सुनना एक सतत क्रिया है। आसपास जो कुछ भी हो रहा है वह हम देखते और सुनते हैं। अगर हम देखना नहीं चाहते हैं तो आंखें बंद कर लेते हैं लेकिन कानों पर हाथ रख लेने के बाद भी सुनाई देता है। और फिर यह संभव भी नहीं है कि दिनभर कानों पर हाथ रखे रहें। तो फिर हम कानों को विश्राम कैसे दें? क्या आपने कभी कानों के विश्राम के बारे में सोचा या सुना है?
पहले तो हमें यह समझना होगा कि सुनने का प्रभाव कहाँ होता है और सुनने के बाद प्रतिक्रिया किस प्रकार होती है। जब हम कानों द्वारा सुनते हैं तो उसका सबसे पहला और सीधा असर आत्मा पर होता है और प्रतिक्रिया भी आत्मा द्वारा होती है। आत्मा जब कानों द्वारा सुनती है तो बुद्धि के निर्णय द्वारा कर्मेन्द्रियां कार्य करती हैं।
उदाहरण स्वरूप - जब लाइट ऑन करते हैं तो देखने में यही आता है कि बटन को ऑन करने से लाइट आ गयी लेकिन बटन का सीधा संबंध पावर हाऊस से है इसलिए बटन ऑन करने से पावर हाऊस से संबंध जुड़ता है, और प्रतिक्रिया स्वरूप लाइट मिलती है। बटन और पावर हाऊस के बीच में व्यवधान आ जाने पर हमें करंट की प्राप्ति नहीं होती। यही क्रिया कान और मन के बीच है।
कानों द्वारा सुने गये वाक्यों की प्रतिक्रिया आत्मा, कर्म-इन्द्रियों को देती है। परिणामस्वरूप कर्म-इन्द्रियाँ कर्म करती हैं जिसका प्रतिफल, कर्म अनुसार शुभ या अशुभ हो सकता है। किसी ने क्या खूब कहा है, सुनने के बाद जो मन में आया वह बोलने से, बाद में वह सुनने को मिलता है जो हमें पसंद नहीं।
कानों के मौन का सीधा संबंध आत्म-संयम से है। कानों के मौन का अर्थ है सुनते हुए न सुनना। शुभ-समर्थ बातों पर ध्यान
देना और अशुभ व्यर्थ के लिये कान बंद रखना यानि प्रतिक्रिया नहीं देना। अन्दर ऐसी बातों पर विचार ही नहीं करना।
भगवान कहते हैं, मन आत्मा की सूक्ष्म शक्ति है और आत्मा का मूल गुण है सुख देना इसलिए प्रेम बांटना है, क्रोध करना नहीं है। अपमान करना नहीं है। गुड फीलिंग करना है, बैड फीलिंग में आना नहीं है।
आपने बहुत बार महसूस किया होगा कि जब हम अपने विचारों में खोये रहते हैं या किसी से बातें करने में तल्लीन हो जाते हैं तब आस-पास का कोलाहल भी हमें सुनाई नहीं देता। कोई पूछता भी है तो हम कह देते हैं, मैंने सुना नहीं, मैं अपने में व्यस्त था। इसका मतलब हुआ कि कानों द्वारा सुनी गई बातों पर मन ने प्रतिक्रिया नहीं दी।
प्रतिक्रिया नहीं देने का कारण यह है कि मन उस समय किसी और बात में, किसी और विचार में व्यस्त था। कानों का मौन रखने के लिये मन को सकारात्मकता के चिंतन में व्यस्त कर दो। कानों को किसी की निंदा-ग्लानि सुनने की अनुमति मत दो। ग्लानि, निंदा सुनने पर मन प्रतिक्रिया अवश्य देगा। जिस पर कर्म-इन्द्रियाँ क्रिया अवश्य करेंगी।
अत सुनना ही है तो अच्छे-अच्छे सारयुक्त गीत सुनो। कानों के मौन का एक अर्थ यह भी है कि सुनी हुई बातों पर प्रतिक्रिया रुककर, सोच, समझ कर दो। सामने वाले की बात को मन में मत समाओ, समाने पर प्रतिक्रिया ज़रूर होगी। `कोई बात नहीं', `कोई बात नहीं' का पाठ पक्का कर लो।
मनुष्य को कानों द्वारा स्तुति, वाह-वाही, प्रशंसा सुनने का बड़ा शौक है। कानों के मौन के दिन इनसे भी बचना चाहिए क्योंकि स्तुति, प्रशंसा, वाहवाही सुनने से व्यक्ति का सूक्ष्म में अहंकार ही बढ़ेगा और अहंकार आने से क्रिया पर प्रतिक्रिया अवश्य होगी।
पूरा-पूरा अटेंशन रखो कि आज कानों का विश्राम है, आज व्यर्थ, ग़लत, बुरा, विकारी, निंदनीय सुनना ही नहीं है, नहीं तो विश्राम में खलल पड़ेगा। मन को बार-बार कहो, आज कानों का विश्राम है। मन को बार-बार यह बात याद दिलाने से मन इस बात को स्वीकार कर लेगा।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।