प्रेम – एक केन्द्रय गुण

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    सांसारिक प्रेम आरंभ में अधिक दिखाई देता है लेकिन बाद में धीरे-धीरे कम हेने लगता है। इसके विपरीत, ईश्वरीय प्रेम शुरू में थोड़ा दिखाई देता है लेकिन बाद में शनैः शनैः बढ़ता है और यही सच्चा प्रेम है। जैसे-जैसे सगे-संबंधियों से प्रेम के बदले में उपेक्षा, निराशा स्वार्थ भरा व्यवहार प्राप्त होता है, वैसे-वैसे प्रेम, वैराग्य में बदलने लगता है।

इसके साथ ही यदि प्रेम मौलिक-वृत्ति बन चुका है तो यह व्यक्ति से हटकर, `प्रकृति से प्रेम' का रूप ले लेता है। इससे अन्तर्मुखता, अनासक्त भाव रूहानियत जैसे श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होकर मन मति को परमात्मा की तरफ मोड़ देते हैं। फिर जो प्रेम परवान चढ़ता है तो बस चढ़ता ही जाता है, गहराता ही जाता है।

सार रूप में कहा जा सकता है कि `यदि संसार को जानो तो उससे वैराग्य हो जायेगा और परमात्मा को जानो, तो उससे प्रेम हो जायेगा' विनाशी (व्यक्ति) से किया गया प्रेम भी विनाशी होता है और अविनाशी (परमात्मा) से किया गया प्रेम भी अविनाशी होता है। सगे-संबंधियों या व्यक्तियों से मिलना प्रेम भाव से होना चाहिए और परमात्मा शिव का स्मरण प्रेम-विभोर हो कर करना चाहिए।

परंतु यदि संस्कारों में आध्यात्मिक अज्ञानता विकारों की प्रचुरता है तो `आत्मिक प्रेम' लुप्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति `भावुक' या `भाव-विभोर' तो हो सकता है परंतु `प्रेमी' या `प्रेम-विभोर' नहीं।
 
    मनुष्य में दो मौलिक वृत्तियाँ हैं प्रेम वृत्ति और कल्पना वृत्ति। प्रेम व्यक्ति से, जाति से, देश से, विश्व से होता हुआ `प्रभु प्रेम' तक पहुंच जाता है। ऐसा होता नहीं है कि प्रेम सीधे-सीधे प्रभु से हो और उससे पहले प्रभु की रचना से ना हो। प्रेम वृत्ति का मूल मंत्र है `मनमना भव' तथा योग और कल्पना वृत्ति का मूल मंत्र है `मध्याजी भव' कल्पना वृत्ति में व्यापकता है, प्रेम वृत्ति  में एकाग्रता है।

जो प्रेम ज्ञान सहित होता है, वही यथार्थ प्रेम होता है। ज्ञानयुक्त प्रेम में स्वार्थ और अहंकार नहीं रहता। अन्यथा जो स्वार्थी अहंकारी है वह `प्रेमी' कभी भी हो नहीं सकता। परंतु देखा यह जाता है कि प्रेम में डूब कर ज्ञान या विवेक का साथ छोड़ दिया जाता है।

जैसे ही ज्ञान का साथ छूटा, प्रेम, प्रेम रहकर या तो मोह बन जाता है या फिर काम-विकार। ज्ञान प्रेम दोनों ही आत्मा के स्वाभाविक मौलिक गुण हैं और इनमें से एक की अनुपस्थिति दूसरे की विकृति का कारण बनती है।

    ज्ञान प्रेम के अलावा आत्मा के अन्य पाँच स्वाभाविक मौलिक गुण हैं - पवित्रता, शांति, सुख, आनन्द शक्ति। `प्रेम' इन पाँचों गुणों से संबंध रखता है। जिसके मन, वचन कर्म में पवित्रता है, उसके व्यवहार, मुख-मुद्रा हाव-भाव से प्रेम छलकता दिखाई देगा। युगल रूप में जितने भी देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं, जैसे कि श्री लक्ष्मी-श्री नारायण, श्री सीता-श्री रामचंद्र आदि, उन सभी के मुख से पवित्रता भरा प्रेम स्पष्ट दिखाई देता है।

इससे फिर दर्शन कर रहे भक्त को अलौकिक शांति के गुण की अनुभूति होती है। वैसे भी देखा जाये तो जहाँ प्रेम नहीं है वहां शांति के प्रकंपन भी महसूस नहीं होते हैं। यदि कोई दूसरे से बनावटी प्रेम के साथ मिलता है तो अगले को उसके दिखावटी प्रेम का पता चल जाता है। प्रेम वह अद्भुत गुण है जो बिना शब्दों के आडंबर के, केवल दृष्टि से भी दूसरे तक प्रवाहित किया जा सकता है अर्थात् सच्चा प्रेम बिना बोले भी अपना प्रभाव छोड़ता है।

    आज सुख-शांति की प्राप्ति हेतु मनुष्य भटक रहे हैं और भिन्न-भिन्न धार्मिक उपायों का सहारा ले रहे हैं। कलियुग की तमोप्रधानता ने उनके जीवन में मनमुटाव, असंतुष्टता, नफरत, ईर्ष्या, घृणा आदि भर दिये हैं जिनके रहते हुए फिर `प्रेम' का गुण पनप नहीं पाता। जहाँ प्रेम नहीं है वहाँ फिर `सुख' भी नहीं सकता।

प्रेम वह झरना है जिसके प्रवाह में सारे अवगुण बह जाते हैं और अभावग्रस्त जीवन होते हुए भी मनुष्य सुख का अनुभव कर सकता है। सुख अर्थात् जीवन में संतुष्टता एवं प्रसन्नता। कुछ वर्ष पहले इंग्लैण्ड स्थित स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स संस्था ने संपूर्ण विश्व में एक सर्वेक्षण यह जानने के लिए कराया था कि किस देश के नागरिकों का जीवन अधिक संतुष्टता एवं प्रसन्नता से भरा है। इस सर्वेक्षण का परिणाम चौंकाने वाला था।

सर्वेक्षण में बंगला देश प्रथम स्थान पर था, भारत छठे स्थान पर था। इंग्लैण्ड का स्थान बयालिसवां था और अमेरिका अड़तालिसवें स्थान पर था। यह ध्यान देने की बात है कि बंगला देश के निवासियों में `प्रेम-भाव' अपेक्षाकृत अधिक है और अमेरिका जैसे सम्पन्न देश के निवासियों में प्रेम औपचारिक रूप का है, कि स्वाभाविक रूप का।

इससे वहाँ के लोग दूर से भले ही सुखी संपन्न लगते हों परंतु उनके जीवन में एक ऐसी मानसिक रिक्तता या बैचेनी है जो आज उन्हें अध्यात्म की ओर मोड़ रही है।

प्रेम का आत्मा के `आनन्द' के गुण से भी सीधा संबंध है। प्रेम दूसरों से किया जाता है जबकि आनन्द खुद की श्रेष्ठ मानसिक अवस्था से प्राप्त अनुभूति है जिसमें दूसरे या अन्य व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं। हाँ, यह बात अलग है कि दूसरों से इस जीवन में अब तक किया गया लेन-देन आनन्द की स्थिति की प्राप्ति पर प्रभाव डाल सकता है। प्रेम आध्या-त्मिक जीवन या सफल जीवन का यदि पहला कदम है तो आनन्द है उसका अंतिम कदम अर्थात् आनन्द की प्राप्ति से पहले `प्रेम' का संस्कार बना लेना आवश्यक है। प्रेम का केंद्रबिंदु अविनाशी निराकार परमात्मा शिव को बना लेना आनन्द की अवस्था को प्राप्त करने का सहज उपाय है। प्रेम के ऐसे केंद्रबिंदु से ज़ुड कर फिर जो मानसिक अवस्था बनती है, वह अन्य देहधारियों से अव्यभिचारी सच्चा आत्मिक प्रेम पैदा करती है।
    प्रेम का आत्मा के सातवें गुण `शक्ति' से भी निकट का संबंध है। वैसे तो आध्यात्मिक पुरुषार्थ से आत्मा अष्ट शक्तियों को प्राप्त करती है परंतु `प्रेम' खुद में भी एक शक्ति है।

`प्रेम की शक्ति' से विरोधियों का दिल जीतने के किस्से इतिहास में भरे पड़े हैं। प्रेम वह शक्ति है जिसके सामने बड़े-बड़े योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्र धरे रह जाते हैं, क्रोधी भी शांत हो जाते हैं और बिगड़े हुए कुसंस्कारी मनुष्य भी अपने विकृत संस्कारों का प्रदर्शन नहीं कर पाते। मुगलकाल में कई युद्ध केवल इसलिए टल गये क्योंकि दूसरे पक्ष की तरफ से प्रेम शांति की श्वेत पताका या प्रेम की शक्ति से भरी राखी भेज दी गई थी।

    यह पाया गया है कि जो मनुष्य प्रेम का संस्कार रखता है उसका शारीरिक स्वास्थ्य अपेक्षाकृत अधिक अच्छा रहता है। उसके शरीर के सभी अंग कम शक्ति (ऊर्जा) से सामान्य क्रियाएं करते हैं अर्थात् ऊर्जा का अपव्यय नहीं होता है। उसे अच्छी नींद आती है और उसका पाचन तंत्र स्वस्थ रहता है।

जीवन रूपी यात्रा का असली मज़ा ही तब है जब शरीर रूपी गाड़ी और आत्मा रूपी ड्राइवर दुरुस्त हों और यह तब संभव है जब प्रेम रूपी पैट्रोल मिलावटी हो और शुभ, श्रेष्ठ संकल्पों की सड़क पर विघ्न के स्पीड ब्रेकर विकारों के गड्ढे हों।

प्रेम एक ऐसा गुण है जो कम या ज़्यादा हर प्राणी में ज़रूर होता है। मनुष्यों में व्याप्त प्रेम का विकृत होना ही विभिन्न विकारों को जन्म देता है। जैसे ही स्वाभाविक आत्मिक प्रेम के स्थान पर शारीरिक प्रेम जाता है, यह काम विकार में बदलने लगता है।

कोई भी संबंध कायम हो पाता है स्नेह, श्रद्धा, मित्रता या औपचारिक आत्मीयता के आधार से, जिनमें थोड़ा बहुत प्रेम-भाव छिपा होता है। ऐसे संबंध में घनिष्टता के आते ही अपेक्षायें जागृत हो जाती हैं, यदि पूरी नहीं होतीं हैं तो क्रोध पैदा होता है।

    लोभ की पूर्ति हेतु प्रेम का नकली मुखौटा तो लगाया जा सकता है परंतु मुख और मुखौटे में अंतर तो रहेगा ही। मोह प्रेम में काफी महीन अंतर है। मोह निकट के व्यक्ति विशेष के प्रति ही होता है। मोह ही एकमात्र ऐसा विकार है जिससे प्रेम की कुछ हद तक निकटता है, अत यह ज्यादा खतरनाक विकार है।

अहंकारी मनुष्य में प्रेम का अभाव ऐसे ही होता है जैसे ताड़ के वृक्ष में छाया देने वाली शाखाओं का अभाव। वह धरती (समाज, परिवार) से मिल रही पालना प्रेम से जुड़ा होकर भी इनसे जुदा रहता है। अहंकारी मनुष्य का आंतरिक प्रेम का गुण दूसरों के प्रति होकर स्वयं के पद, हैसियत, रुतबे आदि से हो जाता है जो फिर अहंकार के रूप में प्रदर्शित होता है।

    आत्मा के घटक हैं बुद्धि, मन संस्कार। आत्मा के सात मुख्य गुणों में से ज्ञान, बुद्धि में ठहरता है, पवित्रता मन की होती है और शांति संस्कारों की निर्मलता से प्राप्त होती है। आत्मा के सात गुणों में `प्रेम' केंद्रीय गुण है। इसके एक तरफ तीन गुण हैं ज्ञान, पवित्रता शांति और दूसरी तरफ तीन गुण हैं सुख, आनन्द शक्ति। प्रेम का गुण परमात्मा से जोड़ता है।

जितना ज़्यादा परमात्मा से प्रेम होगा उतने ज्यादा बाकी के छह गुण अपनी आदि मौलिक अवस्था के प्राप्त करेंगे। परमात्मा की स्तुति-वंदना का आधार है प्रेम। इससे भक्ति फल-दायक बनती है और फलस्वरूप `ज्ञान' प्राप्त होता है। इसके बाद ही बाकी के अन्य पांच गुण उजागर होते जाते हैं। इस प्रकार प्रेम की महत्ता अपार है, अपरम्पार है।

    प्रेम जैसे मीठे आत्मिक गुण की आड़ में आज हर प्रकार के व्यवसाय चल रहे हैं। एयर होस्टेस, पांच सितारा होटल के कर्मचारियों आदि को तो विशेष प्रशिक्षण ही इस बात का दिया जाता है कि कैसे ग्राहकों को प्रेमभाव से लुभाया जाये ताकि वे पुन आने को प्रेरित हों।

क्या ही अच्छा हो कि समाज में ऐसी आध्यात्मिक संस्थाएं आगे आएं जो आत्मा के स्वाभाविक प्रेम के गुण को जागृत करने का प्रशिक्षण दें। इस दिशा में प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय द्वारा निशुल्क कराये जा रहे योग शिविर में आगंतुकों पर विशेष प्रभाव पड़ रहा है। लगभग सभी प्रशिक्षणार्थियों ने अपने अनुभव में इस बात का विशेष जिक्र किया है कि हमें योग शिविर में प्रेम शांति की अनुभूति हुई है।

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज बनता ही है आपसी प्रेम-भाव भाई-चारे से, जिसमें हर किसी की मौलिक आवश्यकताएँ दूसरों के सहयोग से पूर्ण होती हैं। कोई किसी पर अहसान या उपकार नहीं कर रहा होता, अन्यथा समानता का अधिकार, जो कि `मानवता' का सार है, लुप्त हो जाये। परंतु यह सब बातें अब मात्र `किताबी ज्ञान' होकर रह गई हैं और समाज में `खिताबी शान' की होड़ मची हुई है। ऐसा नहीं है कि समाज के गिरते ग्राफ का भान मनुष्यों को ना हो और इसकी रोकथाम हेतु कुछ भी ना किया जा रहा हो।

आज चारों ओर सत्संगों की धूम मची हुई है। `आस्था',`संस्कार' `साधना' जैसे टी.वी.चैनलों पर बड़े अच्छे-अच्छे प्रवचन प्रसारित किये जा रहे हैं। यह सभी कार्यक्रम आपसी प्रेम भाई-चारे की भावना से ओत-प्रोत होते हैं और बड़ी संख्या में सामने बैठे दर्शक भी उस समय प्रेम-भाव विभोर होते रहते हैं परंतु फिर भी इन कार्यक्रमों का लाभ दर्शकों को नहीं मिल पा रहा है। विलुप्त होते जा रहे वास्तविक (आत्मिक) प्रेम की पुन प्रवेशता उनके जीवन में नहीं हो पा रही है। इसके कई कारण हैं जिनमें प्रमुख हैं -

1. सत्संगों या कार्यक्रमों के प्रति `मन-बहलाव' की भावना जो फिर `मन-परिवर्तन' के प्रति गंभीरता नहीं आने देती।
2. नीरस तनावग्रस्त जीवन में कुछ समय का बदलाव, रोचकता या मानसिक विश्राम का मिलना। जैसे कि परिवार में भोजन की रोचकता बनाये रखने के लिए बदल-बदल कर सब्जियाँ बनाई जाती हैं। चिरस्थायी मानसिक प्रफुल्लता स्नेह भाव हेतु ना तो मनुष्य विचार ही कर रहे हैं और ना ही सार्थक प्रयास। वे तो अल्पकाल की या क्षणिक प्रफुल्लता, स्नेह या प्रेम से ही संतुष्ट हैं।
3. वर्तमान सामाजिक परिवेश के प्रति मानसिक स्वीकृति अर्थात् जैसा चल रहा है, वैसा ही चलता रहेगा, यह बदल नहीं सकता। परोक्ष में एक प्रकार इस सत्य को नकारना कि `यह बदल  सकता है।'
4. आध्यात्मिक अज्ञानता। प्रेम चूंकि आत्मिक गुण है अत इसे तब ही पुन जागृत किया जा सकता है जब आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो। वर्तमान समय में इसे `सहज राजयोग' की पढ़ाई से प्राप्त किया जा सकता है।
5. गंदी आदतें की कठोरता।
6. आपसी विश्वास सहनशीलता का भौतिक लाभ पर आधारित होना।
7. बढ़ती जनसंख्या एवं घटते संसाधनों से जीवन-यापन में रही प्रतिस्पर्धा से बढ़ता तनाव।

    `प्रेम' की स्थापना ही विश्व-शांति की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। परंतु आज का समाज भौतिकवाद (materialism) पर आधारित है और प्रेम का क्षेत्र अध्यात्मवाद (spiritualism) का है, अत सफलता तभी मिल सकती है जब भौतिकवादी उपायों को छोड़कर अध्यात्मवादी उपायों को अपनाया जाये। इसके लिए आवश्यक है कि जितना भौतिकवाद को समझा गया है, इसे आगे बढ़ाया गया है, उतना ही अध्यात्मवाद को भी समझा जाये और आम व्यक्ति के लिए  इसकी महत्ता `आवश्यक' घोषित कर दी जाये।

    यदि मनुष्य बुरे समय में एक-दूसरे से वास्ता रखकर आपस में एक-दूसरे का कल्याण करें, जो कि प्रेम-वृत्ति से ही संभव है, तो फिर बुरे समय का दौर समाप्त होकर अच्छा समय ही जायेगा। इससे फिर एक नई चेतना, नये समाज, नये युग की शुरूआत हो सकती है। बस ज़रूरत है एक पुराने गाने की दो लाइनों को साकार करने की, जो हैं `ज्योति से ज्योति जलाते चलो, प्रेम की गंगा बहाते चलो।'
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

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