ज्ञानेन्द्रियों में जीभ का महत्त्व

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मनुष्य सभी जीवों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि उसकी शारीरिक रचना आत्मिक क्षमतायें सभी जीवों में उन्नत हैं। वह पाँच तत्वों - जल, मिट्टी, वायु, अग्नि और आकाश से बने शरीर में निवास करता है और शरीर की पाँच ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा) के नियंत्रण से विभिन्न कर्म करता है। यदि नियंत्रण पूरा है और आत्मा सात्विक है, तो वह सुख-शांति पाता है लेकिन यदि नियंत्रण है नहीं और आत्मा तामसिक है तो वह दुख भोगता है।

विभिन्न इंद्रियों में जीभ की सबसे ज़्यादा महत्ता है। भारत में आज भी कई स्थानों पर नवजात शिशु की जीभ पर शहद से ओम लिखने की परंपरा है। मान्यता यह होती है कि इससे शिशु मृदुलभाषी चरित्रवान बनेगा। परंतु यह पारिवारिक परिवेश माता-पिता के संस्कार ही हैं जो शिशु को ओम स्वरूप भी बना सकते हैं या फिर रावण स्वरूप भी।

ढ़ाई इंच की जीभ यदि फिसल जाये तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। कहा भी जाता है कि ढ़ाई इंच की बिना हड्डी की जीभ यदि गलत बोल जाये तो छह फुट के मनुष्य की हड्डी तुड़वा देती है और यदि शुभ बोल जाये तो तालियां बजवा देती है। यदि यह स्वाद की आसक्ति छोड़ दे, तो योगी बना देती है और यदि यह चटोरी बन जाये तो भोगी बना देती है।

यदि यह ज्यादा चलने लगे तो काम बिगाड़ देती है और यदि बिलकुल चले तो भी काम खराब कर देती है। ज्यादा चपल जीभ वाले व्यक्ति को कह दिया जाता है कि अपनी जबान को लगाम दो जीभ पर तो बुढ़ापे का प्रभाव पड़ता है, ज्यादा चल लेने के बाद थकान का, और ही किसी की नसीहत का। अन्य सारी इंद्रियों पर बुढ़ापे का प्रभाव पड़ता है।

जैसे कि उम्र बढ़ने पर आँखों पर चश्मा, कानों में ध्वनि-यंत्र लग जाता है, नाक ढीली पड़ जाती है, मुंह के अंदर नकली दांत लग जाते हैं, त्वचा पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। पर यह जबान (जीभ) हमेशा जवान रहती है और किसी से डरती नहीं है।

शरीर के विभिन्न अंग, शरीर के पूर्ण विकसित होने पर ही पूरी क्षमता से कार्य कर पाते हैं परंतु जीभ इसका अपवाद है। यह तो जरा से बच्चे में भी `उढर्जा का अविनाशी प्रदर्शन' कर देती है। इसलिए कहावत है कि ``जरा-सी जान, गज भर की जबान''

जिस प्रकार माँ की गोद में बैठा बच्चा शेर हो जाता है, उसी प्रकार 32 दाँतों के पीछे सुरक्षित बैठी जीभ भी किसी की परवाह नहीं करती। यह किसी हट्टे-कट्टे मनुष्य को अपशब्द बोलकर खुद तो मुँह में छिप जाती है और खामियाजा भुगतना पड़ता है शरीर को। यह यदि शब्द-अपशब्द पैदा ना भी करे पर कुछ पल के लिये किसी की तरफ बाहर निकली ही रह जाये (जीभ से चिढ़ाना) तो भी संकट पैदा कर सकती है। यह अंगूठा दिखाने, आँख दिखाने या मुक्का दिखाने से भी ज्यादा गंभीर स्थिति पैदा कर सकती है।

तनाव प्रबंधन, स्वास्थ्य प्रबंधन आदि पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, फिर भी ``जीभ प्रबंधन'' पर कहीं भी, कभी भी कोई वर्कशॉप, सेमिनार होते देखे नहीं जाते। इसका कारण यह है कि जीभ की सारी अच्छी-बुरी हरकतों के पीछे अनुमति आत्मा की होती है जो कि ढ़ाई इंच की जीभ से पाँच इंच ऊपर भ्रकुटि के मध्य विराजमान रहती है।

आत्मा को जीभ की मनमानी का पूरा अहसास रहता है परंतु खुद की कमजोरी के कारण नियंत्रण नहीं कर पाती। जीभ में यदि दस कमियां हैं, तो आत्मा में सौ कमियां हैं, और ऐसे में आत्मा कुछ कहने-सुनने की स्थिति में नहीं रहती।

स्वर गले से पैदा होता है और अक्षर जीभ होंठों से। अक्षर और स्वर ही मिल कर शब्द पैदा करते हैं। शब्दों में अर्थ भरा है और विवेक अनुकूल अर्थ में, परमार्थ भरा है। अक्षरों के मेल से शब्द, शब्दों के मेल से वाक्य, सांसारिक वाक्यों के मेल से काव्य और ज्ञानयुक्त वाक्यों से महावाक्य बनते हैं। अक्षर अर्थात् जिसका कभी क्षय नहीं होता।

अक्षर के गर्भ में अनन्त ऊर्जा और अर्थ समाहित रहते हैं जिनका कभी नाश नहीं होता। सभी शब्दों में आत्मा शब्द सबसे अनूठा है क्योंकि आत्मा शब्द में `' गले से पैदा होता है, `' जीभ से `मा' होंठों से। परंतु आत्मा की तकदीर बनने में जीभ के प्रयोग का बड़ा महत्त्व है।

`तकदीर' शब्द का उच्चारण केवल जीभ करती है ( कि गला होंठ), जो एक प्रकार का इशारा है कि आत्मा की तकदीर जीभ के कर्मों से सबसे ज्यादा निर्धारित होती है।

जीभ की यह अद्भुत क्षमता है कि यह ठंडा-गर्म, खट्टा-मीठा, तीखा-नमकीन, ठोस-द्रव्य, धुआं-गैस आदि हर प्रकार की वस्तु को झेल लेती है और इन पदार्थों के स्वाद का ज्ञान आत्मा को देती रहती है। शरीर के सभी अंग प्रत्यंगों को उच्च कोटि की देखभाल की आवश्यकता होती है परंतु जीभ सबसे उपेक्षित रहते हुए भी तो कभी बीमार पड़ती है और ही कभी दवाइयों की मांग करती है। कभी किसी व्यक्ति ने डॉक्टर से जीभ का इलाज कराया हो, ऐसा सुनने में नहीं आया है।

यद्यपि एक मरीज जीभ की मदद से ही डॉक्टर को अपना हाल बयान करता है, डॉक्टर भी सबसे पहले जीभ बाहर निकलवाता है। यह जीभ ही है जो परमात्मा का गुणगान करती है, जो शब्द वाक्यों के द्वारा संबंध जोड़ती है, जो संगीत पैदा करती है या फिर दूसरे के कानों में शब्दों को पिघले शीशे की भांति उतार देती है।

एक राजयोगी जीभ का संयम रखता है और स्वादवश नहीं बल्कि स्वास्थ्यवश सात्विक भोजन लेता है। वह जीभ से कम शब्दों में ज्यादा बातें करना जानता है और सारयुक्त, स्नेहयुक्त बातें करता है। वह व्यर्थ बातों को एक कान से सुन दूसरे से निकाल देता है, परंतु दिव्य ईश्वरीय ज्ञान को दोनों कानों से सुनकर जीभ द्वारा मुंह से निकालता है।

विश्व में शांति की स्थापना के लिये जीभ का मृदुलभाषी होना अति आवश्यक है। कहावत है, `जबां शीरी, मुल्क गीरी' अर्थात् मीठा बोलकर मनुष्य संसार में सबको प्रसन्न कर सकता है। `अंधे की औलाद अंधा', यह द्रौपदी की जीभ द्वारा उच्चारे गये मात्र चार कड़वे शब्द ही तो थे, जिन्होंने महाभारत का तथाकथित युद्ध करा दिया।

क्रोध, अहंकार जैसे विकारों की अभिव्यक्ति में जीभ की मुख्य भूमिका है जो फिर विश्व शांति की स्थापना में सबसे बड़ी रुकावट है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि जीभ को नियंत्रित कैसे किया जाये? इसके लिये मन को नियंत्रित करना आवश्यक है, और ऐसा `सहज राजयोग' के नित्य अभ्यास से ही संभव है।

दूसरे के कहे गये अच्छे-बुरे शब्दों का मन पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है। कई बार मन विवशता-वश दूसरे की कटु बातों पर जबान से तो शांत रहता है परंतु सारा बोझ मन के अंदर भरता जाता है। अति होने पर सारा दबाव जबान से ऐसा विस्फोटित होता है जैसे कि प्रेशर कुकर का सेफ्टी वाल्व उड़ गया हो। कई बार दुखदायी परिस्थितियों में मनुष्य रुदन करता है, जिससे उसका सारा क्षोभ, दर्द बह निकलता है।

इससे उसे कुछ शांति मिलती है, उसका मन हल्का हो जाता है। रोने की क्रिया में भाषा, शब्द आदि नहीं होते, बस भावना के ज्वार का बहाव मात्र होता है। यह अलग बात है कि कुछ मनुष्य गले से ना रोकर मन से रोते हैं। रोने की हंसने की क्रिया में जीभ का कोई योगदान नहीं होता।

रोने  पर जीभ सूखने अवश्य लगती है और मनुष्य रो चुकने पर पानी पीना पसंद करता है ताकि जीभ को तरावट मिल सके। असल में रोने से बहे आंसू, जीभ गले में `जल संकट' पैदा कर देते हैं।

यह जग जाहिर है कि पाँच विकारों को त्याग कर ही जीवन में सुख और शांति का अनुभव किया जा सकता है। ये विकार सूक्ष्म, अभौतिक स्वरूप के होते हैं और अभौतिक आत्मा में निहित मन, बुद्धि संस्कार में तामसिकता लाते हैं। फिर इनका प्रभाव शरीर के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।

परंतु जीभ की चंचलता निर्लज्जता भी किसी विकार से कम नहीं है बल्कि यह ज्यादा विध्वंसक है क्योंकि इसे विकार के रूप में पहचाना ही नहीं गया है। जैसे पहचानहीन जीवाणु (Unidentified Germ) ज्यादा तबाही मचाता है, वैसे ही जीभ की तामसिकता को अनदेखा करने के कारण ज्यादा तबाही मच रही है।

यदि इस विचित्र विकार से बचाव करना है तो उपचार जीभ का नहीं बल्कि `जीभ वाले' (आत्मा) का करना होगा। `जी' (चित्त, मन, इच्छा) का इलाज ही जीभ का इलाज है और इसकी विधि है, सहज राजयोग की साधना। एक श्रेष्ठ योगी या साधक, जीभ का दुरुपयोग करके संतुलित उपयोग करता है।

जीवन में बहुत-सी बिना मतलब की परेशानियाँ जोकि मुख से बोलने वाले कटु वचन के कारण उत्पन्न होती हैं, जिसके कारण बहुत-सी तबाही हो जाती है, इस जीभ के ऊपर अपना कण्ट्रोल करके चलोगे तो सच मानो आपसे बेहतर सुखी इंसान इस जग में शायद ही कोई हो।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।


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