सर्वज्ञ और सर्वशक्तिवान

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अभी तक हम सभी भक्तिमार्ग में यही सुनते और पढ़ते आये कि परमात्मा सर्वव्यापी हैं, प्रत्येक जीव में और कण-कण में विराजमान हैं। हर आत्मा में परमात्मा का निवास है और आत्मा, परमात्मा का अंश है। यह धारणा हम सभी के जीवन में इतनी गहराई से बैठी हुई है कि इसकी वास्तविकता पर किंचित विचार करने का संकल्प भी हमारे मन में नहीं आता। यदि कहीं उल्लेख होता है कि परमात्मा सर्वव्यापी नहीं है तो हम बिना सोचे-विचारे फौरन यह कहकर कि `यह नास्तिकों का विचार है' बात को एकदम वहीं समाप्त कर देते हैं।

सोचते हैं कि यदि ऐसा विचार भी हमारे मन में आया तो कहीं हमसे परमात्मा नाराज़ हो जाये। परमात्मा के प्रति जो कुछ हमने आज तक भक्ति में सुना अथवा पढ़ा इसके विपरीत हम कुछ और सुनने और सोचने को तैयार ही नहीं हैं। हमारी आस्था और भावना की जड़ें सचमुच बहुत गहरी हैं परंतु यह भी गौर करने की बात है कि आज दुनिया में भक्ति का कितना विस्तार है परंतु इसके बावजूद कहीं भी सुख, शांति और सच्चा प्यार नहीं है। आखिर क्यों? आइये समझें।

परमात्मा और देवताओं में अन्तर - परमात्मा की महिमा में सभी मनुष्य मात्र गाते हैं कि वह सृष्टि का रचयिता, पतित पावन, शांति का सागर, सुख का सागर, प्रेम का सागर, पवित्रता का सागर, ज्ञान का सागर, आनन्द का सागर, सर्वशक्तिवान, सर्व का भाग्य-विधाता, सबकी बिगड़ी को बनाने वाला, सर्व का सद्गति दाता, सर्व का मुक्ति-जीवन्मुक्ति दाता, दिव्य बुद्धि का दाता, परमपिता, परमशिक्षक, परमसतगुरु है।

त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी, त्रिलोकीनाथ है। उनके अनेक गुणवाचक नाम जैसे मुक्तेश्वर, पापकटेश्वर, खिवय्या, बागवान, बबुलनाथ, भूतेश्वर, अमरनाथ, सोमनाथ, विश्वनाथ आदि भी हैं। परमात्मा की उपरोक्त महिमा से स्पष्ट है कि वो एक है।

ऐसी महिमा मनुष्यों की तो क्या देवताओं की भी नहीं है। देवताओं की महिमा में कहा जाता है कि वे सर्वगुण संपन्न, सोलह कला संपूर्ण, संपूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरुषोत्तम, संपूर्ण अहिंसक हैं। उनको सृष्टि का रचयिता, पतित पावन अथवा गुणों का सागर नहीं कहते हैं। अत स्पष्ट है कि परमात्मा एक है, सभी परमात्मा नहीं हैं अर्थात् परमात्मा सर्वव्यापी नहीं है।

यदि सभी में परमात्मा होता तो सबकी महिमा परमात्मा जैसी होती। परमात्मा को परमपिता, परमशिक्षक, परमसतगुरु भी कहते हैं। यदि परमात्मा सर्वव्यापी है तब तो सभी पिता, सभी शिक्षक और सभी गुरु हुए। फिर बच्चा अथवा शिष्य कौन हुआ? कोई भी नहीं। यदि परमात्मा सर्वव्यापी है तो मनुष्य भक्ति में उसे पुकारते क्यों हैं? उसे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और तीर्थों पर ढूंढते क्यों हैं?

दुनिया में पाप और अत्याचार क्यों बढ़ रहे हैं? दुनिया में दुःख-अशांति क्यों हैं? यदि परमात्मा सर्वव्यापी है तब तो भक्ति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यदि सब भगवान हैं तो फिर भक्त कौन हैं? क्या चोर, डाकू, बलात्कारी और आतंकवादी सबमें भगवान है?


परमात्मा सर्वव्यापी है या दुःख सर्वव्यापी है - श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि `जब-जब धर्म की अति ग्लानि होती है, तब तब अनेक अधर्मों का विनाश कर एक सत्य धर्म की पुन स्थापना के लिए मैं अवतार लेता हूँ।'

इससे भी स्पष्ट है कि परमात्मा इस दुनिया में नहीं है। वह तो धर्म की अति ग्लानि के समय इस दुनिया में अवतार लेता है। भगवान ने आगे कहा है कि `मैं अजन्मा, अकर्त्ता, अभोक्ता हूँ' अर्थात् परमात्मा का जन्म नहीं होता, उनका दिव्य-अलौकिक अवतरण होता है। जिसका जन्म ही नहीं उसकी फिर मृत्यु कैसे होगी?

अत वह जन्म-मरण से न्यारा है। यदि सभी में परमात्मा है तब तो सभी अजन्मे, अकर्त्ता, अभोक्ता हुए परंतु ऐसा तो है नहीं। भक्ति में गाते हैं कि परमात्मा की लीला अपरमपार है, उनकी गत-मत वे ही जानें। ज़रा सोचिये, यदि परमात्मा सबमें है तब उनकी लीला और गत-मत को सभी जानें, वे स्वयं ही क्यों जानें? परमात्मा को दुःख-हर्त्ता, सुख-कर्त्ता कहा गया है, पतित पावन कहा गया है।

यदि वह सर्वव्यापी है तब तो कोई भी दुखी, पतित नहीं होना चाहिए। सभी सुखी और पावन होने चाहिएं। फिर वो किसके दुःख हरे और किसको सुखी बनाये। परमात्मा का यथार्थ परिचय होने के कारण आज मनुष्यों की हालत अनाथों जैसी है। जो अनाथ होता है वो सच्चे प्यार और खुशी की तलाश में भिन्न-भिन्न संबंधियों के दर पर भटकता है परंतु कहीं भी उसे पिता का प्यार और माँ का दुलार नहीं मिलता।

आज हम सभी मनुष्यात्माएँ अपने पिता परमात्मा को, यथार्थ पहचान होने के कारण, भूली हुई हैं इसलिए इतनी भक्ति के बाद भी दुखी और अशांत हैं। स्थायी सुख और शांति कहीं भी नहीं है।


परमात्मा का परिचय - परमात्मा अर्थात् परम आत्मा। वे हम सभी आत्माओं के पिता हैं, सभी धर्मस्थापकों के भी पिता हैं। बिंदु रूप, ज्योतिस्वरूप, निराकार, परमधाम के निवासी हैं। जन्म-मरण से न्यारे, सदा पावन, अजन्मा, अकर्त्ता, अभोक्ता हैं।

अज्ञानतावश हम मनुष्यों ने उन्हें सर्वव्यापी कहकर गाली दी है। उन्हें कच्छ-मच्छ, साँप-बिच्छू, कुत्ता-बिल्ली, कंकड़-पत्थर सबमें ठोक दिया है। यही धर्म की अति ग्लानि है जिसका श्रीमद्भगवत गीता में वर्णन है। हम आत्माएँ परमात्मा का अंश नहीं, वंश हैं। वे हम सभी आत्माओं के परमपिता और हम सब उनके बच्चे हैं।

क्योंकि वे बिंदुरूप ज्योतिस्वरूप निराकार हैं इसलिए श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है कि `जब तक मैं स्वयं अपना परिचय दूँ तब तक मनुष्य मुझे पहचान नहीं सकते और जब मैं अपना परिचय देता हूँ तब भी मुझे कोटों में कोई अर्थात् करोड़ों में कोई विरला ही पहचानता है।' परमात्मा को, हम आत्माओं की तरह अपना शरीर नहीं है।

वे धर्म की अति ग्लानि के समय साधारण मनुष्य तन में प्रवेश करते हैं जिसका अलौकिक नाम प्रजापिता ब्रह्मा रखते हैं अर्थात् उनका दिव्य-अलौकिक अवतरण होता है। वे इस मनुष्य सृष्टि के बीजरूप हैं। जैसे बीज में सारा झाड़ समाया हुआ है ऐसे ही उनमें सारे सृष्टि-चक्र का ज्ञान है। रचयिता वह एक है बाकी सब हैं उनकी रचना।

वे इस मनुष्य सृष्टि रूपी ड्रामा के क्रियेटर, डायरेक्टर और मुख्य एक्टर हैं। उनका नाम है शिव। `शिव' का अर्थ ही है कल्याणकारी। क्योंकि वे हम आत्माओं की तरह देह धारण नहीं करते अत उन्हें सदाशिव भी कहते हैं। उनका कोई माता-पिता नहीं है, वे स्वयं ही प्रकट होते हैं अत उन्हें स्वयंभू अर्थात् शंभू भी कहते हैं।


शिव और शंकर में भेद - अभी तक हम सभी यही समझते आये हैं कि शिव और शंकर एक ही हैं। मंदिरों में शंकर जी को जटाधारी, गले में सर्पों की माला पहने हुए दिखाया है जो शिवलिंग के सामने योगयुक्त, ध्यानयुक्त अवस्था में बैठे हैं।

मनुष्य समझते हैं कि शिवलिंग शंकर जी के शरीर का एक अंग विशेष है। हमने कभी नहीं सोचा कि जब स्वयं शंकर जी की मूर्ति हमारे सामने है तो फिर उनके एक अंग विशेष की पूजा हम क्यों करते हैं? सचमुच यह तो अज्ञान की पराकाष्ठा ही है कि एक ओर तो खंडित काया वाली मूर्ति की पूजा नहीं होती और दूसरी ओर हम शंकर जी के शरीर के एक अंग विशेष की पूजा करते हैं। शिव परमात्मा बिंदु रूप ज्योतिस्वरूप हैं और शंकर जी, सूक्ष्म शरीरधारी, सूक्ष्म वतन के देवता हैं।

शंकर जी देवता हैं और शिव है परमात्मा। इसीलिये भक्ति में कहते हैं - ब्रह्मा देवताय नम, विष्णु देवताय नम, शंकर देवताय नम और शिव के लिए कहा जाता है शिव परमात्माय नम। सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् कहा जाता है, कि सत्यम्-शंकरम्-सुंदरम्। अब बिंदु रूप की पूजा कैसे हो?

अत भक्तों ने भक्ति के आदिकाल में शिव की पूजा के लिए पिण्डी को मंदिरों में स्थापित किया था जिसका असली नाम ज्योतिर्लिंगम है और अर्थ है - ज्योति का पुंज अर्थात् ज्योति का स्त्रोत। कालांतर में भक्त ज्योतिर्लिंगम् को शिवलिंग कहने लगे और शंकर जी का एक अंग विशेष मानकर पूजा करने लगे।

परमात्मा का अवतरण हो चुका है - निराकार शिव परमात्मा धर्म की अति ग्लानि के समय पतित पुरानी कलियुगी दुनिया को नई पावन सतयुगी दुनिया बनाने परमधाम से इस साकार लोक अर्थात् इस दुनिया में आते हैं। इसलिए शिव-जयंती, शिवरात्रि के रूप में मनाई जाती है, शंकर-जयंती अथवा शंकररात्रि के रूप में नहीं। शिवरात्रि के दिन भक्त शिव की प्रतिमा पर विषैले पदार्थ जैसे अक के फूल, भांग-धतूरा इत्यादि चढ़ाते हैं जबकि अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों पर खुशबूदार फूल, दूध, फल, मिष्ठान इत्यादि चढ़ाते हैं।

समझते हैं कि शिव परमात्मा नशा करते हैं, ये विषैले पदार्थ उन्हें प्रिय हैं। परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। शिव परमात्मा तो हम पतित आत्माओं के आसुरी संस्कार जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा इत्यादि को ज्ञान और राजयोग की शिक्षा देकर हर लेते हैं अर्थात् काम, क्रोध रूपी विष को लोक-कल्याण अर्थ पी लेते हैं।

उनके इसी गुण के कारण उन्हें विषधर, नीलकण्ठ, भोलानाथ आदि नामों से भी पुकारा जाता है। अत शिवरात्रि पर हमें शिव की प्रतिमा पर भांग-धतूरा इत्यादि चढ़ाने की बजाय अपने अवगुण अर्पित करने चाहिएं। ये विषैले पदार्थ विकारों अर्थात् अवगुणों के प्रतीक हैं। जब हम ऐसे शिवरात्री मनाएँ तभी शिव भोलानाथ बाबा हमसे प्रसन्न होंगे।


वर्तमान समय शिव भोलानाथ बाबा प्रजापिता ब्रह्माजी के साकार तन का आधार लेकर सारी सृष्टि का विष पी रहे हैं और दुनिया भर के 145 देशों में लगभग 8500 सेवाकेंद्रों के माध्यम से ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग की शिक्षा देकर इस पतित, पुरानी, कलियुगी दुनिया को बदल नई, पावन, सतयुगी दुनिया की स्थापना का महान कार्य कर रहे हैं।

हम, आप सभी को दिल से निमंत्रण देते हैं कि सपरिवार प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के किसी भी निकटतम सेवाकेंद्र पर पधारें और परमपिता परमात्मा से जन्म-जन्मान्तर के लिए अपनी झोली सुख, शांति, प्रेम और आनन्द से भर लें। याद रहे कि अभी नहीं तो कभी नहीं क्योंकि इस पतित पुरानी दुनिया का अंत अति निकट है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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