किसी भी व्यवस्था में जो कार्य करने वाले लोग होते हैं उनकी दृष्टि-वृत्ति के रुख (attitude) पर बहुत कुछ निर्भर करता है। यदि एक-दूसरे के पति उनका रवय्या ठीक हो, मेल-मिलाप का हो, सहयोग और सहानुभूति का हो, एक-दूसरे की बात को समझने की और समझाने की मनोभावना पर आधारित हो तो वहाँ शान्ति बनी रहती है। वहाँ तनाव नहीं होता।
वहाँ एक-दूसरे से विचारों की लेन-देन भी सहज और खुल कर हो सकती है। वहाँ मन की दूरी महसूस नहीं होती। वे एक गठित टीम की तरह कार्य करते हैं। यदि आपस में रवय्या ही ठीक न हो तो परिवार भी टूट जाते हैं और यदि रवय्या अच्छा है तो अजनबी भी परिवार की तरह हमारे साथ जुड़ जाते हैं।
रवय्ये से एकता भी होती है और कार्य में सफलता भी मिलती है। यदि रुख और रवय्ये में अनबन, ईर्ष्या और द्वेष हो तो एक देश के कई टुकड़े हो जाते हैं। इसलिए रुख (attitudes) का बहुत महत्त्व है।
इस विषय में एक उदाहरण देते हैं कि एक परिवार काफी निर्धन हो गया था। वे रोजी-रोटी की तलाश में सारे निकल पड़े ताकि किसी दूसरे शहर में जाकर काम-धंधा ढूंढ़ें। रास्ते में छोटा-सा जंगल पड़ता था। वहीं रात हो गई और उन्होंने सोचा कि रात यहीं गुजार लेते हैं।
उन्होंने एक वृक्ष के नीचे डेरा डाला और खाना बनाने की तैयारी करने लगे क्योंकि चलते-चलते सब थक गये थे और सबको भूख लगी थी। माँ ने कहा - बेटा, देखो नजदीक से कहीं से पानी ला दो ताकि मैं आटा गूँथ लूँ। दाल-सब्जी भी बना डालूँ और प्यास बुझाने का भी पबन्ध हो जाये। बेटे ने कहा, अच्छा माँ। वो खुशी-खुशी भागते-दौड़ते पानी ले आया।
उसने दूसरे को कहा, बिटिया कुछ ईंटों का चूल्हा बना कर उसमें आग सुलगा दे। एक अन्य बेटी को कहा कि पानी आ गया है, बर्तन साफ कर लो। इसी बीच पिताजी ने एक बेटे को कहा, बेटा बहुत थक गया हूँ थोड़ा टाँगें दबा दोगे। वो उनकी टाँगें दबाने लग गया। इस पकार सारे एक पारिवारिक सम्बन्ध के स्नेह में एक-दूसरे के मेल-मिलाप के रवय्ये से उसे अपना ही काम समझ कर खूब करने में लग गये।
सबने गर्म-गर्म भोजन खाया और दरी-चादर बिछा कर विश्राम करने लगे। उसी वृक्ष पर एक कौवा बैठा था। वो बैठा ये सब देख रहा था। उसने चिरकाल से वहाँ घौंसला बनाया हुआ था। इसमें उसके छोटे-छोटे बच्चे थे। उसमें ही वो भी आराम करते थे। ये सब देख कर कौवे को लगा कि इनमें तो बहुत एकता, प्यार और सहयोग का रवय्या है। सुबह सब उठे फिर सबने एक-दूसरे को सहयाग दिया।
नहा-धोकर सब नाश्ते की तैयारी करने लगे। वही पहले जैसा स्नेह और प्यार था। उनके उमंग-उत्साह से लगता ही नहीं था कि ये रोजी-रोटी की तलाश में हैं और इन पर कुछ आढ़े दिन आये हुए हैं। कौवा ये तो जानता नहीं था कि ये आज जाने वाले हैं। उसने सोचा कि अगर ये यहाँ रह जायेंगे तब मेरा तो घौंसला तोड़ देंगे।
कहानी में ये बताया गया है कि उसने सोचा कि इनके फायदे की एक ऐसी बात बताऊँ कि ये यहाँ से खुशी-खुशी रवाना हो जायें। वर्ना मेरा ही घर उजड़ जायेगा। अगर किसी एक ने भी कह दिया इस कौवे को उड़ाओ, इसका घौंसला हटाओ तो इनकी तो सारी फौज मेरे पीछे ही लग जायेगी और मूसल बरसाना शुरू कर देगी। उसने उनको कहा कि आप बहुत अच्छे लोग मालूम होते हैं।
आपकी अच्छाई को देखकर मैं आपको एक लाभ की बात बताता हूँ जिससे आप मालामाल हो जायेंगे और किसी भी शहर में ठाठ से रह सकेंगे। जहाँ आप आकर रहे हैं ये आप जैसे सज्जन लोगों के रहने की जगह नहीं है आप मेरे साथ चलें। थोड़ी ही दूर में मैं आपको एक जगह बताता हूँ। उस जगह पर बहुत समय से एक खज़ाना नीचे दबा हुआ है। आप सब में एकता है आप मिलकर उसको खोद भी लेंगे।
उसमें अशर्पियाँ, हीरे, रत्न का खज़ाना है।वो उन्हें ले गया और उनको दिखा कर वापस अपने घौंसले में आ गया और वे लोग खज़ाना ले कर लौट गये तो देखिए आपस के मेलमिलाप के रवय्ये से उन्हें आशातीत फल मिला।
बताते हैं कि कुछ दिन के बाद एक दूसरा परिवार किसी कारण से आकर उस वृक्ष के नीचे आकर रुका। क्योंकि उन्होंने देखा कि ये जगह कुछ साफ लग रही है। शाम का समय था माता ने एक बेटे को कहा कि अरे पानी ला दे। तू ऐसे ही निठल्ला होकर बैठा है कोई काम कर। वो कड़क कर बोला, काम के लिए तुम्हें हर वक्त मैं ही दिखाई देता हूँ? खिलाती-पिलाती छोटे भाई को है।
अच्छे कपड़े-लत्ते मेरे बड़े भाई को देती है। अब उनको काम दे, मैं नहीं जानता। फिर उसने दूसरे लड़के को कहा, बड़े ने कहा कि अजीब जमाना आ गया है छोटे भाई बैठे हुए हैं आप मुझे ही काम बता रही हैं। आपने इन्हें सिर पर चढ़ा रखा है। वो झड़प कर मंझले भाई से बोला तू जाता है कि नहीं। मालूम होता है आज तेरी शामत आ गई है। वो बोला छोटा तो ये है। ये पानी भी नहीं लायेगा तो पीने को तैयार कैसे होगा?
ये सिर्प खाना ही जानता है। जा रे तू, क्यों बैठा है? तू काम चोर है। छोटा बोला, तुम हर वक्त ही मुझे ही डाँटते हो। मैं नहीं जाता। कर लो जो कुछ करना है। बात लम्बी है। आखिर माँ ही उठकर पानी लाई। कौवे ने देखा कि इनका तो हर बात में झगड़ा होता है। इनका रवय्या आपस में ठीक नहीं है। वे इतना भी सहयोग नही देते कि चलो हम पानी ले आयेंगे।
कोई आग सुलगा देगा, कोई आटा गूँथ देगा और हम सब मिलकर भोजन करेंगे। किसी ने खाना खाया, किसी ने नहीं खाया और नाराज होकर सो गये। दूसरे दिन पात भी उनका वो ही हाल था तब कौवे ने उनको कहा कि तुम्हें मुझसे कुछ नहीं मिलेगा न मुझे तुमसे डर है।
तुम तो आपस में ही लड़ मरोगे। शायद तुमने सोचा होगा और सुना होगा कि पहले एक परिवारन को मैंने खज़ाना बताया और अब शायद तुम्हें भी बता दूँगा। परन्तु समझ लो ऐसा होने वाला नहीं है ये कह कर वो उड़ गया।
इसलिए हम कह रहे थे कि रवय्या ठीक होने से कम्पनियाँ और कारखाने फायदे करते हैं और घर-परिवार तरक्की करते हैं और रवय्या ठीक न होने के कारण घर भी लड़ाई का मैदान बन जाता है। बड़े-बड़े नगर जाति-पाति के भेद में परस्पर लड़ कर उसे उजाड़ देते हैं। मान लीजिए कि कोई अस्पताल है। मरीज को 8 ही दिन की ज़रूरत है।
उसे ग्लूकोज भी देना है और फलां-फलां तैयारी भी करनी है। यूँ तो हरेक का कार्य अपना-अपना बँटा हुआ होता है परन्तु यदि मौके पर कार्य वाला व्यक्ति उपस्थित नहीं है और दूसरे जानकार व्यक्ति को कह दिया जाये कि ज़रा ये कर दो और मरीज की जान बच जाती है तो सब लोगों को खुशी होती है और मरीज और उसके परिवार की दुआएँ मिलती हैं।
काम के लिए तनख्वाह मिलना अलग बात है। मन की गहराई से निकली हुई दुआ मिलना ये बहुत बड़ी बात है। ये सहयोग, सहानुभूति इत्यादि के रवय्ये से ही पाप्त होती है। इसमें केवल व्यावसायिक सफलता नहीं है। बल्कि जीवन की सफलता है जो एक बहुत ऊँची बात है। अत हमें ये ध्यान रखना पड़ेगा कि अगर सफलता और दुआ चाहिए, शान्ति का वातावरण चाहिए, पारस्परिक स्नेह चाहिए तो हमारा परस्पर रवय्या ठीक होना चाहिए।
ये सोच कर जलते-भुनते नहीं रहना चाहिए कि ये खुद क्या करता है। सिर्प आर्डर चलाना ही जानता है। आर्डर चलाने वाला तो आर्डर ही चलायेगा ना क्योंकि उसका कार्य ही आर्डर देना है। परन्तु हाँ आर्डर देने वाले को भी अपने स्टाफ के पति सहानुभूति और स्नेह की आवश्यकता है। इस पकार दोनों तरफ के रवय्ये ठीक होने की ज़रूरत है।
आपका प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में तहे दिल से स्वागत है।