शास्त्रों में अमैथुनी सृष्टि के बारे में अस्पष्ट-सा विवरण यूँ मिलता है कि ब्रह्मा के पुत्र (नर-मादा) मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति के लिए आगे बढ़ते जा रहे थे, तब रास्ते में नारद जी मिले। नारद ने उन्हें कहा कि मैथुनी सृष्टि का निर्माण करना अर्थात् जन्म-जन्मान्तर दुःखी रहना। इस दुःख से छूटने का उपाय यह है कि प्रवृत्ति मार्ग में रहकर भी पवित्रता धारण कीजिए, परमात्मा में मन लगाकर निरन्तर योग का अभ्यास करते हुए कर्मयोगी बनिए। तब सभी ने नारद की आज्ञा का पालन किया और मोक्ष को प्राप्त हुए।
इस आज्ञा का पालन कब किया गया, उस काल का वर्णन अज्ञात ही रहा है परन्तु, परमात्मा शिव ने बताया है कि द्वापर में भक्तिमार्ग शुरू होने से पहले सतयुगी और त्रेतायुगी सृष्टि में पवित्रता की पैदाइश थी। त्रेता और द्वापर के संगम पर प्राकृतिक आपदाओं के कारण भारी उथल-पुथल हुई और उस पवित्र युग के सभी साक्ष्य नष्ट हो गये।
दैवी सभ्यता इस कदर नष्ट हुई कि मानो सोने की द्वारिका पानी में चली गई और मानव वस्त्रों तथा आवागमन के साधनों से रहित होकर जंगली-सा जीवन जीने लगा, जिसे ही पाषाण युग की संज्ञा दी गई।
वर्तमान समय कलियुग है। इसमें काम-वासना का ज्वार प्रबल रूप होकर मानव को विनाश के मार्ग पर ले जा रहा है। इसका एक कारण यह है कि वर्तमान समय स्त्री तथा पुरुष के शरीर के हारमोन्स में 90 प्रतिशत अन्तर है। दोनों की स्थिति में देह का भान है और दोनों को इस अन्तर के कारण एक-दो का प्रबल आकर्षण है परन्तु सतयुग-त्रेतायुग में देवी-देवताओं के दिव्य शरीर में हारमोन्स का अन्तर मात्र 10 प्रतिशत ही था।
वे आत्माभिमानी स्थिति में रहते थे, एक-दो के प्रति शारीरिक आकर्षण नहीं के बराबर था, पर आत्मिक स्नेह 100 प्रतिशत था। इसी कारण हम देखते हैं देवी-देवताओं के चित्रों में, दोनों के समान लम्बे बाल, दोनों के समान वस्त्राभूषण, दोनों के चेहरे समान रूप से साफ (बिना दाढ़ी-मूंछ के) तथा दोनों के चेहरे समान मासूमियत से भरे होते हैं। इसीलिए विदेशी लोग तो कई बार हिन्दु देवी-देवताओं के चित्रों को बहुत ध्यान से देखने पर भी नहीं पहचान पाते कि देवी कौन है और देवता कौन है? आज के नर-नारी के चेहरों का अन्तर तो स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
वर्तमान समय गृहस्थ तो काम विकार का गढ़ बना ही हुआ है, गृहस्थ से बाहर भी इस विकार का जाल कोई कम नहीं है। बच्चा, बूढ़ा सभी इसके चंगुल में हैं और तो और आजकल इण्टरनेट, मोबाइल के खुले-पन ने तो सारी लाइफ को जैसे की चकनाचूर ही कर दिया है। पहले समय में जो कार्य बाथरूम के अन्दर, बैडरूम के अन्दर किये जाते थे, आज वो खुले आम, बिना शर्म-लाज के बेहयायी रूप से अंजाम दिये जाते हैं।
ऐसे में गृहस्थ में रहकर पवित्र रहना तो दूर, सोचना भी दुष्कर लगता है। जैसे शारीरिक कमज़ोरी आने पर छोटा काम भी भारी लगता है, उसी प्रकार मानसिक, नैतिक और आध्यात्मिक रूप से कमज़ोर व्यक्ति को ब्रह्मचर्य या पवित्रता का आचरण दुष्कर लगता है।
लेकिन, जैसे कमज़ोर व्यक्ति किसी शक्तिशाली का सहयोग पाकर मुश्किल को आसान कर लेता है, उसी प्रकार, सर्वशक्तिवान परमात्मा पिता का सहयोग लेने से पवित्र आचरण रूपी मुश्किल कार्य भी सरल हो सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने कहा है कि ö तू मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे जन्म-जन्मान्तर के पापों से मुक्त कर दूँगा, इसमें तू संदेह मत कर।
विज्ञान भी इस क्षेत्र में नई-नई शोध प्रस्तुत कर रहा है। अप्रैल 22,
2007 के `टाइम्स ऑफ इण्डिया' में अनुभा बहन साव्हने ने `क्या पुरुष इस पृथ्वी पर गैर-ज़रूरी हो जाएंगे?' शीर्षक से एक लेख लिखा था, जिसमें बताया गया है कि जर्मनी में कुछ वैज्ञानिक एक ऐसे अनुसन्धान में लगे हुए हैं जिसमें पुरुषों अथवा स्त्रियों के बोनमैरो (हड्डी में मौजूद एक पदार्थ) की मदद से कुछ ऐसी पेशियां बनाईं जायें जो कि शुक्राणु के समान कार्य कर सकें। इसके ऊपर गहराई से अभी भी खोज जारी है।
अगर वैज्ञानिकों को इसमें सफलता मिलती है तो स्त्री सन्तानोत्पत्ति में आत्मनिर्भर हो जाएगी। स्त्री बोनमैरो में मौजूद एक्स (X) क्रोमोसोम का, शरीर में मौजूद एक्स क्रोमोसोम के साथ संयोग (बिना विकार के) होने से कन्या शिशु ही जन्म लेंगे। इस कारण आने वाले समय में ऐसे युग का प्रारम्भ होगा जिसमें सिर्फ स्त्रियों का ही इस पृथ्वी पर एकाधिकार होगा।
उपरोक्त शोध-कार्य तो जब सिद्ध हो जाएगा, संसार के सामने आ ही जाएगा परन्तु प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के माध्यम द्वारा भगवान शिव द्वारा उद्घाटित सत्य तो अभी भी हमारे सामने है और उपरोक्त शोध के पक्ष में जाता है, परन्तु थोड़े भिन्न रूप में है। भगवान ने बताया है कि इस कलियुगी सृष्टि का महाविनाश शीघ्र होने वाला है और उसके बाद सत्य का युग आएगा जिसमें नारी की प्रधानता होगी।
वहाँ श्रीलक्ष्मी का नाम, श्रीनारायण से पहले लिया जाएगा और राज सिंहासन पर भी दोनों विराजमान होंगे। आज के पुरुष प्रधान समाज के विपरीत वहाँ न तो हथियारों की होड़, न दौलत के लिए दौड़, न अपराध, जेल, कचहरी, न ताला, कुण्डा और पहरेदारी, न हत्या, चोरी, डाका, न कोई अनाथ, रोगी और अभागा, न प्रकृति के कोड़े, न तीर, तलवार, हथौड़े, मानव होंगे थोड़े इसलिए कोई न डाले किसी की राह में रोड़े।
कहने का भाव है कि स्त्री-पुरुष योगबल अर्थात् संकल्प-बल से श्रीराधा और श्रीकृष्ण जैसी आभाधारी सन्तान पैदा करेंगे, सृष्टि पूर्ण सतोप्रधान होगी और विकार, दुःख, अशान्ति, अभाव आदि तो वहाँ के शब्दकोष में भी नहीं होंगे।
आइये, वर्तमान वैज्ञानिक युग की देन के रूप में प्राप्त, शरीर-संरचना के ज्ञान को समझते हुए, योगबल (योगबल, जोकि एक मानसिक सूक्ष्म ध्यान की प्रक्रिया है, जिसे सीखने के लिए आप ब्रह्माकुमारी आश्रम पर पधार सकते हैं) से उसमें होने वाले परिवर्तनों को और उनके आधार पर अमैथुनी सृष्टि की सम्भावना को आगे और अधिक जानें। इस वर्णन में भगवान शिव की मार्गदर्शना के आधार मैं अपने विचार प्रस्तुत लेख में कर रहा हूँ -
हमारा शरीर अति सूक्ष्म परमाणुओं और अणुओं से मिलकर बना है। अणु मिलकर तत्व बनाते हैं और तत्वों के मेल से कोशिकायें बनतीं हैं। कोशिकाएं मिलकर उत्तक बनाती हैं जिनसे अंगों का निर्माण होता है। आत्मा शरीर की भ्रकुटि के मध्य में स्थित रहकर सारे शरीर को चेतन ऊर्जा प्रदान करती है। स्थूल ऊर्जा की प्राप्ति के लिए हम भोजन लेते हैं जिससे रक्त बनता है, जो शिरा और धमनियों के द्वारा पूरे शरीर में प्रवाहित होता रहता है।
इससे एक तरल पदार्थ बनता है जिसे जीवद्रव्य कहते हैं। यह शरीर के लिए अनिवार्य तथा अतिशक्तिशाली होता है। इससे कोशिकाओं को शक्ति मिलती है और शरीर की पूरी मशीनरी शक्तिशाली होती है। जीवद्रव्य की मुख्य दो अवस्थायें होती हैं - 1. अधोगामी, 2. उर्ध्वगामी। अधोगामी अवस्था में जीवद्रव्य व्यर्थ चला जाता है जिससे शरीर कमज़ोर, शिथिल एवं बीमार हो जाता है।
आत्मा पतित हो जाती है। उर्ध्वगामी अवस्था के लिए उसकी दिशा बदलनी पड़ती है, जो कि कठिन कार्य है। इसके लिए ध्यान की शक्ति का सहयोग लेना पड़ता है, वास्तव में यही योगबल है, यही राजयोग है, इसी शक्ति से हम अपने मन की दिशा जोकि नकारात्मकता में बदल गई है, उसे सकारात्मक रूप में परिवर्तन कर सकते हैं। जब हमारी उर्ध्वगामी अवस्था होती है तो शरीर की कोशिकाओं को शक्ति मिलने के साथ-साथ उनकी दिशा बदल जाती है।
जैसे, खेत में सिंचाई करते समय जल की धारा, फसल की दिशा में हो जाती है तो फसल लहराने लगती है। उसी प्रकार, कोशिकाओं के साथ शरीर की सारी तत्र प्रणाली उर्ध्वगामी होकर शक्तिशाली बनती है जिससे आत्मा की ऊर्जा में वृद्धि होती है और परमात्मा की शक्तिशाली किरणों को ग्रहण करने की शक्ति उसे प्राप्त होती है। दिशा ऊपर की तरफ होने से याद की यात्रा आसान हो जाती है।
दिशा उर्ध्वगामी होने से मनुष्य को ईश्वर पिता जोकि ऊर्जा को सबसे बड़ा स्त्रोत है, से सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम, पवित्रता, ज्ञान और शक्ति की शक्तिशाली किरणें मिलती हैं जिससे एक अलौकिक सुख और आनन्द की अनुभूति होती है। इसे ही अतीन्द्रिय सुख कहते हैं। यह अविनाशी होता है और मनुष्य को तृप्त करता है। यह अविस्मरणीय, अवर्णनीय होता है जिसके आगे संसार के सारे सुख तुच्छ एवं झूठे लगते हैं।
इस क्रिया से शरीर और आत्मा दोनों शक्तिशाली एवं पावन बनते हैं। शरीर स्वस्थ एवं गुलाबी हो जाता है। चेहरे पर रूहानी चमक, आंखों में गहराई एवं स्थिरता पैदा हो जाती है जिसे प्राकृतिक सौन्दर्य कहा जाता है। इस प्राप्त ऊर्जा से हमारी स्थूल कर्मेन्द्रियाँ भी शान्त, शीतल हो जाती हैं, शरीर पर भी चुम्बकीय आभामंडल छा जाता है।
जब हम इस योगबल से अपने को परिपूर्ण कर लेते हैं तो इस योग-बल की शक्ति से दृष्टि के द्वारा, बिना स्त्री-पुरुष के सैक्स करने से सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं। हमको पता होना चाहिए कि कर्म का बीज - संकल्प की शक्ति है। जैसा हमारे मन में संकल्प उठता है, वैसी ही क्रिया-प्रतिक्रिया स्वत और तुरन्त होने लगती है।
जैसे, जब कोई स्वादिष्ट व्यंजन खाने का संकल्प उठता है तो स्वत ही मुँह में पानी आ जाता है जिसे लार टपकना कहते हैं और जब कोई दुःखद घटना संकल्प में आती है तो आंखों से आंसू टपकते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि जैसा संकल्प उठता है, उससे सम्बन्धित ग्रन्थियाँ सक्रिय होकर वैसा रस-स्राव करती हैं।
इसी प्रकार जब हम योग-बल की ऊर्जा से परिपूर्ण होते हैं तो सन्तान उत्पत्ति के संकल्प मात्र से एवं दृष्टि के प्रभाव से नारी में ग्रन्थियां सक्रिय हो जाती हैं और उनमें मौजूद X, X क्रोमोसोम्स, कुछ Y में बदल कर आपस में संयुक्त होकर गर्भधारण करते हैं। ये क्रोमोसोम्स आपस में संयुक्त एवं परिवर्तित तभी होंगे जब हमारी सोच शक्तिशाली होगी, जब हमारी सोच व्यर्थ नहीं होकर समर्थ होगी, जब हमारी सोच नकारात्मक न रह कर सकारात्मक बन जायेगी।
अब योगबल क्या है, इस संदर्भ में मैंने ऊपर लेख में कहीं-कहीं थोड़ा-सा इशारा भी दिया है, फिर भी यदि आपको योगबल के बारे में और भी अधिक जानकारी चाहिए अथवा आपको योगबल अर्जित करने की तीव्र उत्कण्ठा है तो आप अपने शहर के ही नजदीक प्रजापिता ब्रहृमाकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के किसी भी सेवाकेन्द्र पर पधार कर इसका निशुल्क लाभ उठा सकते हैं।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।