दान और पुण्य

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भारत में दान का बहुत महत्त्व है। दान शब्द के साथ-साथ पुण्य शब्द भी यहाँ बहुत प्रचलित है। इन दोनों के इकट्ठे प्रयोग से यह प्रश्न उठता है कि ये दोनों एक हैं या अलग-अलग हैं। जब कोई दान करता है तो उसे दानात्मा नहीं लेकिन पुण्यात्मा कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि दान से भी पुण्य का महत्त्व अधिक है। क्योंकि दान करके भी हम पुण्यात्मा ही बनना चाहते हैं।

भगवान के लिए भी कहते हैं कि वो हमारे पुण्य का खाता चेक करता है, दान का खाता नहीं। संसार से विदा होते समय भी पुण्य की पूंजी हमारे साथ जाती है, दान की पूंजी नहीं। किसी को कोई अच्छी प्राप्ति हो जाने पर भी यही कहा जाता है कि पूर्वजों के पुण्य-प्रताप से या श्रेष्ठ कर्मों के पुण्य-प्रताप से प्राप्ति हुई है, दान-प्रताप से प्राप्ति हुई है, ऐसे नहीं कहा जाता। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि दोनों में सूक्ष्म भेद है।

भगवान कहते हैं - ``एक है दान करना, दूसरा है पुण्य करना। दान से भी पुण्य का ज्यादा महत्त्व है। पुण्य कर्म निस्वार्थ सेवाभाव का कर्म है। पुण्य कर्म दिखावा नहीं होता है लेकिन दिल से होता है। दान दिखावा भी होता है, दिल से भी होता है। पुण्य कर्म अर्थात् आवश्यकता के समय किसी आत्मा के सहयोगी बनना अर्थात् काम में आना। पुण्य कर्म करने वाली आत्मा को अनेक आत्माओं के दिल की दुआएं प्राप्त होती हैं।

सिर्फ मुख से शुक्रिया या थैंक्स नहीं कहते लेकिन दिल की दुआएं, गुप्त प्राप्ति जमा होती जाती है। पुण्य आत्मा, परमात्म दुआएं तथा आत्माओं की दुआएं — इस प्राप्त हुए प्रत्यक्षफल से भरपूर होती है। पुण्य आत्मा की वृत्ति, दृष्टि औरों को भी दुआएं अनुभव कराती है।
पुण्य आत्मा के चेहरे पर सदा प्रसन्नता, सन्तुष्टता की झलक दिखाई देती है। पुण्य आत्मा सदा प्राप्त हुए फल के कारण अभिमान और अपमान से परे रहती है क्योंकि वह भरपूर बादशाह है। पुण्य आत्मा, पुण्य की शक्ति द्वारा स्वयं के हर संकल्प, हर समय की हलचल को, हर कर्म को सफल करने वाली होती है।''

उदाहरण - हम भोजन खाते हैं। भोजन तो कई प्रकार का होता है। उस भोजन से रस बनता है जो कालान्तर में मज्जा, मेद, रक्त आदि में परिवर्तित हो जाता है। अब दान की तुलना यदि भोजन से की जाए तो उससे बनने वाले रस की तुलना पुण्य से की जा सकती है।

यदि भोजन उचित, शुद्ध, संतुलित नहीं है तो उससे रस नहीं बन पाता। इसी प्रकार, दान की विधि ठीक नहीं है तो वह मात्र दान रह जाता है, पुण्य नहीं बन  पाता अर्थात् उससे पुण्य की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए दान के सम्बन्ध में भी नियम हैं कि वह कैसे किया जाए।

पहला नियम है कि दान गुप्त हो। एक हाथ से दें तो दूसरे हाथ को पता नहीं लगना चाहिए। गुप्त दान ही महाकल्याण है। पहले ज़माने में कहते थे, नेकी कर दरिया में डाल अर्थात् नेक कर्म करके दरिया में बहा दो, उसे किसी को दिखने मत दो। आजकल लोग देवियों की मूर्ति, गणेश की मूर्ति आदि बनाकर उसका विसर्जन तो नदी में कर देते हैं पर अपने किए गए दान को तो पत्थरों पर, पंखों पर, दीवारों पर खूब लिखते हैं।

पुस्तकों में, सभाओं में उसका खूब वर्णन करवाते हैं। मन्दिर, धर्मशाला आदि सार्वजनिक महत्त्व के स्थानों पर जाकर व्यक्ति ईश्वर चिन्तन करना चाहता है परन्तु वहाँ तो हर पत्थर पर, हर दरवाज़े पर, हर वस्तु  पर दानदाता का नाम लिखा रहता है जिस कारण वह मन में ईश्वर की माला फेरने के बजाय, चाहे, अनचाहे दानदाता की माला फेरने पर मजबूर हो जाता है।

होना तो यह चाहिए था कि हमारी दी हुई चीज़ से सुख पाकर लोग प्रभु को याद करते, उसे धन्यवाद करते, उसका गुणगान करते, उसके प्यार में खो जाते, पर हमने तो उलटा ही कर दिया। भगवान, जो दाता हे, हमें सबकुछ देने वाला है, करनकरावनहार है, उसकी महिमा को पीछे धकेलकर, अपने को ही स्वयंभू मान लिया, अपने को ही प्रत्यक्ष कर लिया और लोगों को ईश्वर के स्थान पर स्वयं का कृतज्ञ बना लिया।

ईश्वर के स्थान पर स्वयं की माला फिरवाना शुरू कर दिया। कई लोग कहते हैं कि इस प्रकार  नाम करने से दूसरे लोगों को भी दान करने की प्रेरणा मिलती है। लेकिन सिद्धान्त यह कहता है कि जैसा कर्म होगा उससे प्रेरणा भी वैसी ही मिलेगी। ऐसे दान से दिखावा करने की और नाम कमाने की प्रेरणा भले मिले पर पुण्य अर्जन की प्रेरणा कदापि नहीं मिल सकती।

यही कारण है कि आज भी संसार में नाम वाले दानियों की भीड़ काफी है परन्तु प्रसन्नता, सन्तुष्टता, दुआ, शक्ति, मानसिक स्थिरता और कर्मों की सफलता से भरपूर दानी आत्माएँ नज़र नहीं आतीं।

दान का दूसरा पहलू है तुरन्त दान, महापुण्य। सोच-सोच कर दान किया, अभी जेब में हाथ डाला और फिर कुछ सोचकर खाली का खाली बाहर निकाल लिया। दूँ, ना दूँ, इसी उधेड़बुन में समय गँवाते रहे, देने से क्या लाभ होगा, दूँ तो क्या नुकसान होगा, इसी आकलन में लगे रहे तो उस दान का पुण्य नहीं बनता। मन में संकल्प उठा और तुरन्त कर दिखाया, तब कहते हैं महापुण्य।

जैसे कर्ण के लिए दिखाते हैं कि बाएं हाथ से याचक को दान दिया क्योंकि दाएं से खाना खा रहे थे। दाएं हाथ को धोएं इतनी देर में मन का संकल्प फिर गया तो दान-कार्य में विघ्न पड़ जाएगा, यह सोचकर तुरन्त बाएं हाथ से दान कर दिया। बलि में भी एक झटके से मरने वाले को सही बलि माना जाता है।

मरने में देर लगाए तो वह बलि नहीं। इसी प्रकार दान  के संकल्प को तुरन्त कर्म में लाए तो ही महापुण्य बनता है। सोचा कब और किया कब - इस समय के अन्तराल से पुण्य प्राप्ति में अन्तर जाता है।

दान का तीसरा पहलू है सुपात्र को दिया गया दान ही महापुण्य है। पात्र का एक अर्थ होता है बर्तन। मानलो हमें खीर डालनी है परन्तु पात्र गोबर से लिपटा पड़ा है तो ऐसे गन्दे पात्र में डाली गई खीर भी गन्दी हो जाएगी। पात्र का दूसरा अर्थ होता है लेने वाले व्यक्ति का मन। यदि वह मन काम, क्रोध, व्यसन, हिंसा, मोह आदि विकारों से भरपूर है तो हमारे द्वारा दिए गए दान को भी इन्हीं कार्यों में लगाएगा।

फलस्वरूप हम पुण्य के नहीं, पाप के भागी बन जाएंगे। इस सम्बन्ध में एक कहानी प्रचलित है कि एक बहुत ही दानी राजा, देह त्यागने के बाद जब धर्मराज के सामने पहुँचा तो चित्रगुप्त ने बताया कि इस पापी राजा के खाते में लाखों मछलियाँ मारने का पाप है। राजा ने इसका कड़ा विरोध किया और अपने धर्मात्मा होने के कई प्रमाण दिए परन्तु चित्रगुप्त अपने सत्य वचन पर अड़ा रहा।

अन्त में पता चला कि राजा के दान के धन से एक मछुआरे ने मछली पकड़ने का जाल खरीदा और लाखों मछलियों को मारा। चूंकि इस पाप कर्म में धन राजा का इस्तेमाल हो रहा था, इसलिए वह भी पाप में भागीदार बन गया। अत दान देते समय पात्र के चरित्र को ज़रूर जानना चाहिए। यदि वह लोभ, अहंकार आदि विकारों के वश है तो दान का फल पुण्य नहीं, पाप हो  जाएगा।

इस सम्बन्ध में एक जानने योग्य बात यह भी है कि कोई भला आदमी बहुत सारा धन कमाकर अपने बच्चों को वर्से में देकर स्वयं परलोक चला जाता है परन्तु बच्चा कुसंस्कारी है और उस धन से शराब, जुआ तथा समाज विरोधी और व्यभिचारी कर्म करता है तो उस पाप का फल, उस दिवंगत आत्मा को भी भोगना पड़ता है।

ना वो धन कमाता, ना आज उसका बच्चा व्यभिचार करता। इसलिए ना केवल दान में वरन वर्से में धन देते समय भी पात्र, कुपात्र का उचित विचार करना अनिवार्य है।

दान का चौथा पहलू है आवश्यकता के समय दिया गया दान ही महापुण्य है। जिस दान को पाकर व्यक्ति की ज़रूरत पूरी हो, उसे आत्मिक तृप्ति मिले जैसे भूखे को भोजन, प्यासे को पानी, बीमार को दवाई, अशान्त को शान्ति और असन्तुष्ट को सन्तोष-धन। दान का पाँचवाँ पहलू है अच्छी वस्तु का दान ही महापुण्य है।

जो वस्तु हमें काम नहीं रही। हमारे लिए बेकार हो गयी या उस वस्तु में कोई कमी गई इसलिए दान कर रहे हैं तो समझ लीजिए कि, लेने वाला हम पर उपकार कर रहा है उस कमी वाली वस्तु को स्वीकार करके, कि हम उस पर उपकार कर रहे हैं। देना, लेना होता है और लेना, देना। जो देंगे वह कई गुणा होकर मिलेगा अर्थात् ब्याज सहित मिलेगा। कोई चाहे तो भी मिलेगा।

क्योंकि कर्म किया है तो उसका फल प्राप्त होगा ही। जैसे ज़मीन को एक बीज देते हैं, कई गुणा फल पाते हैं। इसी प्रकार यदि किसी को कमी वाली चीज़ दान की तो बदले में बहुत सारी कमी वाली चीज़ें आज नहीं तो कल अवश्य प्राप्त होंगी। नचिकेता ने अपने राजा पिता का इसी बात पर विरोध किया था कि आप बूढ़ी और दूध रहित गउओं का दान क्यों कर रहे हैं, दान में तो अच्छी चीज़ देनी चाहिए।

इस सत्य पर पहले तो राजा क्रोधित हुए परन्तु बाद में उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ कि सत्य ही दान हमेशा उत्तम वस्तु का ही करना चाहिए।

पुण्यात्मा की निशानी - अपने पुण्य के खाते को परखने के लिए हमारे पास जो कसौटी है वह है व्यर्थ संकल्पों की समाप्ति की कसौटी। पुण्य का खाता जितना भरपूर, व्यर्थ का खाता उतना ही कमजोर। ऐसी आत्मा हर परिस्थिति में हर्षित और मन की चंचलता, विक्षेपता, अस्थिरता से मुक्त होगी। आने वाली परिस्थिति को पहले से जानकर स्वस्थिति के मजबूत कवच को पहने रहेगी।

अपनी इन्द्रियों पर पूरा नियत्रण रखेगी, बेफिकर बादशाह होगी, दूसरों को अपने हर कर्म से खुशनसीबी की दुआ अनुभव कराएगी। चेहरे पर रूहानियत होगी, साधना का बल होगा, मन की स्लेट दाग रहित होगी। स्व पर पूरा नियत्रण रखने वाली मनजीत, प्रकृतिजीत होगी।

पुण्यात्मा बनने में रुकावट - पुण्यात्मा व्यर्थ विचारों से मुक्त होती है इसलिए व्यर्थ वचन और व्यर्थ कर्म भी उसके जीवन में नहीं होते। व्यर्थ विचार प्रवेश करने का सबसे बड़ा दरवाज़ा है दूसरों के कर्मों को कारण बनाना। इसने यह कहा, उसने यह किया इसलिए मेरा मन ऐसा हो गया। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव को दूसरों के बीच तो रहना ही पड़ेगा। दूसरे लोग कर्म भी करेंगे।

यदि उनके कर्मों की गरमाहट से हमारे मन में गर्मी प्रवेश करती रही तो जीवन कभी शीतल हो ही नहीं सकेगा। इसलिए जैसे सूर्य की गर्मी को छाते से रोकने की कोशिश करते हैं, इसी प्रकार, दूसरे के कर्मों की गर्मी से बचने का छाता है उनकी कमियों की तरफ ध्यान देना, उनकी तरफ से मुँह फेर लेना, उन्हें स्वीकार करना, उनका चिन्तन मन में आने देना।

अपने मन को दूसरे सकारात्मक कार्यों में लगाकर उस तरफ से उपराम हो जाना। इसी को कहा जाता है दुख लेना। `दुख देना नहीं है' इस मत्र को पक्का करने से आधे पुण्यात्मा बनेंगे पर `दुख लेना भी नहीं है' इस मत्र से पूरे पुण्यात्मा बन जाएंगे। दूसरे द्वारा प्रदत्त दुख को सुख के रूप में स्वीकार करो, ग्लानि को प्रशंसा समझो, तब कहेंगे पुण्यात्मा। ऊपर हमने नचिकेता का वर्णन किया।

उसकी कहानी में आगे आता है कि पिता  ने क्रोधित होकर उसे यम (मृत्यु) को दान कर दिया पर नचिकेता ने इस क्रोध से दुखी होने के बजाए, यम से तीन वरदान प्राप्त कर पिता के क्रोध का फायदा उठा लिया। गाली देने वाले और ग्लानि करने वाले को दिल से गले लगाओ। उन पर रहम करो। जैसे कोई गला हुआ फल दे तो हम लेंगे नहीं।

दूसरे द्वारा दिए जा रहे दुःख को भी गला हुआ फल समझकर अस्वीकार कर दो या उसे खाद में बदलकर उस पर दिव्यगुणों के फूल खिला दो। कई कहते हैं, करना तो नहीं चाहते पर हो जाता है। जब हम नहीं चाहते तो कोई और आकर कर जाता है क्या?जैसे हम पीना चाहें तो कोई हमें पानी पिला सकता है क्या?

नहीं ना, तो जो हम सोचना ना चाहें, जो बोलना, करना ना चाहें, वह कोई और आकर करा सकता है क्या? अवश्य ही हमारे  में कोई कमज़ोर कोना है, कमज़ोर रास्ता है। ना चाहते भी प्रकट होने वाली इस कमज़ोरी को खत्म करना ही पुण्यात्मा बनना है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।
                                

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