आध्यात्म या धर्म वास्तव में अहिंसा का मार्ग है। यह पाणीमात्र चाहे वह कोई भी हो स्त्री-पुरुष, पशु सबसे पेम करना, सभी को समान दृष्टि से देखना एवं ऐसा व्यवहार जिससे किसी को दुःख न हो, सिखाता है, परन्तु धर्म के क्षेत्र में भी नारी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार सदियों से हुआ है। वेदों, शास्त्रों, पुराणों में संत एवं कवियों द्वारा नारी की मिथ्या निंदा की गई है। जैसे रामचरित मानस के रचयिता संत तुलसीदास जी ने कहा–
ढोल गंवार शुद्र अरू नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।
आज भी पुस्तकालय ऐसी धार्मिक पुस्तकों से भरे हुए हैं, जिसमें नारी के पति अनुचित शब्दों का पयोग किया गया है, उसका अपमान किया गया है और वे ग्रंथ भी ऐसे हैं जिनमें लोगों की विशेष आस्था है। जैसे उन्होंने पशुओं की तरह नारी को मारने का अधिकार समाज को दे दिया, फिर कहा – नारी के मन में 8 अवगुण सदा ही निवास करते हैं –
नारी सुभाव सत्य कवि कहहीं, अवगुण आठ सदा उर रहहीं।
साहस, अनृत, चपलता, माया, भय, अविवेक, अशौच, अंदाया।।
जबकि तुलसीदास जी को संत बनाने में उनकी पत्नी की ही पेरणा थी, उनके शादी के बाद एक रात्रि को मायके में खिड़की कूदकर उनके पास पहुँचने पर पत्नी ने कहा कि जितनी पीत आपकी मेरे से है, उतनी पीत राम से होती तो भवसागर पार हो जाते। इस वाक्य ने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। कबीरदास जी कहते हैं –
नारी नसावै, तीन गुन, जो नर पास होय
भक्ति, मुक्ति, निज ध्यान में पैठि न सक्कै कोय।
नारी का मन भक्ति, मुक्ति निज ध्यान में नहीं लग सकता।
आदि शंकराचार्य जी ने पश्नोत्तरी में कहा है कि –
द्वारं किमेकं नरकस्य? विश्वास पात्रमं न किमस्ति?
नर्प का द्वार कौन है? कौन विश्वास करने योग्य नहीं है, नारी? और भी कई निंदनीय बातें कही हैं। दूसरी तरफ वह अद्वैतवाद की भी बात करते हैं, कहते हैं – अहं ब्रह्मास्मि! तो जब सभी ब्रह्म के रूप हैं तो नारी नर्प का द्वार क्यों? वह भी ब्रह्म का रूप है। वेदों में स्त्रियों को स्वभाव से झूठा कहा गया है तथा पुरुष को स्त्री पर विश्वास करने से मना किया गया है।
मनुस्मृति में भी नारी की निंदा –
मनु ने भी नारी के चरित्र को अविश्वसनीय और दोषयुक्त घोषित किया है। इसलिए नारी को पीटने का उपदेश दिया है।
चाणक्य नीति, कौटिल्य अर्थशास्त्र तथा शुक नीति, हितोपदेश इत्यादि में भी नारी की निंदा की गई है। धर्मगंथ स्त्री के पति ऐसा तिरस्कारपूर्ण दृष्टिकोण अपनाने और अपमानकारी व्यवहार अपनाने को कह रहे हैं, उसे पाँव की जूती भी कहा गया है। कहा पति को परमेश्वर माने और आयुपर्यन्त उसकी एक भी आज्ञा को न टाले। उसके व्यवहार पर कोई पश्न न करे अर्थात् उनका अपना कोई निजी जीवन नहीं। जैसे पुरुष के चरणों की दासी बना दिया था।
ईसाईयों के धर्म-ग्रंथ बाइबिल में एक वाक्यांश आता है – आदम और ईव स्वर्ग के बगीचे में रहते थे। शैतान ने स्वर्ग के बगीचे में ईव को बहकाया और उसे वर्जित फल खाने को मजबूर किया तो एडम ने ईव के कहने पर ईश्वराज्ञा को तोड़कर, वह फल तोड़ लिया और उसके बाद वह स्वर्ग से पदच्युत हो गये, इस तरह यहाँ भी स्त्री को ही दोषी बताया गया है।
अत जन्म-जन्मान्तर से पण्डितों, पुजारियों से शास्त्रों-ग्रंथों के उपरोक्त वचनों को सुनने के परिणामस्वरूप पुरुष-स्त्री निंदक वाक्यों से पभावित होते रहे हैं और स्त्री को मारना अपना अधिकार समझते हैं।
अत यह भी आवश्यक है कि शास्त्र में भरे इन निन्दनीय शब्दों का कुछ उपाय किया जाये, जहाँ निंदा की गई है, वहाँ फुटनोट होना चाहिए – स्त्री निंदा के ये वाक्य मिथ्या हैं, अमान्य हैं, अवैधानिक एवं अन्याय है। हम यदि निकाल नहीं सकते तो विरोध तो कर सकते हैं, ताकि नई पीढ़ी आज की सामाजिक मान्यता से अवगत हो सके।
पाचीनकाल के ग्रंथों द्वारा पचारित मान्यताओं के परिणामस्वरूप स्त्री को धर्म के क्षेत्र में नेतृत्व से वंचित किया गया है। इस क्षेत्र पर पूर्णत पुरुष वर्चस्व रहा। मध्यकाल में नारी का वेद अध्ययन वर्जित था, क्योंकि उसे अपवित्र माना जाता था।
सती पथा को शास्त्र सम्मत माना गया। शास्त्रों में स्पष्ट कहा है कि जो नारी अपने मृतक पति के शव के साथ स्वयं को भस्म कर देती है, वह स्वर्ग में इतने हज़ार वर्ष रहती है जितने कि मनुष्य के शरीर पर बाल होते हैं। ऐसे मिथ्या पलोभन देकर उसे मरने के लिए उकसाया गया। इससे बड़ी हिंसा क्या हो सकती है?
समाज सुधारक राजाराम मोहनराय ने कान्तिकारी कदम उठाकर भारत के अनेक भागों में पचलित इस पथा को समाप्त करने का साहसिक कार्य किया, फिर सरकार ने इसे समाप्त करने के लिए अनेक कानून बनाये। आज स्त्रियां सती नहीं होती पर विधवा होने पर धार्मिक कारणों, कुरीतियों के कारण वे ऐसे वस्त्र पहनती हैं कि दूर से ही स्पष्ट हो कि यह विधवा है समाज उसे अमंगलकारी, भाग्यहीन समझता है। शारीरिक रीति से सती न होने पर उसे मानसिक रूप से जीवन भर सती होना पड़ता है। चिंता एवं अपमान की अग्नि में जलना पड़ता है।
साम्राज्यवादियों ने पिछड़े देशों में सत्ता कायम करके, वहाँ के वास्तविक मूल निवासियों के साथ जो व्यवहार किया, पूँजीपतियों ने किसानों-मजदूरों का जो शोषण किया, उससे कम शोषण नारी का नहीं किया गया। अन्याय, आतंक, असमानता से व्यवहार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। बिना वेतन के ही वह दासी बना कर रखी गई, उससे दहेज तो लिया ही गया परन्तु विशेष अवसरों पर भी जैसे कर वसूला गया।
पशु की तरह उसे वश में रखने के लिए मारना-पीटना भी वह उचित समझता रहा है। स्वर्ग-नर्प, पाप-पुण्य की मनगढ़त परिभाषायें बना कर उसे विद्याध्ययन से वंचित कर, अपनी ही सेवा-पूजा करवाई है। पुरुष को स्त्री का गुरू, देव और परमेश्वर बताने तथा दुराचारी पुरुष को देवतुल्य मनवाने वाली पुस्तकें धर्मशास्त्र हैं, जिनके विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाई जाती है।
देवदासी पथा– कुछ समय पहले तक मन्दिरों में देव दासियाँ रखे जाने का भी रिवाज था। अब भी दक्षिण भारत में कहीं-कहीं यह रिवाज है। कई माता-पिता अपनी कन्या को देव अर्पित कर आते थे, जो मन्दिर में पुजारियों के पास देवता को पसन्न करने के लिए नृत्य करती थीं, उनका नियम था कि वह आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगी, देव पूजन के समय केवल देवता को पसन्न करने के लिए नृत्य करेंगी।
मानते थे उनका विवाह देवता के साथ हो चुका है, लेकिन पुजारी और धर्माचार्य लोग उन्हें अपने जाल में फँसा लेते थे और उनका शोषण करते थे। महमूद गजनवी ने जब सोमनाथ पर आकमण किया तो उस मन्दिर का मुख्य पुजारी उसकी पमुख देवदासी पर आसक्त था और उनके सम्बन्ध नैतिक नहीं थे,
साथ-साथ उस रियासत का राजा भीमदेव की भी नजर उस पर थी जो पुजारी को पसंद नहीं था, इसलिए राजा के पति उसका शत्रुता का भाव था, उसने इस कारण गजनवी की सहायता की जो हिन्दुओं और हिन्दुस्तान की हार का एक मुख्य कारण बना और महमूद गजनवी हिन्दुस्तान में पविष्ट हो गया।
देवदासियों के साथ अनैतिक सम्बन्ध के अतिरिक्त, पुराने जमाने में एक और रिवाज था कि बड़े-बड़े यज्ञों की पूर्ण आहूति होने पर राजा या धनाढ्य लोग यज्ञ कराने वाले पुरोहितों को युवतियों को भी दक्षिणा रूप में दिया करते थे, वे पुरोहित उनसे दासियों का काम तो लेते थे, परन्तु साथ में उनसे अनैतिक कर्म भी करते थे।
20वीं सदी में नारी स्वातंत्र्य के लिये अनेक संगठनों द्वारा किये पयासों के फलस्वरूप स्थिति में एक बड़ा परिवर्तन आया है। धर्म के क्षेत्र में भी उसके पति मान्यताओं में परिवर्तन हुआ है। आज अनेकों धार्मिक, आध्यात्मिक संस्थाओं में पमुख के रूप में महिलायें कार्य कर रही हैं।
लेकिन कस्बों एवं ग्रामीण इलाकों में जहाँ अब भी कुरीतियाँ, रूढ़ियाँ, अंधविश्वास विद्यमान हैं, ऐसे स्थानों पर महिलायें कई बार बाबाओं, तांत्रिकों, गुरुओं के शोषण का, अनजाने में शिकार होती हैं, जब तक वे इसे समझ पाती हैं, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।
धार्मिक श्रद्धा के कारण अथवा कोई समस्या, परेशानी से मुक्ति के लिये इनकी शरण में पहुँचती है। अभी कुछ दिन पहले ही अखबार में मध्यपदेश के चित्रकूट के समीप स्थान की घटना छपी थी। एक तांत्रिक ने इलाज के बहाने लगभग 35 महिलाओं के साथ बलात्कार किया, वह इसे इलाज की विधि बता कर जायज कहता था।
महिला को किसी को भी नहीं कहना, की चेतावनी दी जाती थी। लेकिन किसी एक महिला ने साहस करके उसकी शिकायत पुलिस में दर्ज करवाई तब कहीं जाकर वह पकड़ा गया और पाया कि वह मानसिक रूप से विक्षिप्त था। भोली महिलायें आस्था के परिणामस्वरूप ऐसे लोगों के चंगुल में फँस जाती हैं।
एक और घटना राजस्थान में जालौर ज़िले की है। कुछ वर्षों पूर्व हुई और अखबारों की सुर्खी में रही। एक जैन मुनि के अपनी एक जजमान के साथ कुछ समय अनैतिक सम्बन्ध रहे और जब उसने बलात्कार का पयास किया तो महिला ने पुलिस थाने में रिपोर्ट करवाई तब यह पकाश में आया। मुनि ने उसके बाद एसिड पीकर आत्म-हत्या कर ली।
कई स्थानों पर यदि किन्हीं समस्याओं के कारण मानसिक रूप से असामान्य व्यवहार करने पर उसमें भूत की पवेशता मान कर ओझाओं के पास ले जाकर इलाज कराने पर ओझा उन्हें निर्दयता से शारीरिक यातनायें देते हैं और कहते हैं यह भूत भगाने के लिये है। लेकिन इससे कई बार महिला की मृत्यु तक हो जाती है। कई बार इन ओझाओं के द्वारा महिला को ही डायन घोषित कर दिया जाता है।
यदि महिला आत्मिक उन्नति करना चाहती है, ईश्वर को पाप्त करना चाहती है तो भी किसी-न-किसी गुरू का मार्ग-दर्शन लेने की आवश्यकता होता है। ऐसे में यदि वह महिला संस्था द्वारा मार्ग-दर्शन लेती है तो अधिक सुरक्षित है।
पूर्णत आध्यात्मिक मार्ग पर आत्म-कल्याण एवं जन-कल्याण के मार्ग पर समर्पित होना चाहती है तो आज महिला पधान संस्थायें भी हैं, जहाँ इस पकार की हिंसा की घटनाओं की संभावना न्यूनतम है।
पजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय एक ऐसा ही आध्यात्मिक संस्थान है, जो महिलाओं द्वारा संचालित है। इसकी मुख्य पशासिका दादी जानकी जी, सह-मुख्य पशासिका दादी हृदयमोहिनी जी हैं, जिसका मुख्यालय माउण्ट आबू (राजस्थान) में है। ईश्वरीय विश्व विद्यसलय की 8500 शाखायें विश्व के 145 देशों में भारत में सभी शहरों-कस्बों में लगभग 8500 सेवाकेन्द्र हैं। जो सभी महिलाओं द्वारा पशासित हैं, एवं पुरुष इस कार्य में पूर्ण सहयोगी हैं।
इसकी स्थापना सन् 1937 में हैदराबाद (सिंध) में उन परिस्थितियों में हुई, जब तत्कालीन सिंध समाज में महिलाओं की दशा शोचनीय थी, उन्हें घर की चार दीवारी से बाहर जाने की आज्ञा नहीं थी, पर्दा पथा थी, शिक्षा से वंचित रखा जाता था।
वह कोई स्वतंत्र निर्णय नहीं ले सकती थी, सती पथा नहीं थी परन्तु विधवा होने पर महीनों रोते हुए समय गुजारना, तेल में सने हुए गन्दे कपड़े जीवनपर्यन्त पहनने होते थे। विधवा को अभागिन मानते थे, किन्हीं अवसरों पर उनके आगमन को अशुभ मानते थे अर्थात् समाज में उनका स्थान बहुत निम्न कोटि का होता था। वह स्वयं तथा निकट सम्बन्धी उनके कारण बहुत दुःखी रहते थे।
दादा लेखराज हैदराबाद (सिंध) में हीरे-जवाहरात के पसिद्ध व्यापारी थे। समाज में पतिष्ठित एवं धार्मिक पवृत्ति के थे। अपनी 60 वर्ष की आयु में ईश्वर को पाप्त करने के उद्देश्य से अनेक गुरू किये, उसके पश्चात् अनेक दिव्य साक्षात्कार होने पर उनका जीवन पूर्णत परिवर्तन हो गया। उन्होंने वहाँ ओम मण्डली नाम से एक सत्संग पारम्भ किया।
उनका परिवर्तित नाम पजापिता ब्रह्मा रखा गया। उन्होंने सत्संग में आने वाली कुछ कन्याओं-माताओं को निमित्त बना कर एक ट्रस्ट बनाया और पूर्ण सम्पत्ति उनके नाम कर दी। उनका एक स्वप्न था – महिलायें इस आध्यात्मिक कार्य में अग्रणी रहें। भारत माता शक्ति अवतार दिखाई दें, उनका यह स्वप्न पूरा हुआ। पारम्भ से ही संचालन, पशासन महिलाओं ने किया।
सन् 1969 में उनके देहावसान के पश्चात् दादी पकाशमणि जी ने संस्था की मुख्य-पशासिका के रूप में 38 वर्षों तक कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया। इस संस्था की मुख्य शिक्षा सहज राजयोग है, जिससे स्त्री-पुरुष का जीवन के पति दृष्टिकोण ही बदल जाता है। यह इस समझ पर आधारित है कि हम केवल भौतिक शरीर नहीं लेकिन इस शरीर को चलाने वाली चेतन शक्ति, सूक्ष्म शक्ति आत्मा हैं, जो अजर-अमर-अविनाशी है।
आत्मा लिंग रहित है। वह जिस लिंग वाला शरीर धारण करती है, वैसा ही सम्बोधन उसे पाप्त होता है। जैसे मुखौटा पहनने पर बाह्य स्वरूप की पहचान बदल जाती है, ऐसे ही लिंग रहित, चैतन्य, अविनाशी आत्मा भी स्त्री और पुरुष के मुखौटे पहन कर कभी स्त्री रूप में, कभी पुरुष रूप में पार्ट बजाती है। जन्म-पुर्नजन्म के खेल में आत्मा कभी नारी, कभी नर बनती है।
आत्मिक स्थिति में रहने से, देहभान समाप्त हो, आत्मिक गुण निखरने लगते हैं। उसमें आत्म-सम्मान जागृत होता है। अत स्त्री-पुरुष दोनों की आत्मिक-दृष्टि होने से परस्पर स्नेह, सम्मान एवं सहयोग रहता है, अधिकार भावना एवं शोषण समाप्त हो जाता है।
राजयोग का दूसरा पक्ष है – योग अर्थात् परम-शक्ति परमात्मा से सम्बन्ध। उससे मन का सम्बन्ध जोड़ने से, ध्यान करने पर नारी शक्ति स्वरूप बन जाती है। हमारी संस्कृति में ही शिव-शक्ति के रूप में देवियों की पूजा होती है।
यूँ विद्या क्षेत्र में पुरुष अग्रणी होते हैं परन्तु विद्या की देवी सरस्वती, धन भी अधिकतर पुरुष कमाते हैं परन्तु धन की देवी लक्ष्मी है, शक्ति पदर्शन, युद्ध कौशल में पुरुष पवीण होते हैं, परन्तु शक्ति की देवी दुर्गा है। अत आदि शक्ति के रूप में देवियों की पूजा भी हमारी ही संस्कृति में होती है। जहाँ कहा गया है – यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता अर्थात् जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता बसते हैं।
इसलिए देवी-देवताओं की संस्कृति में पहले सीता फिर राम, पहले राधे फिर कृष्ण, पहले लक्ष्मी फिर नारायण का नाम लिया जाता है अर्थात् नारी को गौरव पूर्ण स्थान दिया गया है।
महिला नेतृत्व के कारण बहनों को ऊँची दृष्टि से, दैवी की दृष्टि से, आत्मिक-दृष्टि से ही व्यवहार करते हैं। अत किसी भी पकार की स्पीचुअल वायोलैंस यहाँ नहीं है। बल्कि महसूस किया है कि यह ज्ञान स्त्री-पुरुष द्वारा जीवन में अपनाया जाय तो नारी की सभी समस्याओं का इसमें समाधान है।
यह कोई धार्मिक ग्रंथों एवं शास्त्रों पर आधारित नहीं है। इसलिए यहाँ स्त्री को स्वर्ग का द्वार माना जाता है। वह चाहे जो परितर्वन ला सकती है। वह अबला नहीं, सबला है, शक्ति स्वरूपा है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।