विद्यार्थियो, इन्हें अपनाओ और सदा सुख पाओ! (Part – 5)

0

विद्यार्थियो, विद्या अध्ययन के दिन जीवन के प्रारम्भिक निर्माण के दिन होते हैं। इन्हीं दिनों मनुष्य के जो संस्कार बनते हैं, उन्हीं पर आगे उसके जीवन की मंजिल खड़ी होती चली जाती है।

इसी काल में ही जो आदतें पड़ती हैं, वे पक्की होती चली जाती हैं। जैसे कोमल पौधे को भी लाठी का सहारा देकर खड़ा किया जाता है ताकि उसका तना टेढ़ा हो और आगे बढ़ कर जब वह वृक्ष बने तो वह सीधा हो, वैसे ही विद्यार्थी जीवन भी शीघ्र प्रभावित होने वाला एवं कोमल जीवन होता है जिसमें कि ऐसी शिक्ष की ज़रूरत होती है जो उसमें ठीक आदतें डालें और उसके ठीक संस्कारों का निर्माण करें। यदि वह चारित्रिक अथवा नैतिक शिक्षा उस काल में विद्यार्थी को नहीं मिलती तो उसमें ऋणात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलता है और उसका जीवन-वृक्ष टेढ़ी-मेढ़ी होती है।

अत विद्यार्थियो, आप नैतिक शिक्षा अथवा मानवी मूल्यों पर भी ध्यान दो क्योंकि उसके बिना तो मनुष्य चोला होने पर भी जीवन पाशविक वृत्तियां वाला होता है।

विद्यार्थियो, किसी भी कर्म को पुनरावत्त करने पर आदत दृढ़ होती है। यदि मनुष्य एक बार क्रोध करता है तो उसमें दोबारा क्रोध करने की प्रवृत्ति होती है और दोबारा करने से तीसरी बार करने के लिए उसमें और भी अधिक अन्तर्वेग आता है। इस प्रकार की आवृत्ति से उसके संस्कार पक्के होते और उसकी आदतें मज़बूत बन जाती हैं।

वे जितनी दृढ़ हो जाती हैं, उतना ही उनका बदलना बाद में कठिन होता है। अत इस आयु भाग में ही ध्यान देना आवश्यक है। ताकि प्रारम्भ ही से अच्छी आदतों या अच्छे संस्कारों का निर्माण हो और कुप्रवृत्तियाँ बने ही नहीं ताकि आके चलकर उनसे छुटकारा पाने के लिए मेहनत करनी पड़े।

भविष्य में भी उनको छुड़ाने के लिए किसी साधन को अपनाना तो पड़ेगा ही और बहुत कठिनाई का भी सामना करना पड़ेगा और कई गुणा अधिक परिश्रम करना पड़ेगा, अत उससे अच्छा तो यही है कि पहले ही से उस आदत का धब्बा लगने ही दिया जाय वर्ना जैसे कपड़े केक अत्यन्त मैले-कुचैले हो जाने पर उसे धोना तथा उसकी मैल छुड़ाना अत्यन्त मुश्किल हो जाता है, वैसे ही कड़ी आदतों को मिटाना भी पहाड़ को हटाने जैसा कार्य मालूम होता है।

अत विद्यार्थियो, सद्गुणों और दुर्गुणों, मानवी और अमावनी वृत्तियों का ज्ञान प्राप्त करते हुए अपने जीवन में इसी काल से मानवी मूल्यों तथा नैतिक नियमों की स्थापना पर ध्यान दो। बुराई को प्रारम्भ में मिटाना ही बुद्धिमत्ता है। इस नीति को अपनाओ और सदा सुख पाओ।

जीवन को सुखपूर्वक जीने की भी एक कला है। जीवन में शान्ति को बनाये रखने की भी एक विद्या है। यह जीवन क्या है, इसका अध्ययन भी एक विज्ञान है। अत विद्यार्थियो, जहाँ अन्य कलाएँ सीखते, अन्य विद्याओं का अध्ययन करते तथा विज्ञान पढ़ते हो वहाँ यदि इस कला में कुशलता प्राप्त की, यदि मन में शान्ति बनाये रखने की विद्या पढ़ी और यदि जीवन को सुखमय बनाने का विज्ञान सीखा तब अन्य विद्याओं के द्वारा धन तो कमा सकोगे, पदार्थों का संग्रह तो कर सकोगे, साधन तो जुटा सकोगे परन्तु मन की शान्ति के बिना तो वे सभी फीके लगेंगे, वे सुहायेंगे ही नहीं।

जैसे मन में चिन्ता होने पर डनलप के तकिये और फोम के गदेले का प्रयोग करने पर भी मनुष्य सुख-चैन की नींद नहीं सो सकता, वैसे ही जीवन को निश्चिन्त, निर्भय तथा नितान्त हर्षपूर्ण बनाये रखने की कला सीखने के बिना भी मनुष्य महल-गाड़ी, नौकर-चाकर, धन-पदार्थ और घर-परिवार होने पर भी सुख का सांस नहीं ले सकेगा। आज नहीं तो कल जब उसके जीवन में दुर्धना, दुवृत्तान्त, हानि, शोक, असफलता आदि की परिस्थिति आयेगी तो वह अशान्ति से कराह उठेगा और व्यथित या शोकाकुल हो जायेगा।

अत आवश्यकता इस बात की है कि जैसे आग को बुझाने के लिए जल भण्डार तथा अग्नि शामक यंत्र की पहले से व्यवस्था बनी होती है, वैसे ही अशान्ति या दुःखकारक परिस्थितियों के भी उपस्थित होने से पहले ही विद्यार्थी जीवन में ही व्यक्ति को इस विद्या, इस कला अथवा इस विज्ञान का भी अध्ययन कर लेना चाहिए ताकि आगे के लिए उसकी तैयारी हुई रहे। अत विद्यार्थियो! इनका अध्ययन करो और सुदा सुख पाओ!

विद्यार्थियो, जैसे रसायन विज्ञान अथवा भौतिक में हर क्रिया के परिणाम का विज्ञान कराया जाता है, ऐसे ही मानवी कर्मों का भी तो कोई विज्ञान अथवा दर्शन होगा? जैसे अर्थशास्त्र में या रसायन विज्ञान में हम यह अध्ययन करते हैं कि अमुक वृत्तान्त अथवा पुरुषार्थ से अमुक परिणाम (फल) हमारे सामने आते हैं, वैसे ही मनुष्य के कर्म भी तो कोई--कोई फल सामने लाते होंगे, चाहे वह सुख के रूप में हों चाहे दुःख के रूप में।

अन्तर केवल इतना है कि भौतिक पदार्थ, रसायन अथवा तत्व चेतन होने के कारण विचार नहीं कर सकते, निर्णय भी नहीं ले सकते और सुख-दुःख की अनुभूति भी नहीं करते ही वे किसी उद्देश्य को लेकर क्रिया-प्रतिक्रिया में भाग लेते हैं। जबकि मनुष्य चेतन है, विचारशील है, उद्देश्य या प्रयोजन को सामने रख कर कर्म करता है, किसी इच्छा या आवश्यकता से प्रेरित होकर कर्म करता है और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को पहले से सोच भी सकता है।

अत मनुष्य के कर्मों के साथ अच्छाई या बुराई का पहलु भी जुटा होता है जबकि तत्वों, पदार्थों या प्राकृतिक शक्तियों की क्रिया, प्रतिक्रिया में निर्णय शक्ति होने के कारण वे नैतिक पक्ष को साक्ष नहीं लिये होते। अत मनुष्य जोकि संवेदनशील और अनुभवशील है, कर्त्ता के अतिरिक्त भोक्ता भी है अर्थात् वह अपने कर्मों के नैतिक या अनैतिक होने का परिणाम स्वयं भोगता भी है और उसके कर्मों का परिणाम समाज, जिसका वह एक अंग अथवा इकाई है, पर भी पड़ता है।

उसी नैतिकता के पक्ष को, जोकि शीघ्र या बाद में सुख या दुःख की स्थिति पैदा करते हैं, अच्छाई या बुराई, पुण्य या पाप, सत्कर्म या विकर्म की संज्ञा दी जाती है। अत विज्ञान में जैसे रासायनिक अथवा भौतिक क्रियाओं की प्रतिक्रिया से सम्बन्धित नियमों का बोध होता है और उन नियमों को जानकर मनुष्य उन्हें जीवन में प्रयोग करता है, वैसे ही कर्मों के सिद्धाँत अथवा अच्छाई और बुराई के नियमों को जानकर भी हम जीवन में उनहें अपनी तथा समाज की सुख-सुविधा के लिए प्रयोग कर सकते हैं।

अत विद्यार्थियो, जैसे आप प्राकृतिक नियमों का अध्ययन करते हो, वैसे ही नैतिक नियमों का भी ज्ञान प्राप्त करो और उनका जीवन में प्रयोग करके, अच्छे, अधिक अच्दे या पूर्णत अच्छे बनने का यत्न करो। आप अपने कर्मों को श्रेष्ठ बनाओ और सदा सुख पाओ!

आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
Post a Comment (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top