दुनिया-ए-समन्दर में ज़ियारतगाह (तीर्थ स्थल) एक ऐसा पाक स्थान है, जहाँ जाते ही हमारे तमाम नापाक-इरादे (आसुरी स्वभाव) स्वत ही लुप्त होने लगते हैं और दिल-दिमाग में नेक-इरादों (शुद्ध विचारों) का झरना बहने लगता है। इससे हमारा सिर स्वत ही अल्-ग़ाफीर अल्लाह (पतित पावन परमात्मा) की बंदगी के लिए झुक जाता है।
कहा जाता है कि - ``नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज को गई'' तो भी अल्लाह तआला ने उसके तमाम गुनाहों को म़ाफ कर, नई जिन्दगी बख्श दी। अल्लाह, निहायत रहमदिल और तमाम रूहों पर बेहद मेहरबान है।
इस्लाम धर्म में हज का अहम दर्जा (विशेष महत्त्व) है। हज करने से अल्लाह तआला इंसान के तमाम गुनाहों को माफ कर देता है तथा इंसान नेक-परस्त (सत्यवादी) बन जाता है। मुस्लिमों में ऐसी मान्यता है। इसलिए तमाम मुस्लिमों की एक नेक-ख्वाहिश (शुभ इच्छा) होती है कि अपनी जिन्दगी में कम-से-कम एक मरतबा मक्का-शऱीफ का हज ज़रूर करें।
हज के लिए साल में एक मरतबा तमाम मुल्कों के मुस्लिम लम्बे सफर तय कर ईद-उल-अज़हा के दिन मक्का शरीफ में जमा होते हैं और इस्लाम के एक अहम-फरज़ (विशेष रस्म) को अदा करते हैं।
आज से लगभग 1400 वर्ष पहले हज के मौके पर, ईद के दिन, हजरत मुहम्मद साहब अपनी ऊँटनी पर सवार होकर अऱाफात पर्वत पर तशरीफ लाये और अपना वह खुतबा (संदेश) इरशाद फरमाया जिसे इस्लामी इतिहास में ``खुतबा-ए-हुज्जतुल विदा'' (अव्यक्त ईश्वरीय संदेश) के नाम से याद किया जाता है।
हज़रत मुहम्मद ने अल्लाह तआला (ईश्वर) को हम्द व सना करते हुए खुतबा की यूँ शुरूआत की - ``अल्लाह के सिवाय दूसरा और कोई पूज्य नहीं है। वह सर्वशक्तिवान है, वही पालनहार है। कभी भी शैतान की बातों में मत आना, सदा अपने रब (पालनहार) की इबादत (पूजा) करना, पाँच वक्त की नमाज़ अदा करना। महीने भर के रोज़ा (व्रत) रखो और अपने परवरदिगार (परमात्मा) के घर (मक्का-मदीना) का हज करो तो अपने रब (पालनहार) के जन्नत में दाखिल हो जाओगे।''
हज़रत मुहम्मद ने अपनी अँगुली आसमान की जानिब उठाई और लोगों की ओर इशारा करते हुए तीन मरतबा कहा - ``अल्लाह गवाह रहना, अल्लाह गवाह रहना, अल्लाह गवाह रहना।'' कहा जाता है कि - ``जन्नत के पश्चात्, बिछुड़ने के बाद हज़रत आदम (प्रजापिता ब्रह्मा) और हव्वा (जगदम्बा सरस्वती) पहली बार इसी अऱाफात पर्वत पर मिले थे।''
जो भी हज यात्री मक्का-शऱीफ जाते हैं वे सभी मीना (स्थान का नाम है) के निकट जगरात पर शैतान के प्रतीक तीन खम्भों पर कंकड़ मारने की रस्म अदा करते हैं तथा तमाम हाजी एक आवाज़ में कहते हैं - ``अल्लाह हु अकबर'' (अल्लाह सबसे बड़ा है)।
तमाम हज यात्री मक्का शऱीफ में ``हाने-काबा'' (खुदा के घर) का तव़ाफ (परिक्रमा) करते हैं और `काबा' (नूर-ए-असवद के प्रतीक) का `बोसा' (चुम्बन) लेते हैं। काबा का बोसा लेने से तमाम गुनाह माफ हो जाते हैं ऐसी मुस्लिमों की मान्यता है तथा तमाम हाज़ी ``जमजम'' के कुएँ का पानी पीते हैं, वे इसे आब-ए-हयात (अमृत) मानते हैं।
इस नापाक दुनिया (दोज़ख याने नर्क) के पश्चात्, इसी जमीं पर बहिश्त आने वाला है। दोज़ख और बहिश्त के संगम-ए-वक्त (पुरुषोत्तम संगमयुग) पर खुद, बदीअ (बहिश्त के रचनाकार) अल्लाह (ईश्वर) अर्स-ए-आज़म (पाँचवे आसमान अर्थात् परमधाम) से इस ज़मीं पर आकर हज़रत आदम (प्रजापिता ब्रह्मा), हव्वा (जगदम्बा सरस्वती) तथा फ़रिश्तों (ब्रह्माकुमारियों
तथा ब्रह्माकुमारों) के द्वारा बहिश्त (स्वर्ग) कायम (स्थापन) करने का कार्य कर रहे हैं। रूहे-आला (परमपिता शिव परमात्मा) स्वयं, हज़रत आदम के जुबान (मुख) को आला ज़रिया (माध्यम) बनाकर रूहों को जन्नत-ए-बादशाह (स्वर्ग के विश्व महाराजा तथा विश्व महारानी) बनाने के लिए रूहानी-इल्म (ईश्वरीय ज्ञान) की तालीम (शिक्षा) दे रहे हैं। ऐसे रूहानी-इल्म की बदौलत रूहें बहिश्त में दाखिल हो सकेंगी तथा बहिश्त में अपना-अपना मर्तबा (वद) हासिल करेंगी।
रहमान-ए-रहीम (कल्याणकारी शिव भोलानाथ) फरमा रहे हैं - ``ऐ मेरी रूहानी औलादो! तुम रूहें जन्म-जन्मान्तर हज करते आये, शैतान को कंकड़ मारते रहे, तथा जमजम के कुएँ का पानी पीते रहे, फिर भी तुम्हें राह-ए-जन्नत हासिल नहीं हुआ, अब मेरे (नूर-ए-इलाही याने ज्योति स्वरूप परमात्मा) के फरमान (श्रीमत) पर चलो, मेरे घर अर्स-ए-आज़म (परमधाम) का हज करो, नापाक कारनामों से रोज़ा रखो, शैतान के गुमराह (भटकन) से बचने के लिए रोज़ खुदाई-कलाम (ईश्वरीय वाणी, मुरली) सुनो और मुझे (रब याने पालनहार) को जिगर से याद करो इससे तुम्हारे तमाम गुनाहों (विकर्मों) का खात्मा होगा।'' ``तमाम मुल्कों (देशों) की रूहों (आत्माओं) को मेरा (अल्लाह का) यह रूहानी पैगाम (ईश्वरीय संदेश) दो, इसके एवज (बदले) में, मैं (रूहे आला) तुम्हें बहिश्त का (स्वर्ग) शहंशाह (महाराजा) बना दूँगा।''
राजस्थान का आबू पर्वत हरी-भरी वादियों तथा कुदरती नज़ारों (प्राकृतिक सौन्दर्य) से भरपूर है। यहाँ की पाक आबोहवा (सात्त्विक वातावरण) जिगर (दिल) में अमिट छाप लगा देता है। यहाँ ही अल्लाहतआला (शिव भोलेनाथ बाबा) का साकारी वतन (घर) है जिसे ``मधुबन'' के नाम से जाना जाता है। तमाम मुल्कों की रूहें यहाँ आकर अपने परवरदिगार-रब (पालनहार ईश्वर) से मिलन मनाती हैं।
हे रूहो, आप एक बार खुदा के इस घर का हज करो तो खुदा के जन्नत में चले जाओगे। शैतान (रावण, माया) की गुमराही (अज्ञानता) की नींद में सोई हुई रूहो जागो, गुप्त लिबास (वेश) में आये अपने नूर-ए-असवद (निराकार ईश्वर) को पहचानो, बेशकीमती वक्त (अमूल्य समय) को बर्बाद मत करो, क्योंकि ``गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा'' कल कहते-कहते काल ही आ जायेगा, तब आप पछताते ही रह जाओगे। कहीं ऐसा कहना ना पड़े।
न खुदा ही मिला न विसाले सनम।
न इधर के रहे, न उधर के रहे।।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।