आज अगर किसी से पूछा जाये कि क्या आप अपने वर्तमान जीवन से पूर्णत सन्तुष्ट हैं? क्या आप बिल्कुल चिन्तामुक्त व तनाव रहित हैं? ज़्यादातर लोग इससे इंकार करेंगे। जो थोड़े व्यक्ति अपने जीवन से सन्तुष्ट होने की बात कहते हैं उनसे फिर अगर यह पूछा जाये कि क्या आपके जीवन में चिरस्थायी सुख-शान्ति है, तो यह सवाल उनको सोच में डाल देगा और वे चिरस्थायी सुख-शान्ति का अभाव स्वीकार करेंगे।
आज मनुष्य चिरस्थायी सुख-शान्ति नहीं बल्कि या तो रुपया खोज रहा है या यश, कीर्ति। रुपया चाहिए शरीर को भौतिक सुख-सुविधा के साधन प्राप्त करने के लिये और यश, कीर्ति चाहिए ईर्ष्या, द्वेष से कुण्ठित हुए अपने अहं की तुष्टि करने के लिये।
देखा जाये तो आज मनुष्य की सोच और करनी में भारी अन्तर है; इससे उसके विचारों की स्थिरता भंग हो जाती है और विचारों की अस्थिरता उसकी खुशी, उत्साह, उमंग और शारीरिक स्वास्थ्य एवं क्षमताओं में गिरावट ला देती है।
हमारी शारीरिक अवस्था अच्छी हो या खराब हो, निस्सन्देह, वह हमारी मानसिक अवस्था का ही प्रतिबिम्ब होती है। हमारे मन का शरीर पर और शरीर का मन पर पारस्परिक प्रभाव पिनियल ग्रंथि के माध्यम से पड़ता रहता है जिसे अन्तर क्रियावाद का सिद्धान्त कहा जाता है।
जीवन में चाहे सफलता प्राप्त करनी हो या सुख-शान्ति, हमें पहले मन व शरीर का आपस में सन्तुलन सही करना होगा। कहावत है कि ``धर्मार्थ कार्य स्वयं से शुरू होता है'', तो मन ही `स्वयं' है और शरीर से पहले मन का सुधरना ज़रूरी है, शरीर तो फिर खुद-ब-खुद सुधर जायेगा।
मान लीजिये एक युवक बीमा कम्पनी और बैंक, दोनों में रोज़गार हेतु आवेदन करता है। लिखित परीक्षा में वह दोनों जगह उत्तीर्ण हो जाता है परन्तु साक्षात्कार में वह बीमा कम्पनी में ही उत्तीर्ण हो पाता है, बैंक में नहीं। बीमा कम्पनी में अधिकारी के पद पर कार्य करते हुए उसका मन हमेशा बैंक की नौकरी में लगा रहता है और वहाँ चयनित न हो पाने पर अफसोस ज़ाहिर करता रहता है। तो शरीर से बीमा कार्यालय में एक अच्छे पद पर होते हुए भी वह मन से सुखी नहीं है।
अनादि काल से हमारी यह पृथ्वी दो प्रकार की विपदाओं से बचती हुई आ रही है। पहली विपदा है उल्का पिण्डों की बौछार। एक-एक उल्का पिण्ड अगर अपनी वास्तविक रचना में पृथ्वी से टकरा जाये तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाश कर सकता है परन्तु लगभग 200 कि.मी. चौड़ी वायुमण्डलीय प्रतिरोधक पट्टी में प्रवेश करते ही ये उल्का पिण्ड वायु-घर्षण से जल कर नष्ट हो जाते हैं।
दूसरी विपदा है अनेक ग्रहों, खास कर सूर्य से आ रही प्रकाश की किरणों में मौजूद अति नुकसानदायक रेडियोधर्मिक प्रकाश तरंगों की, जो वायुमण्डल की बाहरी ओज़ोन परत में प्रवेश करते ही परिष्कृत हो जाती हैं। अगर ऐसा न हो तो पृथ्वी पर जीव-जन्तु, पशु-पक्षी आदि का जीवन खतरे में पड़ जाता। यह कुदरत की अद्भुत व्यवस्था है जिसने हमारी पृथ्वी को आदि-अनादि काल से सुरक्षित किया हुआ है।
अब पुन आत्मा पर विचार करें। `जीव-आत्मा' जिस प्रकार की क्रियाएँ करती है वह कार्य-प्रणाली उसकी स्मृति में दर्ज होकर बाद में किये जाने वाले कार्य को भी उसी रीति से करने को प्रेरित करती है। यह क्रिया संस्कार बनाती है। अत संस्कार ग़लत ना बनें, इसके लिये बुद्धि रूपी सुरक्षा-चक्र आत्मा में समाविष्ट रहता है परन्तु बुद्धि का दुरुपयोग होने लगा। कुदरती व्यवस्था ने उल्का पिण्ड रूपी एटम बमों से तो पृथ्वी को बचा रखा है परन्तु मनुष्य ने हथियार एवं बम्ब बनाने शुरू कर दिये।
कुदरत ने ओज़ोन परत द्वारा विनाशकारी प्रकाश-किरणों से पृथ्वी की रक्षा कर रखी है परन्तु मनुष्यों ने एक-दूसरे के प्रति दुर्भाव व ऩफरत से भरी मानसिक तरंगों को फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। अत बुद्धि के स्तर पर कमी महसूस हुई। तो ज़रूरत इस बात की हुई कि अन्तकरण, अन्तरमन में कई जन्मों से धीरे-धीरे छा गये अंधकार को ज्ञान प्रकाश से दूर किया जाये। ``प्रकाश में शरीर की छाया भी साथ देती है अंधकार में तो छाया तक साथ नहीं देती।''
लेकिन अज्ञान का अंधेरा ऐसा गहन है कि `ज्ञान प्रकाश' क्या है, कहाँ है, किसके पास है, कैसे प्राप्त हो, इसका भी किसी मनुष्य को भान नहीं है। विकृत संस्कारों ने जो हा-हाकार मचवाया, उसने मनुष्यों को सुख-शान्ति के स्त्रोत (परमात्मा) की शरण लेने को प्रेरित किया परन्तु यहाँ भी अज्ञानता आड़े आ गई और मनुष्य भक्ति मार्ग में सुख-शान्ति की खोज करने लगा।
उसे इससे अल्पकाल की क्षणिक सुख-शान्ति की अनुभूति हुई। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे तलाश तो प्रकाश के स्त्रोत सूर्य (परमात्मा) की हो परन्तु अंधेरे में भटकते मनुष्य को चन्द्रमा दीख जाये और वह चन्द्रमा को ही सूर्य समझ ले, उसके प्रकाश में ही निहाल हो जाये। आखिर चन्द्रमा का प्रकाश भी है तो सूर्य का ही, भले ही यह शीतल हो। हमारे भीतर का अंधकार ही हमारे संसार को नर्क बनाता है।
तेतीस करोड़ देवी-देवताओं की भी पूजा, आराधना क्यों न कर ली जाये, यह अंधकार दूर नहीं हो सकता। सुख-शान्ति की खोज, अपने दिव्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किये बगैर पूरी नहीं हो सकती।
जब मन किसी कार्य में प्रवृत्त रहता है तभी वह कार्य हमारे `कर्म खाते' का हिस्सा बन पाता है जिसका फल हमें बाद में मिलता है। अगर शरीर से कोई कार्य तो किया गया हो लेकिन मन उसमें प्रवृत्त न हुआ हो तो वह कर्म नहीं कहलाता। ग्रामीण महिलायें गेहूँ पीसने का कार्य हाथ की चक्की से करती हैं जो शरीर के अंगों द्वारा स्वाभाविक रूप में अपने आप होता रहता है और ये महिलायें कार्य करते हुए आपस में इधर-उधर की बातों में खोई रहती हैं।
देखा जाये तो गेहूँ पीसने का कार्य तो हुआ लेकिन यह उनके कर्म खाते में दर्ज नहीं हो पाया क्योंकि कार्य में मन प्रवृत्त नहीं हुआ। हमारे द्वारा नित्य नहाने, भोजन करने जैसे अनेक कार्य स्वाभाविक रूप में होते हैं और ये कर्म नहीं कहलाते। मान लीजिये कोई व्यक्ति कत्ल के अपराध में अदालत में पेश किया जाता है। मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान यह बात सिद्ध हो जाती है कि अभियुक्त एक पागल व्यक्ति है, उसकी मानसिक दशा सही नहीं है।
अदालत इस अपराधी को दण्ड नहीं देती है। कानून की यह व्यवस्था विश्व के सभी देशों में लागू है। यानि बुरे या अच्छे कर्म की ज़िम्मेदारी आत्मा (मन) की जाती है न कि शरीर की। अगर अपराध होने के समय अभियुक्त (मन) कहीं अन्यत्र हो तो उसे सजा नहीं दी जा सकती। मनुष्य वह नहीं है जो उसके बाह्य कर्म हैं, मनुष्य वह है जो उसके भीतर विचार हैं।
अगर मनुष्य को सुख की तलाश है, आकांक्षा है, तो इसका मतलब ही है कि उसके पास अभी दुःख है। दुःख के मुख्यत दो कारण हैं - मोह और लोभ। इस सम्बन्ध में एक कहावत -``अतीत में जीना मोह है, भविष्य में जीना लोभ और वर्तमान में जीना है कर्मयोग'' सही स्थिति को स्पष्ट करती है। मनुष्य का मन, इस जन्म में किये गये कर्मों से हुई प्राप्ति से जुड़ा रहता है। वह जीता है वर्तमान में, आगे चलता है भविष्य में और देखता-सोचता रहता है अतीत में।
अगर कोई चले आगे की तरफ और देखे पीछे की तरफ तो ठोकर तो लगेगी ही। मनुष्य ने अतीत में जो धन-सम्पदा, मकान-दुकान आदि अर्जित किये हैं और परिवार के रूप में पत्नी, बच्चों आदि का जो संग प्राप्त किया है, उनमें उसका मोह लगा रहता है। यह मोह उसके दुःख का कारण बनता है। उसी प्रकार उसे लोभ रहता है कि कैसे आने वाले समय में ज़्यादा-से-ज़्यादा धन संचय किया जाये।
शरीर, जिसके द्वारा कर्म करके धन संचय होना है वह भविष्य में नहीं पहुँच सकता परन्तु मनुष्य मन द्वारा सुनहरे भविष्य में पहुँच जाता है। तो जब शरीर और मन अलग-अलग काल में मौजूद हों तो भला धन कहाँ से प्राप्त होगा, इसके लिये तो कर्मयोगी होना ज़रूरी है, जो तभी सम्भव है जब शरीर वर्तमान में कर्मण्य रहे और मन उस कर्म में टिका हुआ हो। जो मनुष्य भविष्य की चिन्ता करता है वह वर्तमान को ठुकराता है। कार्य का होना भविष्य में नहीं वर्तमान में ही सम्भव है।
लेकिन केवल कर्मयोगी होकर जीना ही सुख प्रदान नहीं कर सकता, ज़रूरत सुकर्म करने की भी है। यदि कार्य का चयन अन्तरात्मा के स्तर से हो तो सिर्फ सुकर्म ही होंगे। आत्मा की मौलिक आदि स्वरूप स्थिति को अन्तरात्मा कहते हैं। आत्मा में चेतनता होती है जबकि मनुष्य की अन्तरात्मा बिल्कुल सुषुप्त अवस्था में है, उस पर विकारों की परत चढ़ी हुई है।
फिर भी किसी भी ग़लत कार्य के होने के पहले, अन्तरात्मा एक बार मनुष्य को ग़लत करने से रोकती, टोकती ज़रूर है। उसके बाद भी अगर वह ग़लत कार्य करता है तो बाद में दो स्थितियों में से कोई एक बन सकती है। या तो वह मनुष्य अति बिगड़े संस्कारों की वजह से अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुनना ही बन्द कर देता है जिसके लिये लोग कह देते हैं कि यह बड़ा निष्ठुर है, इसकी तो अन्तरात्मा ही मर गई है या फिर उस मनुष्य को ग़लत किये जाने पर अफसोस होता है, जिसके लिये वह कहता है - मेरी अन्तरात्मा मुझे कचोट रही है।
इससे यह समझ में आता है कि अगर स्थायी सुख-शान्ति प्राप्त करनी है तो अपनी मौलिक आदि स्वरूप स्थिति यानि विकार मुक्त आत्मिक स्थिति को पुन प्राप्त किया जाना ज़रूरी है। और कोई भी उपाय है नहीं। इसके लिये विकारों से मुक्त होने का पुरुषार्थ करना ज़रूरी है। स्व-परिवर्तन, आत्मा या मन का परिवर्तन है, जो इतना सहज कार्य नहीं है। मन जैसी सूक्ष्म, चंचल व अति गतिशील शक्ति को नियंत्रित करने का कार्य भी खुद मन को ही करना है।
यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई अड़ियल घोड़ा, मदमस्त हाथी या कुसंस्कारी मनुष्य, अपना सुधार या इलाज खुद ही करे। मन का परिवर्तन संस्कारों के स्तर तक हो, तभी चिरस्थायी सुख-शान्ति प्राप्त हो सकती है। इसके लिये मन को परमात्मा शिव से जोड़ना ही एकमात्र उपाय है। तभी मन का परिवर्तन मन के द्वारा संभव हो सकता है।
मन का परमात्मा शिव से जुड़ने का तात्पर्य यह नहीं है कि योग में बैठ कर मात्र ज्योतिर्बिन्दु पर नज़र टिकी रहे और मन में कोई गति न रहे। यह तो आलस्य या निद्रा में ले जायेगा। मन को तो शिव बाबा के गुणों का, शक्तियों का, शिक्षाओं का स्मरण और गुणगान करना चाहिए तभी इनकी छाप मन पर पड़ती है। जिस प्रकार नज़र जिस वस्तु पर टिकती है उसकी तस्वीर हुबहू दृष्टिपटल पर बनती है परन्तु यह मन व बुद्धि पर निर्भर करता है कि वह किस भाव से तस्वीर को पहचानता है।
उसी प्रकार मन जब ज्ञान और विश्वास के आधार पर परमात्मा पर टिकता है तो उसके गुणों, शक्तियों व शिक्षाओं का प्रभाव मनुष्य के अन्तर्मन पर पड़ता है। यह उस पुरुषार्थी पर निर्भर करता है कि वह इनकी धारणा संस्कारों के स्तर पर कितना करता है। संस्कारों के परितर्वन से अन्तरात्मा अपने सात मौलिक गुणों को प्रकट कर देती है जिनमें सुख व शान्ति के गुण भी हैं। इससे मनुष्य के जीवन में स्थायी सुख-शान्ति आ जाती है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।