख कर कई लोग हँसा भी करते थे।
एक दिन की बात है कि मैं अमृतवेले एकान्त में बैठ कर अल्लाह को याद करने के साथ-साथ, मन-ही-मन उनसे बातें कर रहा था। मेरी एकाग्रता इतनी थी कि मैं सचमुच देह की सुध भूल गया। अचानक मेरे शरीर के चारों ओर एक ज्योति ने घेराव कर लिया। मुझे प्रतीत हुआ कि उस घेराव के बीच एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योतिर्बिन्दु घूम रहा है, जो मुझे स्कूल में, विज्ञान की पुस्तक में पढ़े अणु की याद दिला रहा था।
उसी समय मुझे आत्मा अर्थात् रूह का अहसास हुआ। इस तरह मुझे आत्म-दर्शन करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसके बाद से मैं आत्मा का ज्योतिर्बिन्दु स्वरूप रोज़ स्मरण करने लगा। मुझे अलौकिक अनुभव होने लगे। दर असल बचपन से मैं रोज़ नमाज अदा करता था और मेरे दिल में एक तमन्ना थी कि मैं खुदा का स्मरण करने पर उसकी मुहब्बत का हकदार बन सकूँ।
योगाभ्यास के द्वारा आत्म-दर्शन और परमात्मा के दर्शन से मानो मेरी दिली तमन्ना पूर्ण हो गई। रूह के अस्तित्व के बारे में आलिम-उलामाये (ऋषि-मुनि) या विज्ञानी लोग खोजबीन कर रहे हैं, परन्तु प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय से जुड़ने पर यह सब बातें स्पष्ट हो जाती हैं। जिस दिन से मैं इस विश्व विद्यालय से जुड़ा, मेरा सम्बन्ध रूहानी पिता से हो गया। वक्त के साथ-साथ मैंने खुदा को अपने आत्मिक पिता के रूप में पहचान लिया।
मुस्लिम धर्म में फ़रिश्तों के बारे में काफी कुछ कहा गया है। फ़रिश्ता बनने का अहसास मुझे तभी से होने लगा जब से मेरी प्रीत जुड़ी। योगाभ्यास जारी रखने पर महसूस होने लगा कि शरीर के चारों ओर रोशनी का अहसास ही तो फ़रिश्ता स्टेज है। स्वयं को ज्योति अनुभव करने पर शरीर का भान नहीं रहता और शरीर से मुक्त होकर उड़ने का अहसास होता है।
तभी मालूम पड़ता है कि इस दुनिया में सभी रिश्तों के बन्धनों से, मन-बुद्धि से मुक्त होकर फ़रिश्ता कैसे उड़ सकता है। यह अनुभव कभी परिजादा बना देता है, कभी बेगमपुर का बादशाह तो कभी शहनशाह। कभी-कभी योग के गहन अनुभव के समय मन बिल्कुल अन्तर्मुखी हो जाता है। मुझे अलौकिकता का इतना अनुभव होता है कि कभी-कभी मैं स्वयं की ईसा (यीशू), गौतम बुद्ध और जिब्राहिल (ब्रह्मा) के साथ तुलना करने लगता हूँ और मुझको यही अनुभव होता है कि आत्म बल व आत्म-स्मृति के साथ-साथ मन की पवित्रता और एकाग्रता के कारण ही पैगम्बर या धर्म स्थापक महान गिने जाते हैं।
मेरा यही विनम्र निवेदन है कि खुदा ने संसार में आकर, व्याप्त अंधकार को दूर करने के लिए, देश-विदेश में जो राजयोग सेवाकेन्द्र खोले हैं उनसे आप जुड़ें तथा योगाभ्यास द्वारा जीवन में सच्ची सुख-शान्ति का अनुभव प्राप्त करें।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।