नि:स्वार्थ कर्म – जीवन की सुगन्ध (Part : 7)

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(भाग 6 का बाकी) ---- जीवन ऊर्जा है

दूसरी बात हम कहते हैं –– जीवन ऊर्जा (Life is energy) है। शक्ति कभी भी निष्क्रिय नहीं हो सकती है। वह सदा सक्रिय होती है। एक बच्चा चलता है तो उछलता हुआ चलता है। इसलिए बच्चे को बैठा देना एक कठिन और सजा देने जैसा काम है। अब यह काम बड़ों को बड़ा ही अजीब-सा लगता है। वह सोचता है बिना काम के बच्चा क्यों दौड़ता-उछलता है। बिना काम के क्यों उछलता है? लेकिन सवाल काम का नहीं है। बच्चा हमेशा फ्रेश शक्तियों से स्पन्दित होता रहता है। इसलिए उम्र पा लेने पर भी आध्यात्मिक व्यक्ति का मन बचपन की ताजगी से भरा रहता है।

गलत संस्कार या आदत के कारण हमारी शक्तियाँ राग-द्वेष, घृणा-प्रेम आदि द्वंद्वों के माध्यम से चलती रहती है। समझ तो यही कहती है कि कर्म आंतरिक शक्ति या ऊर्जा से पैदा होता है, राग-द्वेष से नहीं। लेकिन हमें ऐसा संदेह होता है। कारण कि द्वंद्वों से बाहर होकर हमने कभी कोई कर्म किया ही नहीं। प्रकृति में भी जितनी गतिशीलताएँ हैं वह द्वंदातीत है। तो एक बात हमे यह अच्छी तरह से समझ लेना है कि कर्म का जन्म राग-द्वेष से नहीं अपितु आन्तरिक शक्ति से सम्पादित होता है और ऊर्जा जब कर्म बनती है तो वह कर्म ज्ञानयुक्त, बिना किसी द्वंद के सम्भव है।

क्या सभी कर्म अभिनय हो सकते हैं?

फिर प्रश्न उठता है कि यांत्रिक-औद्योगिक काम भी क्या अन्तप्रेरणा के हो सकते हैं? हाँ, हो सकते हैं। जिसे कर्मयोगी जीवन में निष्काम कर्म का आनंद गया है वे चाहे तो दुकान से लेकर कारखाने तक के कार्य को बिना किसी फल पाने की अंतप्रेरणा के चला सकता है। उसका एक कारण है। मनुष्य के स्वभाव में भिन्नता अनिवार्य है। इसी कारण लोग अलग-अलग तरह के कर्म पसंद करते हैं।

यदि किसी को कारखाना चलाने में आनंद आता है तो वह उल्टी चीज़ें बनाकर तो उपभोक्ता का शोषण करना चाहेगा और तो मजदूरों का शोषण उसके काम में घण्टे को बढ़ाकर या कम मजदूरी देकर ही। कारखाने में काम करने वाला व्यक्ति अब उसका नौकर नहीं, बल्कि मित्र होगा। एक आत्मवत दृष्टिकोण और बेहतर मानवीय सम्बन्ध मालिक और कर्मचारियों के बीच इस स्थिति प्राय बन जाता है।

यदि दुनिया में समता लानी है, तो वह एक आध्यात्मिक व्यक्ति ही ला सकता है। यह कार्य तो कांग्रेस, तो कम्युनिस्ट और ही सोशलिष्ट कर सकते हैं। तो कार्ल मार्क्स का सिद्धाँत सफल हो सकता है, ही लेनिन का। यदि व्यक्ति दुकान चला रहा हो तब भी वह यह कार्य ग्राहक के शोषण के लिए नहीं, बल्कि इस शुभ भाव से कि हम सभी आत्माएँ उसी प्रभु की सन्तान आपस में भाई-भाई हैं। इस भाई-भाई के सम्बन्ध का माधुर्य फिर स्वत ही आनंदपूर्ण कर्म का अविर्भाव करेगा। वह अपने ग्राहकों को कम-से-कम लाभ और उसे अधिक-से-अधिक सुविधा देगा।

उसका रस, फल या किसी लाभ में नहीं लेकिन आनंदपूर्ण कर्म में होगा। संत कबीर की अन्त दृष्टि बहुत कुछ इन्हीं कर्म-योग के भाव से आन्दोलित थी। तब  ही तो वे अपने ग्राहक को कहते थे। `राम' यह चादर मैंने आपके लिए ही प्रभु की याद में बड़े प्रेम से बुना है, इसे प्यार से पहनना। लेकिन सकाम व्यक्ति हमेशा अधिक लाभ के बारे में ही सोचता हैं। चाहे उसे कार्य में ग्राहक का शोषण ही क्यों हो। जब वह लाभ के पैसे से बैंक बैलेंस को बढ़ाता है तब कहीं फिर उसे सुख का अनुभव होता है।

बेचते-खरीदते समय कर्म में उसका कोई भी आकर्षण नहीं है अपितु उससे होने वाले लाभ में उसकी दृष्टि टिकी रहती है। लेकिन ज़रा सोचिए कि यदि कर्म के समय मनुष्य को कोई आनंद नहीं मिलता है तो फिर उससे उत्पन्न फल से आनंद कैसे आयेगा। क्योंकि कर्म तो बीज है यदि बीज ही विषमय है तो फल आनंदपूर्ण कैसे होगा? इसलिए कोई भी कर्म फलाकांक्षा रहित प्रेरणा के सम्भव हो सकता है।

कर्म आनन्द सृजन का महोत्सव बन गए

खेलना किसे नहीं भाता है! नृत्य संगीत किसी रुचिकर नहीं है। कौन नहीं चाहता है कि उसका जीवन खेल-खेल में नृत्य, संगीत में गुजर जायें। एक समय था जब मानव जीवन इसी प्रफुल्लता, सहजता में हँसते गाते आनन्द विभोर हो गुजर जाया करता था। जिसे मानव जीवन का स्वर्णकाल कहा जाता था। लेकिन अब वह बात कहाँ?

साधारणत अब ये बातें आज के इस परिवेश में कल्पना लोक की बातें लगती हैं। कर्म, मानव-जीवन का अखण्ड अंग है। इससे मुक्त होकर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। लेकिन कर्म को हमने अनेक अवधारणाओं से बांधे रखा है। जैसे यश-प्रतिष्ठा, मान-शान, राग-द्वेष, अनेक आकांक्षाएँ, अपेक्षाएँ और भी बहुत-कुछ.... क्या जीवन में कर्म आनन्दपूर्ण, संगीतपूर्ण, नहीं हो सकता है?

क्या इसे पत्थर की तरह दिल पर रखकर तनावपूर्ण जीना ज़रूरी है? क्या ऐसी मनस्थिति का निर्माण सम्भव नहीं है, जिससे कर्म आनन्द बन जाये और जीवन में खुशियों के फूल खिलते चले जायें। अनुभव तो यही कहता है कि यदि ठीक-ठीक दिशा में थोड़ा पुरुषार्थ हो तो यह सम्भव है।

जीवन में कर्म से अधिक मूल्यवान भाव है

साधारणतय लोगों को अपने काम महत्त्वपूर्ण और आकर्षक नहीं लगते हैं। दूसरों के काम बड़े महत्त्वपूर्ण और आकर्षक लगते हैं। जिस कर्म से व्यक्ति को बहुत बड़ा राष्ट्रीय पुरस्कार या अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाये या बड़े पदों तक पहुँच जायें, ऐसे कर्मों के प्रति लोगों के मन में बड़ी ही सम्मान प्रतिष्ठा सदा बनी रहती है। परन्तु अनुभव कहता है ऐसा दृष्टिकोण ठीक नहीं है। महान् व्यक्ति छोटे-छोटे कर्मों से पहचाने जाते हैं। क्योंकि कर्मों की ध्वनि शब्दों से ऊँची है जीवन तो छोटे-मोटे कर्मों से भरा पड़ा है।

हम क्या काम करते हैं यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि महत्त्व रखता है तो मात्र इतना कि हम उसे किस ढंग से और किस भाव से सम्पादित करते हैं। कर्म का आधार वृत्ति को श्रेष्ठ बनायें, प्रवृत्ति खुद--खुद श्रेष्ठ हो जाएगी। मानव-जीवन में उतार-चढ़ाव उसके अपने भावों और विचार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है। जैसे-जैसे भाव, वैसे ही विचार, वैसे ही कर्म और व्यवहार और फिर वैसे-वैसे संस्कार बन जाते हैं –– यह एक चक्रीय शृंखला, जो मनुष्य को अच्छे या बुरे जीवन-निर्माण की दिशा में गतिशील करती है।

कर्म परछाई की तरह मनुष्य के साथ रहते हैं। इसलिए सदा श्रेष्ठ कर्मों की शीतल छाया में रहें। आन्तरिक भाव निर्मल और पवित्र है, विवेक के प्रकाश से पूर्ण है, फिर कर्म स्वाभाविक रूप से पाप मुक्त सुखद और आनन्दपूर्ण होगा ही। यदि आप उसे अपनी सम्पूर्ण एकाग्रता और कुशलता से कर सकते हैं। तो वही कर्म, योग बन जाता है। इसलिए जो भी कर्म करें उसे पूर्ण जागृत होकर करें। पैसे के लिए, यश और प्रतिष्ठा के लिए ही मात्र कर्म नहीं करना चाहिए लेकिन उसे कर्मयोगी बनकर करना चाहिए। कर्म में योग जुड़ जाये।

अपने श्रेष्ठ स्वमान, प्रभु-प्रेम और उसमें समर्पित यह भाव कि मैं परम भाग्यशाली हूँ जो मुझे दूसरों की सेवा या उसे सुख पहुँचाने का एक सुअवसर मिला यह भाव ही मनुष्य को महान् बना देगा। यदि ऐसा हो सके तो इससे और अधिक सुखद परिस्थिति दूसरी नहीं हो सकती है, जो हमारे आन्तरिक और ब्राह्य जीवन के रूपान्तरण में मददगार साबित हो।

साधारणत जब भी हम कुछ करते हैं तो कुछ पाने का भाव उस कर्म में अवश्य ही समाया रहता है। जैसे रुपया, जो जीवन के लिए ज़रूरी तो है, लेकिन इसे ही हमें जीवन का अंतिम सत्य नहीं मान लेना चाहिए। अपने जीवन में उसे बॉय प्रोडक्ट की तरह आने दें। लेकिन कर्म, आनन्द के लिए दूसरे को आपसे सुख और सहयोग मिले इसे निष्काम भाव से करें। फिर देखिए अनचाही खुशी के अनगिनत बातायन आपकी ज़िन्दगी में अपने आप खुलते चले जायेंगे।

(शेष भाग ---8)

 

प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में

आपका और आपके परिवार का तहे दिल से स्वागत है।

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