चिन्ता का कारण और निवारण

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    आज दुनिया की मनुष्यात्माओं के चेहरे पर खिंचाव और तनाव दिखाई देता है। ऐसा लगता है कि इनकी सारी खुशियों को चिन्ताओं ने छीन लिया है। इन चिंताओं ने तो मनुष्य की चैन की नींद तक को छीन लिया है। किसी को खाने की चिंता है तो किसी को खाकर पचाने की चिंता, किसी को बच्चों की चिंता है तो किसी को बूढ़े मां-बाप की चिंता, किसी को व्यापार में नफा-नुकसान की चिंता है तो किसी को असाध्य बीमारी की चिंता, किसी को बच्चों के बिगड़ने की चिंता है तो किसी को बच्चों की शादी की चिंता, किसी को चिंता अपनों ने दे दी है तो किसी को पड़ोसियों ने।

आखिरकार क्यों जल रहा है आज का इन्सान इस तरह की चिंताओं में? अगर कुछ चिंताशील व्यक्तियों का विश्लेषण किया जाय तो यही तथ्य सामने आते हैं कि सत्यज्ञान की कमी, आत्मविश्वास की कमी, व्यर्थ चिंतन और अनुमान ने मनुष्यों को चिंता की चिता में धकेल रखा है। मनुष्यों में व्याप्त पाँच विकारों ने भी उनके मन और बुद्धि को बहुत ही कमजोर बना दिया है। मनुष्य छोटी-छोटी बातों में हलचल में जाता है कि कल क्या होगा? लोग क्या कहेंगे? कहीं ऐसा हो जाए?

देह अभिमान से ही मनुष्यों में पाँचों विकार - काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार पैदा होते हैं। जैसे (1) देह के आधार पर ही मनुष्य स्त्रीपन या पुरुषपन के भान में आकर काम विकार (SEX) के वशीभूत होता है और अपने ओज और तेज को खोकर शरीर को दुर्बल और कमजोर बना देता है, मृत्यु और बुढ़ापे की ओर बढ़ना शुरू कर देता है, अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक बीमारियों से भी ग्रसित हो जाता है। फिर भी काम विकार (SEX) के परिणामस्वरूप जो औलाद पैदा करता है उसी के दुःख में दुःखी रहने लगता है।

(2) काम विकार (SEX) के परिणामस्वरूप मनुष्य अपना विवेक और सहनशीलता खोकर क्रोधी स्वभाव का बन जाता है।

(3) फिर इन औलादों में मोह जगाकर रात-दिन इनके लिए धन कमाने और मकान बनाने में लगा रहता है। देह के आधार पर ही वह जिसे अपनी स्त्री, पुत्र पौत्र मानता है  उनको खुश रखने अथवा उनकी इच्छाओं को पूरी करने के लिए रात-दिन अधिक-से-अधिक धन कमाने का प्रयत्न भी करता है। थोड़ा धन प्राप्त करके वह अधिक धन का

(4) लोभ भी करता है। इस प्रकार मनुष्य जब औलाद पैदा कर लेता है, धन कमा लेता है, घर बना लेता है, कुछ नर-नारियों से सम्बन्ध बना लेता है तो उसमें पांचवां विकार

(5) अहंकार जन्म ले लेता है कि मैं एक सेठ, चार बच्चें का बाप, एक उँढचे खानदान का व्यक्ति हूँ। इस तरह अहंकारवश वह अशान्ति को प्राप्त होता है। फिर वह शान्ति की खोज में मन्दिर-मस्जिद में भटकना शुरू कर देता है।
    
शान्ति तो शान्ति का सागर परमपिता परमात्मा ही प्रदान कर सकता है। इसे धन, दौलत, भोग-विलास के साधनों, सांसारिक ताकतों, यश और वैभव में खोजना व्यर्थ है। ईसा मसीह ने भी बताया कि जब एक इन्सान दूसरे इन्सान को भाई-बहन के रूप में स्वीकार करेगा, बुराई के बदले भलाई करेगा, शत्रु को क्षमा करेगा तभी जाकर इस संसार में सभी मनुष्यों को जीने का समान अवसर मिलेगा और सभी इन्सान सदा के लिए सुखी होंगे।

    महावीर स्वामी ने जन्म, जरा, रोग और मृत्यु को महादुःख कहा था। और दुःख भी होते हैं, जैसे - मोहजनित दुःख, अभावजनित दुःख, भयजनित दुःख, आवेशजनित दुःख और संयोग-वियोगजनित दुःख। मोटे रूप में दुःख के दो ही कारण हैं, आन्तरिक और बाहरी। आन्तरिक कारणों में है आसक्ति, अज्ञान, असीमित इच्छायें, आवेश, मिथ्या दृष्टिकोण, नकारात्मक सोच, पदार्थों के प्रति लगाव, विकारों की अधिकता, चिन्ता, विषाद और असफलता।

इसी तरह बाहरी कारण हैं अशिक्षा, असन्तुलित जीवन शैली, बीमारी, बेरोजगारी, गरीबी, गलतफहमियाँ , दायित्व की अधिकता और समझ की कमी। किसी के आने से आसक्ति हो, लगाव हो और जाने पर व्यथा हो, दुःख हो तो इसे भी दुःख ही कहेंगे। आध्यात्मिक व्यक्ति वह नहीं होता जो दुःख में दुःख और सुख में सुख का अनुभव करे। उसकी सोच तो सदा सम होती है।

दुःख हो अथवा सुख, वह सदा सुख ही अनुभव करता है। निष्कर्ष यही है कि सुख और दुःख कहीं बाहर नहीं, मनुष्य की सोच में हैं। जिसकी दृष्टि सुख की खोज वाली होती है वह दुःख में भी सुख ढूंढ ही लेता है। जैसे युधिष्ठर की दृष्टि में द्वारिका में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसमें बुराई हो तथा दुर्योधन की दृष्टि में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसमें अच्छाई हो। तो फिर आप सभी समझ गये होंगे कि हमारी दृष्टि कैसी होनी चाहिए? हमारी दृष्टि सुख की खोज वाली होनी चाहिए।
 
    इस संसार में सदा गाली के बदले गाली और गीत के बदले गीत ही मिलते हैं। अगर हम किसी के साथ बुरा आचरण करते हैं, छल-प्रपन्च करते हैं तो ये सब लौटकर हमारे पास ही आते हैं। आज तो  आप और हम बहुत खुश हो जाते हैं दूध में पानी मिलाकर कि हमने दुनिया को खूब ठगा लेकिन वही मिलावट लौटती है हमारे पास हमारे नन्हें लाडले बच्चे के बीमार पड़ने पर, इन्जेक्शन में मिलावट के रूप में।

तब हम दुःखी होते हैं और सोचते हैं, काश! मैं पहले सम्भल जाता लेकिन तब तक बहुत देर हो गई होती है। कहने का मतलब है कि वही सब कुछ लौटकर आता है हमारे पास जो हमने इस संसार को दिया है। अगर हम चाहते हैं कि मुझे इस संसार से सदा सुख, शान्ति, आनन्द, प्रेम और सौम्यता मिले तो पहले हम दें, देने से स्वत सब कुछ मिलेगा।

    ईश्वर पिता कहते हैं, मैं सागर, तुम आत्मा रूपी नदियों में इन सद्गुणों की कभी कमी नहीं आने दूंगा, लुटाओ इन गुणों के खजानों को इस संसार में। खूब सींचो इस जगत को इन गुणों से, भरपूर करो। तो फिर, एक दिन यह संसार स्वर्ग बन जायेगा। आप और हम बन जायेंगे इस स्वर्ग के मालिक।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।


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