आज प्रेम के सच्चे झरने सूख गये हैं। लोग प्रेम की तलाश में भटक रहे हैं कि कहीं से कुछ बूंदें मिलें। कहीं प्रकृति-प्रेम के रूप में, कभी देश-प्रेम के रूप में, कभी भाई-प्रेम के रूप में, कभी परमात्मा को अपना साजन बनाने के रूप में या अन्य रूप में भी प्रेम अभिव्यक्त होता रहा है। हर प्रेम के अनुभव पृथक हैं। पोथियों को पढ़कर प्रेम की परिभाषा प्रकट नहीं होती।
भौतिक चकाचौंध से भरी हुई जीवन-पद्धति ने आज प्रेम की परिभाषा ही बदल दी है। `आई लव यू, यू लव मी' के वातावरण ने प्रेम की जो विकृत और वासनात्मक अभिव्यक्ति की है उसके कुत्सित नज़ारे सर्वत्र दृष्टिगोचर हैं। प्रेम जब सिर्फ देहात्मक रह जाता है तो वह वासना का रूप ग्रहण कर लेता है। ऐसा यौन-कुण्ठित व्यक्ति सदैव नारी देह के वर्णन, चिन्तन और मनन में लगा रहता है जिसके दुष्परिणाम स्वरूप निठारी काण्ड होते हैं।
यह तो पाप का घड़ा सबके सामने फूट गया तो पता चल गया अन्यथा ऐसे काण्ड तो वर्तमान परिवेश में बहुतायत में छिपे होंगे। आज जिसे प्रेम की संज्ञा दी जा रही है वह वासनात्मक अभिव्यक्ति सूर्पनखा ने की थी जिसे उसकी कीमत अपनी नाक कटवाकर चुकानी पड़ी।
सच्चे प्रेम में समाहित है त्याग, तपस्या, साधना और समर्पण की भावनाएं। जहाँ दिखाई देते हैं सिर्फ प्रेम और प्रेमी। हर कर्म में दिखाई देता है प्रेमी का कर्म। जहाँ देखता है वहीं बस `तू ही तू है' की भावनायें। मिलने के लिए वह लेता है कल्पना की करामात का सहारा या ख्वाबों का आसरा। जहाँ प्रेम होता है वहाँ देह का वासनात्मक दृष्टि से वर्णन, दर्शन नहीं होता, वहाँ देह को मंदिर और देह में विराजमान आत्मा को अच्छे संस्कारों के कारण देवमूर्ति के रूप में पूजा जाता है।
सच्चे प्रेम के अनुभव और अभिव्यक्ति से मनुष्य का सर्वांगीण उत्थान होता है न कि पतन। चरित्रवान व्यक्ति को चंदन-सा बदन नहीं दिखता बल्कि नारी और पुरुष के चंदन के समान चरित्र-दर्शन होते हैं। परन्तु आज का मानव हाड़-मांस के कफ, पित्त, मूत्र, विष्ठा से भरे हुए पुतले के आकर्षण, उसकी बनावट, सजावट और उसी का लोलुपता से वर्णन करना, प्रेम समझता है।
वह यह नहीं जानता और न मानने का किंचित प्रयास भी करता है कि इस भौतिक पंच तत्वों के शरीर को चलाने वाली चैतन्य सत्ता आत्मा है जिसके शरीर से पृथक् होने पर ``शीर्यति इति शरीरम्'' की तरह यह शरीर जिसके अंग-प्रत्यंग की बनावट, कसावट के वह कसीदे पढ़ता था, सड़ जाता है।
राष्ट्र-प्रेम की चर्चा की जाए तो यह राष्ट्र-प्रेम ही तो था कि गुरु गोविन्द सिंह ने, अपने बेटों को मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा दीवार में चिनवा दिए जाने पर आह भी नहीं भरी थी, बाद में वे स्वयं भी बलि चढ़ गये। वीर शिवाजी ने भी रखी इसी देश प्रेम की खातिर लाज हमारी शान की। राजगुरु, सुखदेव हों या भगत सिंह या फिर आज़ाद, सभी ने देश प्रेम के कारण अपनी जान हँसते-हँसते न्योछावर की।
राष्ट्र-प्रेम के प्रति त्याग का अनूठा उदाहरण, पतली-दुबली काया का व्यक्ति अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करके एक आधी धोती पहनकर ही उस साम्राज्य से भिड़ गया जिसके राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं होता था।
क्या अनूठा उदाहरण है देश-प्रेम के लिए त्याग का, चित्तौड़ की पन्नाधाय का जिसने अपने इकलौते पुत्र की बलि चढ़ा दी। आज कितने लोग संसार में ऐसे हैं जो इस प्रकार देश-प्रेम के लिए अपने लालों को कत्ल करा देंगे?
यह राष्ट्र-प्रेम ही तो था कि राजस्थान में रानियाँ अपने-अपने पतियों को, देश की रक्षा के लिए, उनके बुजुर्गों की गौरव गाथायें सुनाकर, माथे पर तिलक लगाकर, हाथ में तलवार देकर सिर्फ विजय या मौत का व्रत दिलाकर भेज दिया करती थीं। यादगार शास्त्र भागवत् में प्रभु-प्रेम में रंगी गोपिकाओं के प्रभु के प्रति हृदय उद्गार देखिए, ``जो लोक-परलोक में भी साथ नहीं छोड़ता वह सिवाए तुम्हारे कोई अन्य है?
भरण-पोषण करने वाले को भर्ता या भरतार कहा जाता है और रक्षा करने वाले को पाता या पति कहते हैं। पुत नामक नर्क से त्राण दिलाने वाले को पुत्र कहा गया है। कहो तो सही, जीव जगत में तुमसे बढ़कर भर्ता, पाता और नर्क से त्राण दिलाने वाला और कोई है?'' प्रभु को सर्वस्व मानने वाली गोपियों की गाथा इस सच्चे प्रेम के कारण ही शास्त्रों में अमर हो गई।
वर्तमान युग में अटूट, एकरस, अव्यभिचारी परमात्म स्नेह का उच्चतम उदाहरण हैं प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के आदि संस्थापक, जो आदि देव प्रजापिता ब्रह्मा के नाम से जाने गये। ब्रह्मा बाबा ने अपना सर्वस्व ईश्वरीय प्रेम में समर्पित कर दिया। उनके इसी प्रेम भाव का अनुसरण करते हुए अच्छे-अच्छे घरों से सैंकड़ों बच्चे, बूढ़े और जवान, सच्ची-सच्ची गोपियाँ और गोप बनकर ईश्वरीय सेवा में आ गये। अब तो वे लाखों की संख्या में हो गये हैं।
यह मानवता के प्रति बाबा का सच्चा प्रेम ही था कि गाली देने वाले, ग्लानि करने वाले, अपमानजनक शब्द बोलने वालों को भी उन्होंने गले से लगाया और अनुराग बनाये रखा, क्षमा करते गये। संसार के सारे प्रेम कहीं न कहीं साथ छोड़ देते हैं परन्तु यह परमात्म-प्रेम तो जीवात्मा, जो विकारों की मैल से बहुत गंदी हो गयी थी, को साफ करके पावन निर्मल बनाकर, अपने जैसा पावन बना लेता है और सदा ही साथ निभाता है।
यही तो है प्यार के सागर का प्यार जो वह अपने घर परमधाम को छोड़कर, इस पतित दुनिया में चला आता है और अन्त तक साथ निभाने का वायदा करता है। भगवान, प्रेम में सिर की बलि नहीं चाहते लेकिन स्नेही बच्चों के विकारों की बलि चाहते हैं।
एक प्रसंग नेपोलियन के संदर्भ में आता है कि जब वे एक सैनिक के रूप में संघर्षरत थे तब वे एक किसान के घर ठहरे हुए थे। किसान की पत्नी थोड़ी चंचला थी, वह उन्हें रिझाने का प्रयास करती थी परन्तु युवा नेपोलियन के सिर पर तो सम्राट बनने की धुन सवार थी। अत वे अपनी योजनाओं में लगे रहते और युवती के हाव-भावों की ओर ध्यान नहीं देते थे।
बाद में वे सम्राट नेपोलियन बने और एक दिन घोड़े पर सवार होकर उसी स्थान पर आये और किसान की पत्नी से पूछा कि यहाँ कुछ समय पूर्व एक व्यक्ति रहता था। किसान की पत्नी ने बताया कि रहता तो था परन्तु वह मिलनसार नहीं था, सूखा और अकेला ही रहने वाला व्यक्ति था। जब नेपोलियन ने कहा कि वह व्यक्ति मैं ही हूँ तो वह अवाक् रह गई।
नेपोलियन ने उससे कहा कि ``जिसे अपनी इतनी ऊँची महत्त्वा-कांक्षायें पूर्ण करनी हों उसके पास व्यर्थ बातों के लिए समय ही कहाँ है?''
आज जबकि सारी वसुन्धरा की सन्तानें प्रेम के विकृत रूप के वशीभूत हैं, उनमें प्रेम के सच्चे स्वरूप की भावनाओं और परमात्म-प्रेम को जाग्रत करने के लिए पोलियो उन्मूलन की तरह ही अभियान की परम आवश्यकता है ताकि वासनात्मक प्रेम के वर्णन और अनुभव के स्थान पर चराचर जगत के लिए सच्चे स्नेह की भावनायें जागृत हों और सभी लोग सच्चे आत्मिक प्रेम और परमात्म प्रेम का अनुभव करें और करायें। तब फिर एक दिन ही क्यों, हर दिन ही `वैलेन्टाइन डे' बनकर आये और सम्पूर्ण वसुन्धरा में सच्चे आत्मिक प्रेम का बिगुल बजे।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।