भारतीय समाज चरखे से भली-भाँति परिचित है। बापू गाँधी ने आज़ादी की लड़ाई में इसे स्वावलंबन की शक्ति के रूप में प्रयोग किया था। चरखा जब चलता है तो उसे तेल की ज़रूरत होती है लेकिन कई घंटे सूत कातने के बाद, केवल दो-चार बूँदें ही लेता है क्योंकि चरखे का उद्देश्य तेल पीना नहीं है।
उसका उद्देश्य तो सूत कातना है और तेल उसकी ज़रूरत है। हज़ारों किलोग्राम रूई का धागा बना देने वाला, बदले में हज़ारों किलो तेल नहीं माँगता। कण भर उपभोग करके मण भर सेवा करता है।
मानव जीवन पर भी चरखे वाला सिद्धांत लागू होता है। उपभोग के पदार्थ तो उसे चरखे के तेल की तरह ही चाहिएँ। जीवन का असली लक्ष्य तो पुण्य का खाता जमा करना है। बूँद भर तेल डालने की बजाय यदि चरखे को तेल में डुबो दिया जाए तो क्या होगा? और मनुष्य भी यदि भोग के पदार्थों में आकण्ठ डूब जाए तो उसका क्या बनेगा?
तेल में डूबे चरखे का जैसा हश्र होगा, भोगों में डूबे मानव का भी वैसा ही हश्र हो जाएगा। दो प्रकार की संस्कृतियाँ हैं, एक है उपभोक्तावादी और दूसरी है उपयोगितावादी। उपभोग (उप+भोग) शब्द के अन्त में `भोग' है और उपयोग शब्द के अन्त में `योग' है। भोग का कोई अन्त नहीं, कोई तृप्ति नहीं। आग में पड़ते घी की तरह, भोग के पदार्थों द्वारा भीतर की इच्छाओं की आग और ज़्यादा भड़कती है।
इसलिए भ्रतृहरि ने कहा है - `भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता' अर्थात् भोगों को हमने भोगने की कोशिश की परंतु वे नहीं भोगे गए, उन्होंने हमें ही भोग लिया। हज़ारों प्रकार के सुगंधित तेल लगाते भी बाल या तो उडारी मार गए, झड़ गए या सफेद हो गए। हमने तेल को नहीं भोगा, तेल ने ही हमारे बालों को भोग लिया। तेल तो आज भी है अर्थात् भोग तो आज भी हैं पर बाल कहाँ, वे भोगे गए।
इसी प्रकार आँखें संसार को देखते-देखते क्षीण हो गईं परंतु चीज़ों और दृश्यों का अन्त नहीं आया। विभिन्न स्वाद लेते-लेते दाँत भोगे गए, स्पर्श करते-करते त्वचा लटक गई। भोग जवान होते गए और हम बूढ़े। भोग बने रहे और हम चले गए। जाते हुए आदमी को ये भोग उसी प्रकार चिढ़ाते हैं जिस प्रकार अपने पंजे में आए शिकार को चूस कर दुश्मन ठहाका लगाता है।
मरणशील आदमी के चारों ओर बिखरे भोगों का अट्टहास ही तो उसे परेशान करता है जिसे केवल वह सुनता है। वे कह रहे होते हैं - `हे नादान मानव! तूने हमें मुट्ठी में लेने की कोशिश की, आज तेरी मुट्ठियाँ ढीली पड़ रही हैं। तुम जाओ, हमें तुमसे ज़रा भी मोह नहीं क्योंकि तुम नहीं तो और सही, और नहीं तो और सही, हमारे लिए तो लाखों हैं।'
और उस बेचारे के पास इनकी बेवफाई पर आँसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं बचता। यह उपभोक्तावादी संस्कृति ही तो है जो कहती है, भले शान्ति साथ छोड़ जाए, रिश्तों में रस खत्म हो जाए, हक पर छीना-झपटी हो जाए, दिलों में दरारें आ जाएं, भगवान और श्रेष्ठ कर्म से दूरी हो जाए पर आलीशान मकान बनाओ। माथे में रखे आलीशान विचार किसे दिखते हैं, आँखें तो आलीशान डिज़ाइन और महंगे प्लास्टर को ही देखेंगी। ऊँचे-नीचे सब कर्म इसकी शान के नीचे दब जाएंगे। काले कर्म, इसकी चकाचौंध में स्वत छिप जाएंगे।
आज चारों ओर उपभोग बढ़ाने की होड़ है, उपभोगों का दिखावा है। टी.वी., रेडियो से लेकर गली-मोहल्ले तक - क्या खाया, क्या पहना, क्या खरीदा - इन्हीं की चर्चा है। क्या खिलाया, क्या पहनाया, क्या दान-पुण्य में लगाया - यह प्रसंग इतिहास की चीज़ हो चुका है।
हर चौराहे पर, सीना तान कर खड़ा हुआ `भोग' चौधरी बनकर चिल्ला रहा है - शरीर रूपी चमड़े को रंग दो, कई रंग लगाकर चेहरे की असलियत छिपा दो, समय से ज़्यादा अमूल्य है यह शरीर, इस पर घण्टों पर घण्टे बरबाद करो। मात करो दूसरों को कपड़ों और उनकी सिलाई में, लोगों की नज़रों को अपने में उलझा कर उन्हें भी श्रेष्ठ कर्म से डिगा दो, जितना कमाते हो, सारा शरीर पर लपेट लो, ध्यान रहे, किसी दूसरे के काम न आने पाए। यह नश्वर शरीर किसी भोग से अछूता न रह जाए।
भोग चौधरी की इस कर्ण कटु ध्वनि के बीच एक शान्त और शीतल स्वर लहरी भी है, जो गुप्त है और केवल एकाग्रचित्त, निर्मलचित्त और ईश्वरीय विवेकयुक्त आत्माओं को ही सुनाई देती है। लगन लगाकर सुनिए तो सही, यह परम हितकारी `राजयोग' की आवाज़ है।
राजयोग प्रेरित उपयोगितावादी संस्कृति कहती है, विचार आलीशान हों, दिल बड़ा हो। चेहरे पर मखमली मुस्कराहट हो। इंद्रियों को भोगों में डूबने-गलने से बचाकर अनुशासन में रखिए। इंद्रियों का रस पीना छोड़कर बौद्धिक और आत्मिक रसपान कीजिए। इंद्रियों रूपी खिड़की के पट बाहर की ओर न खोलकर, भीतर की ओर खोलिए। भीतर झांककर, मस्तक रूपी सीप में छिपे आत्मा रूपी मोती का साक्षात्कार कीजिए। आत्मा के तेज को, चिन्तन के द्वारा प्रखर कीजिए।
जैसे आजकल ऐसी बैटरी आती है जो मात्र फिरकी के घूमने से चार्ज हो जाती है, ऐसे आत्मचिंतन रूपी फिरकी घुमाने से आत्मा रूपी बैटरी का तेज बढ़ाइये। संकल्प रूपी विमान पर बिठाकर, तेजस्वी बनी आत्मा को, परम तेजस्वी परमात्मा के सम्मुख परमधाम में उपस्थित कर दीजिए। सांसारिक पदार्थों का निमित्त मात्र आवश्यकता प्रमाण उपयोग करते हुए भी, उनके आवरण से सदा मुक्त रहिए।
पदार्थों की दासी बनना छोड़िए, उदासी भी भाग जाएगी। भोग का सिद्धान्त है, ऊपर से चमको, भीतर से काले रहो। योग का सिद्धांत है, बाहर स्वच्छता से और भीतर पवित्रता से चमको। शरीर भी स्वच्छ रखो, मन भी निर्मल बनाओ।
हम सबने बाज़ार से गुज़रते हुए, कई बार कटे हुए आधे तरबूज को देखा है। कटे तरबूज पर मक्खियाँ बार-बार और बहुत मात्रा में आकर बैठती हैं। साबुत तरबूज पर मक्खी-मच्छर बैठें तो कोई खास फ़रक नहीं पड़ता पर उसके भीतर की लाल गिरी में यदि जीवाणु चले जाएं तो बहुत नुकसानकारक बन जाता है। ये जीवाणु इतने सूक्ष्म होते हैं जो दिखाई नहीं देते पर नुकसान भारी करते हैं।
देखिए, मानव का सिर भी तो तरबूज जैसा ही है। उस पर धूल-मिट्टी गिर जाए तो उससे इतना नुकसान नहीं होता, उसे धोया जा सकता है परंतु सिर के भीतर रहने वाली आत्मा पर विकारों की धूल गिर जाए तो महानुकसान हो जाए। विकार तो जीवाणुओं से भी सूक्ष्म हैं। जीवाणु सूक्ष्मदर्शी या दूरदर्शी से देखे जा सकते हैं परंतु विकार तो कैसे भी नहीं देखे जा सकते।
जैसे तरबूज वाला, तरबूज पर मक्खी नहीं बैठने देता, इसी प्रकार हमें भी मन के भीतर दुर्बलता और मल को प्रवेश नहीं होने देना है। चित्त निर्मल चाहिए। भगवान का चित्त सदा निर्मल है। रामायण में आता है - निर्मल जन सोही मम पावा, मोहे छल, छिद्र, कपट न भावा। भोग का परिणाम है, दुर्बल चित्त, छलिया और कपटी चित्त, कामी और क्रोधी चित्त, ईर्ष्यालु, झगड़ालु चित्त, भारी और भटकता चित्त।
योग का फल है निर्मल और निश्छल चित्त, हल्का और हर्षित चित्त, उदार, निराधार और निर्विकार चित्त। अत उपभोग छोड़ उपयोग करना सीखिए, निर्मल चित्त उपहार में पाइये।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।