श्रीकृष्ण और वैकुण्ठ

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भारत देश में श्रीकृष्ण के अनगिनत मन्दिर हैं, श्रीकृष्ण के अगण्य भक्त हैं। यहाँ हर घर में श्रीकृष्ण के चित्र भी लगे रहते हैं। तब भी यहाँ भला श्रीकृष्ण की दिव्यता की छाप मनुष्य के मन  पर अंकित  क्यों  नहीं  होती? श्रीकृष्ण को `मनमोहन' मानने वालों का अपना जीवन मनमोहक क्यों नहीं बनता? अवश्य ही श्रीकृष्ण के बारे में लोगों  में कुछ भ्रान्तियाँ हैं अथवा उनके मन में तत्सम्बन्धी ज्ञान की कुछ कमी है। 

वरना श्रीकृष्ण जैसे  सर्वश्रेष्ठ देवता की जीवन-कहानी को जान कर तो मनुष्य को अपना जीवन भी वैसा ही उच्च बनाने की प्रेरणा अवश्य ही मिलनी चाहिए और हम अपने अनुभव के आधार पर आज कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण का कितना उज्ज्वल जीवन था! उनमें जो महान् गुण थे, उनकी जो पूर्ण पावन अवस्था थी, उसे लोग वैसा नहीं जानते।

इसी कारण उनके मन मलीन हैं, उनका आत्म-बल क्षीण है और उनमें आज धर्म की भावना हीन है तथा पवित्रता का संकल्प भी क्षीण है। अत जन्माष्टमी के अवसर पर हम श्रीकृष्ण की वास्तविक कहानी पर मधुर चर्चा करते हैं ताकि हमारा जीवन भी उनके गुणों को सामने रख कर दिव्य बन जाये।

आप जानते होंगे कि भारत में यह प्रथा थी कि स्वयंवर होने पर वर और वधू दोनों का नाम प्राय बदल दिया जाता था। इसी प्रथा के अनुसार त्रेता युग में `जानकी जी' का नाम बदल कर `श्री सीताजी' हुआ था। आज तक भी भारत में कई कुलों में यह प्रथा चली रही है।

इसके अनुसार श्रीकृष्ण का नाम  स्वयंवर के पश्चात् बदल कर `श्रीनारायण' हुआ था। भक्त लोग कीर्तन करते समय श्रीकृष्ण से सम्बन्धित जो श्लोक आदि गाते हैं, उनकी ओर यदि आप ध्यान दें तो आप को मालूम होगा कि `श्रीनारायण' नाम भी श्रीकृष्ण ही का वाचक है। उदाहरण के तौर पर, भक्त लोग कीर्तन करते समय गाते हुए कहते हैं`श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ, नारायण, वासुदेव!'

स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण ही को `श्रीनारायण' भी कहा गया है। इसी प्रकार, श्रीमद्भागवत् में भी कई बार श्रीकृष्ण को `श्री नारायण' नाम दिया गया है। अत अब जन्माष्टमी के अवसर पर श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते समय यह मालूम रहना चाहिए कि श्री नारायण का जन्मोत्सव भी यही है। श्रीकृष्ण के जन्मदिन से भिन्न किसी दिन श्रीनारायण का जन्म दिन ही मनाया जाता है और ही नारायण की अलग कोई जीवन-कहानी ही उपलब्ध है।

श्रीकृष्ण अथवा श्रीनारायण की सुन्दरता, स्वच्छता, पवित्रता, दिव्यता एवं जीवनमुक्त  अवस्था को ध्यान में रखते हुए ही आप श्रीकृष्ण के जन्म और जन्म के समय के विषय में ठीक निर्णय कर सकेंगे। आज भी आप देखते हैं कि श्रीनारायण तथा श्री लक्ष्मी के राज्य-तिलक का दिव्य उत्सव अर्थात् दीपावली का त्योहार आने पर भारतवासी स्वच्छता तथा पवित्रता आदि का खूब प्रबन्ध करते हैं।

आप जानते होंगे कि लोगों के मन में यह धारणा बनी हुई हैं कि यदि घर के किसी भी कोने में स्वच्छता नहीं होगी और प्रकाश नहीं होगा, तो वहाँ श्री लक्ष्मी जी आयेंगी ही नहीं। तो साक्षात् श्री लक्ष्मी और श्री नारायण, जो कि स्वयंवर से पूर्व श्री राधे  और श्री कृष्ण कहलाते थे, के इस पृथ्वी पर जन्म लेने तथा यहाँ जीवन व्यतीत करने के लिए इस सृष्टि में कितनी पवित्रता और कितना जीवन-प्रकाश चाहिए!

जबकि देवताओं की प्रतिमाओं के स्थानों (मन्दिरों) में भी स्वच्छता, सुगन्धि और प्रकाश का ध्यान रखा जाता है और अशुद्ध हाथ इन मूर्तियों को छू तक भी नहीं सकते तो विचार किजिए कि साक्षात्, साकार श्रीकृष्ण के जन्म के लिए इस सृष्टि में अर्थात् यहाँ रहने वाले लोगों इत्यादि में पवित्रता का होना कितना जरूरी है?

श्रीकृष्ण जैसी सर्वोत्तम एवं सर्वगुण सम्पन्न मनुष्यात्मा के भोग के लिए तो फल-फूल, आहार-विहार सभी सर्वोत्तम ही चाहिएँ और उनके भोज्य पदार्थ भी शुद्ध मनसा वाले मनुष्यों (देवताओं) ही के हाथों से बने होने चाहिएँ। तभी तो कहावत भी है कि ``अपवित्र धरती पर देवता पाँव नहीं धरते।''

अत स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण का जन्म सतयुग के प्रारम्भ में ही हुआ क्योंकि सतयुग ही सतोप्रधान युग है और उसी युग में लोग पवित्र मनसा वाले तथा दिव्य गुण-सम्पन्न आचरण वाले होते हैं और यह सृष्टि भी नयी एवं स्वच्छ होती है तथा प्रकृति की भी शोभा पूर्ण पराकाष्ठा पर होती है।

पुनश्च, श्रीकृष्ण के सभी भक्त, श्रीकृष्ण को `वैकुण्ठनाथ' की उपाधि से याद करते हैं और देखा जाये तो यह उपाधि भी उपर्युक्त  रहस्य की पुष्टि करती है क्योंकि सतयुगी पावन एवं सम्पूर्ण सुखी सृष्टि ही देव-सृष्टि अथवा स्वर्ग एवं  वैकुण्ठ है।

स्वर्ग या वैकुण्ठ इस मनुष्य लोक से ऊपर कहीं नहीं है बल्कि यह सतयुगी एवं त्रेतायुगी सृष्टि का नाम है जो कि द्वापरयुगी और कलियुगी सृष्टि की भेंट में पवित्रता, सतोगुण, दिव्यगुण-सम्पन्नता तथा सुख-शान्ति के दृष्टिकोण से उच्च है। अत `वैकुण्ठनाथ' का वास्तविक अर्थ है `सतयुगी सुखमय सृष्टि का चक्रवर्ती राजा' इस प्रकार, श्रीकृष्ण की इस उपाधि से भी संकेत मिलता है कि श्रीकृष्ण सतयुग के आरम्भ में हुए।

श्रीमद्भगवत से संकेत मिलता है कि श्रीकृष्ण के जन्म लेने पर, अथवा थोड़ा पहले, अन्य मुख्य (आठ) देवताओं ने भी जन्म लिया था। अत वास्तव में जन्माष्टमी केवल श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव नहीं बल्कि साथ ही आठ मुख्य देवताओं के भी जन्म का उत्सव है। श्रीकृष्ण जैसे देवता के बहन-भाई सम्बन्धी आदि भी तो देवी-देवता ही चाहिएँ।

पुनश्च, देवताओं के बारे में तो प्रसिद्ध है कि वे अपने पुण्य-कर्मों की प्रालब्ध भोगते हैं। तो स्पष्ट  है कि जब उन देवताओं ने और श्रीकृष्ण ने जन्म लिया होगा, तब वे अपनी प्रारब्ध भी तो साथ लाये होंगे। आज भी जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो लोग कहते हैं कि यह अपनी तकदीर साथ ले आया है।

तो क्या श्रीकृष्ण और जिन आठ देवी-देवताओं ने जन्म लिया, वे अपने दैवी भाग्य को साथ नहीं लाये होंगे? अवश्य ही लाये हेंगे। तो स्पष्ट है कि उनका जन्म सतयुग में हुआ होगा। क्योंकि देवी-देवताओं की प्रालब्ध के योग्य तो सतयुगी सृष्टि के सतोप्रधान पदार्थ तथा सतोप्रधान एवं धर्मनिष्ठ जन ही होते हैं।

श्रीकृष्ण निर्विवाद रूप से एक अत्यन्त महान् धार्मिक व्यक्ति भी थे और उन्हें राजनीतिक पदवी, प्रशासनिक कुशलता भी खूब प्राप्त थी, अत श्रीकृष्ण अपने चित्रों तथा मन्दिरों में सदैव प्रभामण्डल (प्रकाश के ताज) से सुशोभित तथा रत्न-जड़ित स्वर्णमुकुट से भी सुसज्जित दिखाई देते हैं।

सतयुग में ही धार्मिक और राजनैतिक सत्ता एक के हाथ में होती है, दो ताज उसी सत्ता के प्रतीक हैं। जिनके जन्म-दिन आज एक सार्वजनिक उत्सव बन गये हैं, वे कोई जन्म ही से पूज्य या महान् नहीं थे। उदाहरण के तौर पर विवेकानन्द, संन्यास के बाद ही महान् माने गये। महात्मा गाँधी प्रौढ़ अवस्था में ही एक राजनीतिक नेता अथवा एक सन्त के रूप में प्रसिद्ध हुए।

यही बात तुलसी, कबीर, दयानन्द,वर्द्धमान महावीर आदि-आदि के बारे में भी कही जा सकती है। परन्तु श्री कृष्ण की यह विशेषता है कि उनके जन्म के समय भी उनकी माता को विष्णु चतुर्भुज का साक्षात्कार हुआ और वे जन्म ही से पूज्य पदवी को प्राप्त थे। सतयुग में ही बच्चे जन्म से महान् होते थे। उसी दुनिया में जन्म-मृत्यु कष्टकारी नहीं थे। उसी युग में जन्म से पहले साक्षात्कार होते थे। ये सब बातें उनका सतयुग में होना सिद्ध करती हैं।

सभी जानते हैं कि मीराबाई ने श्रीकृष्ण को याद किया तो उससे काम विकार छूट गया। राणा के साथ उसका वासना भोग का सम्बन्ध रहा। सूरदास जी को भी सन्यास करने के बाद आँखों ने धोखा दिया, परन्तु जब वह श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति करने लगा तब उससे भी काम विकार छूट गया। काम विकार को छोड़ने के बाद ही मीराबाई और सूरदास जी को श्रीकृष्ण के दर्शन हुए।

तब क्या स्वयं श्रीकृष्ण में इतनी वासना थी कि 16000 रानियाँ रखीं और उन से एक लाख साठ हज़ार बच्चे पैदा किये? श्रीराम, जो 14 कला सम्पूर्ण थे, उनके केवल दो पुत्र थे और उन्होंने एक ही पत्नी की, तो क्या श्रीकृष्ण, जिन्हें कि 16 कला सम्पूर्ण माना जाता है, उन्होंने ऐसे काले कर्म किये होंगे? कदापि नहीं। श्रीकृष्ण को तो `मदन मोहन' कहा जाता है अर्थात् वे काम (मदन) के वश होने वाले नहीं थे बल्कि काम (मदन) उनके वश था।

श्रीकृष्ण का एक क्षण साक्षात्कार करने के लिए भी मनुष्य को बहुत साधना करनी पड़ती है और पवित्रता एवं नियमों का पालन करना पड़ता है, दृष्टि पवित्र करनी पड़ती है, तो क्या वह साकार रूप में जब इस पृथ्वी पर होंगे, उस समय के लोग अपवित्र दृष्टि और वृत्ति वाले होंगे? क्या कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि जैसे व्यक्ति उन्हें देख सकते थे और जबकि आज लोग साधना करने पर भी उन्हें देख नहीं सकते

ऐसा अन्याय कैसे हो सकता है? वास्तविकता तो यह है कि श्रीकृष्ण के जीवन-काल में कंस, जरासंध आदि थे ही नहीं बल्कि देवात्माएँ थीं जिन्होंने पूर्व जन्म में (कलियुग के अन्त में) स्वयं को ईश्वरीय ज्ञान और सहज राजयोग द्वारा पवित्र एवं सतोप्रधान बनाया था। जब कि मन्दिरों में लोग इसलिए जाते हैं कि उनकी दृष्टि-वृत्ति पवित्र  हो, तो सोचने की बात है कि जब साक्षात् श्रीकृष्ण इस पृथ्वी पर साकार होंगे तो क्या यह देश मन्दिर के समान पवित्र नहीं होगा और यहाँ के लोग पवित्र नहीं होंगे?

हम ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर घोषणा कर सकते हैं कि श्रीकृष्ण के समय यही भारत वैकुण्ठ अथवा देव-स्थान था, यह समस्त देश मन्दिर के समान पवित्र था और यहाँ के वासी देवी-देवता थे। इसलिए भारत के इतिहास में सतयुग को `देवयुग' या `कृतयुग' भी कहा जाता है।

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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