गाँधी जी ने कहा था - गरीब हिन्दुस्तान स्वतत्र हो सकता है, पर चरित्र खोकर धनी बने हिन्दुस्तान का स्वतत्र होना मुश्किल है। संस्कारों से संस्कृति का और कृति से आकृति का निर्माण होता है।
भारत सहित विश्व के सांस्कृतिक परिदृश्य पर नजर डालें तो आज चारों ओर भोगवाद, शोषण, विकृति अथवा अप-संस्कृति का बोल-बाला नजर आ रहा है। मानव की भौतिक नजर हर वस्तु के दोहन में लगी है। संस्कृति के विभिन्न क्षेत्र आज कैसे प्रदूषित हो रहे हैं, यह अग्रलिखित है -
कृषि -
हमारी संस्कृति का नारा था उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, निकृष्ट नौकरी। खेती-बाड़ी को उच्च नजर से देखा जाता था। वही जीवनयापन का आधार थी। परन्तु धीरे-धीरे यह नारा उलटकर उत्तम नौकरी, मध्यम व्यापार, निकृष्ट खेती हो गया है। अधिक दौलत के लोभ में खेती की जा रही है मुर्गी और बतख़ की। पहले इनको पालो और फिर कसाई के हाथ दे दो।
इस देश की परम्परा थी शरणागत की, पालतू की रक्षा करना, जैसे कि राजा शिवि, राजा दिलीप और सिद्धार्थ ने की परन्तु आज का भौतिक बुद्धि मानव गाय को दूध की दृष्टि से नहीं वरन् कितने किलो मांस और कितने डालर मिलेंगे इस दृष्टि से देखता है।
अभी झींगा मछली को मीठे पानी में पाला जा रहा है। चाईनीज फिशनेट लगाकर मछलियों को मारा जा रहा है, इससे पानी में प्रदूषण फैल रहा है। अहिंसा के बल पर बापू ने रामराज्य की कल्पना की और मानव हिंसा से हाथ रंग रहा है।
संचार माध्यम - संचार माध्यमों के द्वारा भी अप-संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है। इनको अपनाया तो इसलिए गया था कि ये कला, मनोरंजन, सूचना, प्रेरणा का कार्य करेंगे। परन्तु आज अधिकतर पत्र-पत्रिकाएं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी, अश्लील भावनाएं भड़का रहे हैं।
अमेरिका में एक बच्चा प्रतिदिन हजारों हिंसा की घटनाएं विभिन्न चैनलों पर देख लेता है जिनमें चोट खाने वालों या गिरने वालों को तुरन्त ठीक होते भी दिखाया जाता है। हिंसा को खेल समझ कर एक बच्चे ने स्कूल में इसकी रिहर्सल की और कइयों को यमराज के घर पहुँचा दिया। सभी संचार माध्यम चरित्रहनन, फैशन, व्यसन, लड़ाई, लूट, हत्या, बलात्कार, अपहरण, छल, गिरोहबन्दी आदि दिखाते हैं।
नई पीढ़ी इनको देखते-देखते इनको जीवन का आदर्श मानने की भूल कर बैठी है। एक अभिनेता ने एक फिल्म में एक लड़की को फोन करने का अभिनय किया। एक दर्शक ने उसे देखा और घर आकर एक लड़की को फोन कर दिया। उसकी पिटाई हो गई, यह है फिल्मों का दुष्प्रभाव। फिल्मों में देखी चीजें और वस्त्र खरीदने की होड़ लगी हुई है।
ऐसा करने की आज्ञा न मिलने पर अवैध पैसा एकत्रित किया जाता है। महात्मा बुद्ध ने कहा था - इच्छा दुःख का कारण है, पर आज इच्छाएं भड़काई जाती हैं, उपभोग बढ़े, इस लक्ष्य से। इच्छा पूरी न होने के परिणाम हैं आत्महत्या, कलह, अकेलापन, अवसाद, तनाव, शत्रुता, भेदभाव, व्यसन आदि-आदि।
आजकल शादियों में प्रदर्शन की आग में खूब धन झोंका जाता है। भवन भी हवा, प्रकाश की कृत्रिम व्यवस्था के साथ अपने को बड़ा कहलाने के लिए बनाए जाते हैं, इसी कारण परिवारों में स्नेह समाप्त हो रहा है और बच्चे उद्दण्ड हो गए हैं। मोहग्रस्त माँ-बाप उन्हें विलासी बना देते हैं।
महिलाएं -
अधिकतर महिलाएं फैशन की अन्धी दौड़ में पारिवारिक बजट बिगाड़ लेती हैं। पहले नारी कहती थी कि बेईमानी का पैसा मेरे घर में ना आए, आज ऐसे पैसे के लिए वे घर के पुरुष को उकसाने लगी हैं। पहले एक कमाता था, सारा परिवार खाता था, आज सब कमाते हैं फिर भी भूखा जीवन है।
व्यापार -
व्यापार का आदर्श था शुभ-लाभ परन्तु आज लाभ, शुभ हो गया है। मिलावट का बाजार गर्म है। शीतल पेयों में कीटनाशक, आइस्क्रीम में सिंथेटिक दूध, दूध में कास्टिक सोडा अथवा यूरिया, दालों पर बनावटी रंग, घी में बनावटी सुगंध या वनस्पति घी, मिर्च में ईंट का चूरा, काली मिर्च में पपीते के बीज, गर्म मसाले में चावल की भूसी, नल के पानी में सीवरेज की दुर्गन्ध, हवा में कार्बन मोनो आक्साइड आदि की मिलावट आम बात हो गई है।
शिक्षा -
आज की शिक्षा का आदर्श है कि श्रम करने वाले हीन और श्रम न करने वाले महान। इस मानसिकता के चलते युवा पीढ़ी श्रम करने में असमर्थ है। बेरोजगारी बढ़ रही है।
प्रशासन -
प्रशासनिक क्षेत्र में रिश्वत, भाई-भतीजावाद का बोलबाला है तथा सहानुभूतिहीन व्यवहार सर्वत्र छाया रहता है। कानून है पर सहृदयता का नितान्त अभाव है। केवल शासन है पर प्रिय शासन नहीं।
अन्य विभिन्न क्षेत्रों जैसे सुरक्षा, खेल, समाज सेवा, विज्ञान तथा तकनीकी, मैडिकल आदि में भी मूल्यों के अभाव में, उपरोक्त से मिलती-जुलती स्थितियाँ देखने को मिल रही हैं। अब प्रश्न यह है कि इन स्थितियों को सुधारा कैसे जाए?
हम एक उदाहरण लेते हैं - मान लीजिए, आपके हाथों में सेन्ट लगा है। सेन्ट वाले हाथों से आप कुछ भी छू देंगे तो उसमें खुशबू फैलेगी। इस स्थूल उदाहरण के आधार पर हम समझ सकते हैं कि आत्मा, जो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराने के निमित्त है, उसे यदि ज्ञान, प्रेम, शान्ति, पवित्रता, आनन्द आदि गुणों और शक्तियों से ओत-प्रोत कर दिया जाए तो वह करनहार बनकर जो भी कार्य करेगी, चाहे वह राज्य चलाने का हो (राजनेता का), पढ़ाने का हो (शिक्षा का), गृह संचालन का हो (गृहिणी का), खेलने का हो (खिलाड़ी का), गाने-बजाने का हो (कलाकार का), इन सभी कार्यों में उसके गुणों की खुशबू अवश्य फैलेगी।
किसी भी क्षेत्र के निमित्त कर्त्ता तो व्यक्ति ही होते हैं। अत व्यक्ति का सुधार ही विभिन्न क्षेत्रों का सुधार है। अत उपरोक्त स्थितियों को सुधारने में महत्त्व इस बात का है कि मानव आत्मा में इन गुणों की खुशबू कितनी सीमा तक भरी हुई है और इन गुणों से दूसरों को सुवासित करने में वह कहाँ तक समर्थ है।
परमात्मा पिता शिव एक ही महामत्र देते हैं कि हर कार्य को रूहानियत से करो। इसका सरल-सा अर्थ है कि करनहार आत्मा अपने इन गुणों को पराकाष्ठा तक धारण कर ले और फिर कार्य-व्यवहार में आए तो फिर वह कार्य चाहे व्यस्त राजा का हो या संन्यासी का, दोनों ही मूल्य आधारित, सरल, समाधानकारी और निस्वार्थ बन सकते हैं।
कई लोग कहते हैं कि हम बहुत व्यस्त रहते हैं, या बहुत गन्दे माहौल में रहते हैं, उसमें हमें भी रंग जाना पड़ता है। ठीक है, संग खराब है, वातावरण भी खराब है परन्तु करने वाली आत्मा, करनहार सत्ता तो शुद्ध रूप है ना। उसके शुद्ध स्वरूप की स्मृति ही उसकी शुद्धि को बढ़ाती है। शुद्ध स्वरूप को भूलकर कार्य करना तो संग को स्वयं ही कुसंग बनाना और वातावरण को स्वयं भी गन्दा करने में योगदान देना है।
इसलिए रूहानियत में रहकर निमित्त भाव धारण कर कार्य करना ही श्रेष्ठ परिवर्तन का आधार है। यह ध्रुव सत्य है कि अति के बाद अन्त आ जाता है, पाप का घड़ा भरने के बाद फूट जाता है। मूल्यों के पतन की भी जब अति हो जाती है तो एक भयानक परिवर्तन इस भूतल पर घटित होता है। हम धीरे-धीरे उसी भयानक परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं।
हमारी पाप भरी गतिविधियाँ उसे अतिशीघ्र घटने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं परन्तु हम यह भी जानते हैं कि इस भारी परिवर्तन के समय भी कुछ मानवात्माएँ `तूफान के बीच दीपक' सम जगमगाती रहेंगी। वे ही आने वाली सृष्टि का आधार और सूत्रधार बनेंगी। वे आत्माएँ वर्तमान अप-संस्कृति में भी, परमात्मा शिव के सर्वोत्तम मार्गदर्शन से उच्च सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात किए हुए हैं।
वे सर्वोत्तम सांस्कृतिक मूल्य कौन-से हैं जिनका प्रशिक्षण स्वयं भगवान दे रहे हैं और जिनको अपनाकर हम धारा के विपरीत तैरने का साहस कर सकते हैं? सांस्कृतिक उन्नयन करने के लिए परमात्मा शिव ने जो मार्गदर्शन और कुछ उच्च विचार बिन्दु दिए हैं उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -
1. व्यवहार के क्षेत्र में - गुणग्राही दृष्टि, सकारात्मक विचार, सहनशीलता, स्वमान और सम्मान, मन की सच्चाई, सरलता, मधुर वाणी, दृष्टि-वृत्ति की पवित्रता, निन्दा का प्रतिकार और गम्भीरता।
2. परमार्थ के क्षेत्र में - ईश्वराज्ञा का पालन, ईश्वर के प्रति निश्चय में दृढता, आत्मचिंतन, परमात्म चिंतन, एकाग्रता, परोपकार, सन्तोष, दया और रहम।
कोई व्यक्ति, चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, उपरोक्त गुणों को अपनाकर मूल्यों का सन्देशवाहक और मार्ग-दर्शक बन जाता है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।