दिखावे की दलदल

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यदि किसी दवाई की शीशी पर लेबल (नामपत्र) कुछ और हो और अन्दर कुछ और हो तो उसको इस्तेमाल करने वाले का क्या हाल होगा? यदि कोई बस दिल्ली जा रही हो और उसके आगे लगी परिचय-पट्टिका पर अहमदाबाद लिखा हो तो बैठने वाले का क्या हाल होगा? ऐसा ही हाल तब होता है जब किसी व्यक्ति के मुख में कुछ और, मन में कुछ और तथा कर्म में कुछ और होता है और हम उसका संग तथा विश्वास कर लेते हैं।

करनी, कथनी, रहनी की एकता - आध्यात्मिक व्यक्ति, ज्ञानी व्यक्ति, चरित्रवान व्यक्ति, विश्वसनीय व्यक्ति वो है जिसकी करनी, कथनी, रहनी एक है। जिसे अपने संकल्प की कदर है कि जो सोचा वह करना ही है, जिसे अपनी वाणी की कदर है कि जो बोला वह करना ही है और जिसे अपने कर्म की कदर है कि मेरा कर्म, मेरे मन और  वचन से भिन्न नहीं होना चाहिए।

कई बार हम इस एकता का दिखावा करते हैं और यह भी चाहते हैं कि इस दिखावे का पता भी किसी को नहीं लगना चाहिए। हम ऊँची-ऊँची  बातें करके दूसरे के सामने अपने को ऊँचा प्रदर्शित करते हैं। हम गुणवान होते नहीं हैं पर दूसरों के सामने अपने गुणों की डींग हांकते हैं। हम पात्र होते नहीं हैं पर वाक्-बल से अपनी योग्यता और पात्रता का बढ़ा-चढ़ाकर बखान करते हैं। इसका परिणाम क्या निकलता है?

यही कि असलियत का पता लगने पर हम अपने वास्तविक स्तर से भी नीचे आंक लिये जाते हैं। हमारी हालत वही होती है कि `चौबे जी गए थे छब्बे बनने पर दुबे ही रह गए।' आसमान छूने की आस लगाई थी पर हाय रे दिखावा, धरती भी नसीब नहीं हुई। ऐसे में हमारा आधार खिसक जाता है और जीवन भर के लिए `झूठा, फरेबी, ठग, धोखेबाज़, चालबाज़, विश्वासघाती, भीतर ज़हर बाहर अमृत' आदि अनेक उपाधियाँ हमें प्राप्त हो जाती हैं।

भौतिक जगत में नकली चीज़ें बेची, खरीदी, बनाई जाती हैं मुनाफा कमाने के लिए। ऊपर चिह्न असली जैसा लगेगा, अन्दर माल नकली भरा होगा। व्यक्ति ऐसी चीज़ खरीदकर पछताता है और देने वाले को भला-बुरा भी कहता है। आजकल ऐसे ग्राहकों को न्याय दिलाने के लिए उपभोक्ता न्यायालय बने हुए हैं जहाँ ग्राहक के साथ हेने वाली किसी भी प्रकार की नाइन्स़ाफी के बदले उसे कई गुणा मुआवज़ा दिलवाया जाता है सम्बन्धित व्यापारी या विव्रेता से।

प्राण जाई पर वचन जाई - यदि हमारी करनी और कथनी के अन्तर के कारण किसी को तकल़ीफ होती है तो मुआवज़ा तो हमें भी देना होगा। आज नहीं तो कल और प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप में और यहाँ नहीं तो ईश्वरीय दरबार में।

इसलिए कोई भी बोल बोलने से पहले जाँच लें कि मैं इसे निभा पाऊँगा या नहीं। कोई शिक्षा देने से पहले जांच लें कि मेरे जीवन में यह है कि नहीं। बिना करनी के केवल कथनी झाड़ते रहना तो ऐसा ही है जैसे कि फसल के लिए बोए गए बीजों को अंकुरित होने से पहले ही उखाड़-उखाड़ कर बांट देना। फिर फसल कहाँ से होगी?

कर्म में लाने का पुरुषार्थ किये बिना ही हमने अपने शब्दों को, संकल्पों को बांट दिया, तो हमारे पास सिवाए खालीपन के क्या बचेगा? हरेक महापुरुष के जीवन की सबसे ऊँची बात यही दिखाते हैं कि उसने कितने भी कष्ट सहन किए पर अपने वचनें की आन रखी। रामायण महाकाव्य का तो प्रसिद्ध सूत्र वाक्य है `प्राण जाई पर वचन जाई' महाभारत के भीष्म का नाम भी, प्रतिज्ञा की दृढ़तापूर्वक पालना के कारण रोशन है।

साहित्य में वर्णन आता है कि महात्मा बुद्ध के एक शिष्य की कथनी बड़ी ऊँची थी पर करनी उसके प्रतिकूल थी। महात्मा बुद्ध ऐसी भूल का परिणाम जानते थे इसलिए उस करुणाशील मनीषी ने शिष्य को युक्ति से सावधान किया। एक दिन मार्ग पर गउओं का झुण्ड जा रहा था। बुद्ध ने शिष्य से कहा, गिनो तो कितनी गउएँ हैं।

शिष्य गिनने में होशियार था, तुरन्त बोला, चार सौ उनचास! बुद्ध ने पूछा, क्या गिनने भर से गौएं तुम्हारी हो गईं? शिष्य ने कहा, नहीं भन्ते। बुद्ध ने पूछा, इनका मालिक बनने के लिए क्या करना पड़ेगा? शिष्य ने उत्तर दिया, इनको खरीदना पड़ेगा, फिर बड़े स्थान का प्रबन्ध करके इनको रखना पड़ेगा, इनके चारे और पानी और स्वच्छता पर ध्यान देना पड़ेगा।

इनके स्वास्थ्य, इनकी सन्तान आदि बहुत-सी बातों के लिए समय देना पड़ेगा, तब जाकर हम इनके मालिक बन पायेंगे। बुद्ध ने कहा, उपदेशों को भी गिन लेने मात्र से हम उनके मालिक नहीं बन जाते वरन् उनको बार-बार स्मरण करना, उनका मनन करना, उनको कर्मों में उतारने की प्रैक्टिस करते रहना, उतरें तो बार-बार उसी प्रयास में लगे रहना, सब सुख-सुविधाओं को त्याग, उपदेशों का स्वरूप बनने की मेहनत करना, यह सब करना होता है, तब जाकर हम सच्चे उपदेशक बन पाएंगे। शिष्य का इस शिक्षा से तुरन्त परिवर्तन हो गया।

सिद्ध करना माना दाल में काला - बर्फ को कहना नहीं पड़ता कि मैं ठण्डी हूँ और सूर्य को भी बताना नहीं पड़ता कि मैं गर्म हूँ, उनका स्वरूप स्वत उनके गुण को प्रकट करता है। यदि बोल-बोल कर, शोर मचा-मचा कर कोई बात सिद्ध करनी पड़ रही है तो समझ लीजिए कि दाल में कहीं काला अवश्य है।

आध्यात्मिक जगत में ज्ञान, गुण और तपस्या के दिखावे के कारण और भौतिक जगत में चीज़ों और उपभोग सामग्रियों के दिखावे के कारण लोग बहुत नुकसान उठाते हैं, तनावग्रस्त, अवसादग्रस्त और रोगग्रस्त रहते हैं। इसका अर्थ तो यही हुआ कि वह  जो कुछ है उसे इतने घटिया स्तर को मानता है कि उसे ढकने के लिए तरह-तरह के दिखावे करता है। उन दिखावों की बदौलत वाहवाही और प्रशंसा पाना चाहता है और दूसरों पर हावी भी होना चाहता है। इसमें मानसिक-शारीरिक शक्ति नष्ट करता है और यदि दिखावे की चादर में कहीं चीर गई तो पहले से भी ज़्यादा बौना हो जाता है।

एक किस्सा सुनाते हैं कि एक गरीब स्त्री किसी सेठ के घर गई, सेठानी ने हाथी दांत का चूड़ा पहना था। आस-पास की औरतें उस कीमती चूड़े को देखने रही थीं और सेठानी को बधाइयाँ दे रहीं थीं। गरीब स्त्री का मन भी बधाइयाँ पाने को ललचा उठा। उसने पति से ज़िद्द करके वैसा चूड़ा मंगवाया, पहना और झोपड़ी के बाहर हाथ लटकाकर पीढ़े पर बैठ गई। पर देखने तो कोई आया नहीं।

मन में प्रदर्शन की आग भड़क रही थी, उसे शान्त करने के लिए उसने झोपड़ी को दियासलाई से सुलगा दिया। सहानुभूति के साथ पड़ोसी दौड़े, पूछा, बहन, तुम्हारा कुछ बचा कि नहीं। वह बोली, बस यह चूड़ा बचा है। लोगों ने पूछा, अरे, यह कब पहना? वह बोली, यह बात तुम पहले ही पूछ लेते तो मेरी झोपड़ी क्यों जलती? लोग उसकी मूर्खता पर हंसे, उनकी सहानुभूति आक्रोश में बदल गई।

बेचारी गरीब स्त्री को आँसू, पश्चाताप और राख के अलावा क्या मिला? कितने ही अवसरों पर हम अपनी हैसियत से बाहर पांव पसारते हैं, महज लोगों की निगाहों को पकड़े रखने के लिए समय, धन, शक्तियाँ व्यर्थ गंवाते हैं। वांछित वाहवाही मिलने पर औंधे मुँह लेटकर सिसकियाँ भरते हैं।
 
मन के मालिक या दास - मन में सोचा हुआ ज्यों का त्यों कर्म में जाए तो हम मन के मालिक कहलाते हैं और सोचा ज़्यादा, पर कर्म कम हो तो हम मन के दास कहलाते हैं क्योंकि इसका अर्थ यह है कि हमारा मन व्यर्थ की उड़ानें बहुत भरता है। कई बार हम कर्म करने से पहले हज़ारों बार सोचते हैं कि ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे पर करने का मौका आने पर चूक जाते हैं और कई बार हम बिल्कुल नहीं सोचते, सीधा कर लेते हैं पर बाद में पश्चाताप हाथ  लगता है। उपरोक्त दोनों स्थितियाँ गलत हैं।

बहुत सोचने और बिल्कुल ना सोचने के बीच की  स्थिति है द़ृढ़ संकल्प में स्थित होना। स्थित होने पर सोचना बन्द हो जाता है। मन मौन होकर परमात्मा की याद में खो जाता है। परमात्मा के साथ का अनुभव करते हुए जो कर्म किया जाता है उसकी स़फलता असीम  होती है।
 
ज्ञानमूर्त या अर्धज्ञानमूर्त - स्थूल धन के सम्बन्ध में वह व्यक्ति नादान कहा जाता है जो कमा-कमा कर धन इकट्ठा तो करता है पर उसका सदुपयोग नहीं करता। वह  धन का मात्र चौकीदार बनकर रह जाता है। वह इस भ्रम में भी पड़ा रहता है कि बुढ़ापे में यह धन सुख देगा पर कई बार बुढ़ापे से पहले ही शरीर और आत्मा का योग पूरा हो जाता है।

यदि बुढ़ापा भी जाए तो उसकी असमर्थता का फायदा उठाकर कई चीलें उस धन पर मंडराने लगती हैं और उसकी शान्ति भंग कर देती हैं। परन्तु अध्यात्म के क्षेत्र में वे सब नादानों से भी महानादान हैं जो ज्ञान सुनते, पढ़ते, सुनाते, लिखते हैं परन्तु उसे आचरण में नहीं लाते। कुछ मात्रा में आचरण में लाते हैं, पर पूरा आचरण में नहीं लाते। या फिर यह सोच लेते हैं कि सारी बातें पालन करने की थोड़े ही होती हैं।

आइये, आत्मावलोकन करें, कहीं `ज्ञानामूर्त' का लेबल चिपकाकर हम भी अन्दर से `अर्धज्ञानमूर्त' तो नहीं हैं? यदि ऐसा हो तो जैसा लेबल है वैसा जीवन बनाने के पुरुषार्थ में गम्भीरता से लग जाएँ, इसी में हम  सबका  कल्याण है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।


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