शरीर संरचना में अनिवार्य पांचों तत्वों में से अग्नि तत्व बड़ा भयंकर प्रतीत होता है। इस शब्द की भयानकता के कारण ही इसे प्रतीक के रूप में कई बातों में प्रयुक्त किया जाता है। अनेक प्रकार की अग्नियों अथवा अग्निकाण्डों से भी हम परिचित हैं। कुछ वर्ष पहले इराक के तेल के कुओं में आग लगाई गई थी। जंगलों में भी जहाँ-तहाँ आग सुलग कर फैल जाती है।
सुदूर क्षेत्रों में कई ज्वालामुखी भी आग उगलते रहते हैं। पेट की आग (भूख) भी बड़ी भयंकर होती है, परन्तु इन सभी से भयंकर और विनाशकारी है मानव के मन में धधकने वाली और स्वयं के साथ-साथ अन्य अनेकों की भी विनाशलीला रचाने वाली बदले की अग्नि।
जब मनुष्य देखता है कि अमुक आदमी मेरी कामनापूर्ति में बाधक बन रहा है तो वह उससे बदला लेने की तिकड़म भिड़ाने लगता है। मानव इतिहास में आज तक इस आग द्वारा हुई तबाहियों की गिनती करने लगें तो कई संगणक भी कम पड़ जाएँगे।
जिस प्रकार दो समान चीजों की आपसी रगड़ से (जैसे पत्थर, फास्फोरस, बांस आदि) आग उत्पन्न की जाती है उसी प्रकार बदले की आग भी, स्वयं को देह समझने और दूसरों को देह-दृष्टि से देखने से उत्पन्न संकल्पों की आपसी टकराहट से धधकती है। एक बार भड़कने के बाद यह अपना काला रूप दिखा देती है और जान-माल के रूप में बहुत कुछ अपनी भेंट चढ़ा लेती है।
मानव आत्मा अणु से भी सूक्ष्म है। अणु के अन्दर होने वाले विस्फोट के आधार पर ही भयानक अणु-परमाणु बम बने हैं। अणु सदृश आत्मा के भीतर भी जब काम, क्रोध, लालसा, तृष्णा, स्वार्थ आदि कुवृत्तियों के वश संकल्पों का विस्फोट होता है तो वह भयंकर काण्ड का रूप ले लेता है। इस आग के वश हुआ व्यक्ति, सही-गलत का विवेक खो देता है।
शास्त्र प्रसिद्ध रावण के सिर पर विवेकहीनता की निशानी गधे का सिर दिखाया गया है, तो वह विवेकहीन हुआ व्यक्ति भी घटिया, गिरी हुई, अमर्यादित, अन्यायकारी, असत्य और दुःखदायी योजनाओं की मिट्टी में ल्sढटने लगता है और दूसरों पर अहंकार भरी दुलत्तियाँ चलाने लगता है। फिर चाहे उनसे कोई कितना भी हताहत क्यों न हो?
इतिहास उठा कर देखें तो आज तक जितने भी युद्ध हुए वे सब के सब किसी न किसी प्रकार से बदले की कुचेष्टाओं के ही परिणाम रहे। भारत का सुप्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर भी, बदले की आग में जलते पुजारी के विश्वासघात के कारण ही लूटा गया। द्वितीय विश्वयुद्ध भी जर्मनी के महत्त्वाकांक्षी शासक हिटलर की फ्रांस, ब्रिटेन तथा अन्य मित्र देशों से बदला लेने की चाह का ही परिणाम था।
वर्तमान समय में लगभग सभी देशों में प्रजातत्र लागू हो चुका है। इस प्रणाली में अनेक राजनैतिक दलों की इसलिए मान्यता है कि यदि एक दल नीतिगत बातों की अवहेलना करे तो दूसरे उसकी इस अपील का विरोध करें। परन्तु आज हम देखते हैं कि राजनीति में भी बदले की नीति हावी है।
संविधान का शासन न होकर बदले का ही काला शासन काम कर रहा है। सत्ता के उच्च स्तर पर पहुँचा व्यक्ति अपनी सत्ता की शक्ति, जनसहयोग की शक्ति, प्रभाव की शक्ति, धन की शक्ति को इस आग में झोंक देता है और लाखों लोग उसकी लपटों में पुलस जाते हैं।
अपने पापकर्म के कारण नाक कटा लेने वाली रामायण प्रसिद्ध सूर्पनखा के अपमान का बदला लेने के लिए रावण ने सीता-हरण किया। इससे उस का और उसकी सोने की लंका का नारकीय अन्त हुआ। परन्तु उसे जानते हुए भी देशवासी उससे शिक्षा नहीं ले रहे हैं। रावण की मूढ़ता से खाक में बदली लंका की तरह, सत्ताधीशों के आपसी बदले से इस भारत को भी लंका वाले दिन देखने पड़ें तो क्या आश्चर्य है?
जिन भी लोगों का जीवन सार्वजनिक है, उनके कर्मों का सुपरिणाम या कुपरिणाम एक गुणा न होकर कई गुणा हो जाता है, क्योंकि एक व्यक्ति यदि अपने परिवार के 4 या 6 सदस्यों के सामने अन्याय और अनीति की बातें करे तो वह केवल उन 6 के कर्मों में ही हिस्सेदार बनेगा परन्तु यदि लाखों-करोड़ों के प्रतिनिधि, अन्याय और बदले की आग भड़काते हैं तो कुकर्मों के परिणामों में, आग भड़काने वालों की भी थोड़ी-थोड़ी भागीदारी हो जाती है।
अत कर्म करने से पहले अपने अन्दर की आवाज सुन लेनी चाहिए। नहीं तो `पहले सोचो, फिर करो,' का बहुप्रचलित वाक्य ही सामने ले आना चाहिए। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है (Every action has its opposite and equal reaction)
-- कर्म के इस वैज्ञानिक तथ्य को दोहरा लेना चाहिए। सुखदाई फल के लिए परमात्मा पिता (ईश्वर) द्वारा दिए गए इस महामत्र को तो अवश्य स्मरण कर लेना चाहिए कि - ``जैसे कर्म मैं करूँगा, मुझे देख दूसरे करेंगे।''
विज्ञान ने सभी प्रकार के अग्निकाण्डों पर काबू पाने के लिए दमकल आदि साधन दिए हैं। परन्तु बदले की आग के लिए कोई भी अग्निशमन यत्र उसके पास नहीं है। हाँ, साइलेन्स अर्थात् योगशक्ति और सहनशीलता के द्वारा इस पर काबू पाया जा सकता है।
इस योगशक्ति का प्रशिक्षण प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय के प्रत्येक सेवाकेन्द्र पर निशुल्क सिखाया जाता है। अगर आपको भी सीखना हो तो आप अपने शहर के अन्दर ही ब्रह्माकुमारीज़ आश्रम पर सहर्ष पधार कर, इसका निशुल्क लाभ ले सकते हैं।
सहनशीलता मनुष्यात्मा की निज़ी सम्पत्ति है। अपने अन्दर दृढ़तापूर्वक संकल्प करें कि - `मुझे सहन करना है' और आपके इस दृढ़ता की शक्ति से सहन करने की शक्ति तुरन्त ही आज्ञाकारी बन आपके सामने हाजिर हो जाती है अथवा यूँ कहें कि सहन करने का अर्थ माना परमात्मा पिता का आज्ञाकारी बनना है।
दो के आपसी टकराव में एक व्यक्ति यदि चुप्पी, क्षमा और सुनने की शक्ति को धारण कर बात को बढ़ने से रोक लेता है तो वह भगवान से आज्ञाकारी बनने का तिलक ग्रहण कर लेता है क्योंकि भक्ति में जहाँ-तहाँ भगसान के महावाक्यों का वर्णन है, वहाँ भगवान झुकने और सहन करने की आज्ञा देते हैं, ढ़ीठ बनने और अकड़ने की नहीं। देखा जाये तो झुकना भी एक प्रकार से अपने को बहुत-सी बलाओं से मुक्त होने का साधन है।
जैसे स्थूल बोझ को उतारने के लिए थोड़ा झुकना पड़ता है, इसी प्रकार दिल-दिमाग पर रखे भार भी झुकने से उतर जाते हैं और व्यक्ति आन्तरिक स्थिति में बहुत ही हल्का, ऊर्जावान बन जाता है।
हर व्यक्ति जीवन में मान-सम्मान चाहता है। परन्तु यह मान, उद्दण्ड बन कर नहीं पाया जा सकता, मन-वचन-कर्म में रस्सी की तरह कुटिलता, पाखण्ड, षडयत्र, धोखे, चालबाजी की बटें लगा कर नहीं वरन् सरलता की धारणा से पाया जा सकता है।
सहन करना अर्थात् स्वयं में ईश्वर पिता की दिव्य शक्ति भरना है। `जितनी सहन शक्ति, उतनी ईश्वर पिता की शक्ति की प्राप्ति' स्वत होती है। इसलिए `जितनी सहनशक्ति, उतनी कार्य में उन्नति' यह अनुभूत सत्य है।
सहनशक्ति सर्व विघ्नों से बचने का कवच है, इस कवच को न पहनने से नाजुक बन जाते हैं फिर `मुझे बदलना है' यह पाठ कच्चा हो जाता है, `दूसरा बदले' यह भावना नाजुक बना देती है। जैसे युद्ध के मैदान में बिना कवच पहने योद्धा पर कहीं से भी, कभी भी जानलेवा वार हो सकता है, इसी प्रकार सहनशीलता के कवच के अभाव में कर्मक्षेत्र पर उपस्थित व्यक्ति को, आसुरी वृत्तियों के साथ युद्ध में हार का मुख देखना पड़ सकता है।
ऐसा नहीं है कि पहले मुश्किलें, परेशानी नहीं थी, ऐसा नहीं है कि पहले तंग, परेशान करने वाले लोग नहीं थे, सब कुछ थे, लेकिन उस समय व्यक्ति के अन्दर सहन शक्ति थी, आपसी मेल-मिलाप था, साधन इतने नहीं थे, जितने आज हैं, लेकिन संतोष था, एक-दूसरे के प्रति प्यार अथवा रिगॉर्ड था।
लेकिन आज इस सहूलियत की भरी दुनिया में मनुष्य ने अपने आपको सुख-सुविधाओं से अपने चारों ओर इतना घेराव डाल दिया है कि कहीं भी मुश्किलों के समय सहन करने के लिए स्थान ही नहीं छोड़ा।
जरा सी तकलीफ क्या हुई, किसी ने जरा सा कुछ कह दिया, कोई सुख-सुविधा ऊपर-नीचे हो गई, रिश्तेदारी-नातेदारी में कुछ अनबन हो गई फिर देखो मनुष्य चिल्लाना-चीखना चालू कर देता है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए अपनी सारी हदों को पार कर देता है और जब हदें पार हो जाती हैं तो कितने ही ऐसे अपराध व्यक्ति से हो जाते हैं कि व्यक्ति उसकी कल्पना भी नहीं कर पाता कि मेरे से ऐसा भी कुछ हो सकता है। परन्तु उसके पश्चात् क्या? सिर्फ और सिर्फ पछतावा, पश्चाताप के आँसू।
इसलिए आज आवश्यकता है - एक-दूसरे को समझना, एक-दूसरे के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना और जहाँ किसी कारण से सहन करने की नौबत आ जाए तो सहर्ष ही परमात्मा पिता को सामने रखते हुए, उनकी आज्ञा समझ, उस समय आप सहन कर लो तो शायद हो सकता है कि आगे आने वाली परेशानियों के बवण्डर से स्वयं को और अन्य को बचा सकने में सफल हो।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।